शाही वंश का इतिहास क्या था
शाही वंश – काबूल घाटी तथा गांधार प्रदेश में काफी अर्से से एक तुर्की शाही वंश का शासन स्थापित था। इस वंश के शासक लगर्तूमान को इसके ही एक ब्राह्मण जाति के मंत्री कल्लर ने गद्दी से हटा दिया और वह स्वयं शासक बन बैठा। इस प्रकार नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिंदू शाही वंश की स्थापना हुई। इतिहासकारों को यह तथ्य अभी हाल ही में पता चला है कि राजतरंगिणी में लल्लिय शाही के रूप में कल्लर का ही उल्लेख हुआ है। लल्लिय का राज्य तुरुक्षों के क्षेत्र (काबुल घाटी) से दरदों के क्षेत्र (कश्मीर में किशन गंगा घाटी) तक विस्तृत था। लल्लिय पर काश्मीर के शासक शंकरवर्मन ने आक्रमण किया था, किंतु उसे विशेष सफलता नहीं मिली थी। कल्हण ने वीरता तथा वैभव के वर्णन के साथ ही एक उदार आश्रयदाता के रूप में राजा की बङी प्रशंसा की है। किंतु काबुल पर लल्लिय का आधिपत्य अधिक समय तक नहीं रह सका। सन 870 ई. में शफारिद याकूब इब्न लाइथ का इस पर कब्जा हो गया। इसकी मृत्यु के बाद इसी वंश की अन्य शाखा के सामंत ने राज्य पर कब्जा कर लिया। किंतु शीघ्र ही कश्मीर के शासक गोपाल वर्मन ने सामंत को हटाकर लल्लिय के लङके तोरमाण को गद्दी पर बैठाया और उसका नाम कमलुक रखा। जाबुलिस्तान के हाकिम फर्दगान ने एक हिंदू तीर्थ रूकाबंद (जलालाबाद के निकट) को लूटा जो कमलुक के राज्य में पङता था। इससे कमलुक तथा मुस्लिम शासकों में वैमनस्य पनपने लगा था।
कमलुक के बाद उसका लङका भीम शासक हुआ। उसने लोहर-वंश के शासक सिंहराज से अपनी पुत्री का विवाह किया, जिससे दिद्दा का जन्म हुआ। दिद्दा का विवाह क्षेमेन्द्र गुप्त से हुआ। इसके बाद जयपाल का ही विवरण प्राप्त होता है। इतिहास में भीम और जयपाल का संबंध स्पष्ट नहीं है, इसलिए कुछ इतिहासकार जयपाल को नए वंश का संस्थापक मानते हैं।
जयपाल दसवीं शताब्दी के अंतिम दो या तीन दशकों के दौरान शासक रहा। स्वता घाटी के ऊपरी भाग में स्थित बरीकोट के एक शिला अभिलेख में परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री जयपाल देव का उल्लेख है, जिसे इतिहासकारों ने अनेक तुर्कों के बाद शाही जयपाल का राज्य सिरहिंद (भटिंडा) से लमगान तथा काश्मीर से मुल्तान तक विस्तृत था। उस समय इसमें पश्चिमी पंजाब, उत्तरी-पश्चिमी सीमांत प्रदेश तथा पूर्वी अफगानिस्तान सम्मिलित थे। इल्तुतमिश के काल के मुहम्मद बिन मंसूर द्वारा रचित ग्रंथ आदाब-उल-मलूक व किफायत-उल-ममलूक में जयपाल तथा लाहौर के शासक के बीच युद्ध का विशद वर्णन मिलता है।
सन 932 ई. में गजनी में अलप्तगीन ने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। 977 ई. में उसका दामाद तथा दास सुबुक्तगीन गजनी का शासक था। उसने भारत की ओर कई अभियान किए, जिसका आघात जयपाल को सहना पङा। एक जागरुक तथा दूरदर्शी शासक होने के कराण जयपाल ने तुर्की खतरे का अनुमान कर लिया था। 986-87 ई. में उसने गजनी पर आक्रमण किया। अकस्मात एक भीषण तूफान तथा हिमपात के कारण उसकी सेना अस्त-व्यस्त हो गयी, जबकि उसकी विजय को संभावना काफी प्रतीत हो रही थी। इस असफलता के कारण जयपाल को एक अपमानजनक संधि करनी पङी। संधि को तोङने के कारण सुबुक्तगीन ने पर्याप्त तैयारी के साथ जयपाल पर 989 ई. में आक्रमण कर दिया। जयपाल ने भी इस संभावित संघर्ष के लिये तैयारी की थी। उसने सही समय पर कन्नौज के प्रतिहार तथा चौहान, और बुंदेलखंड के चंदेल राजाओं से सैनिक सहायता प्राप्त की थी। 989 ई. में कुर्रम घाटी में भीषण युद्ध हुआ। सुबुक्तगीन की दशा इस युद्ध में नाजुक हो गयी थी किंतु उसने अपने श्रेष्ठ सैनिक संचालन तथा कुशल रणनीति के कारण इसमें विजय प्राप्त की। पुनः जयपाल को अपमानजनक संधि स्वीकार करनी पङी और लगमान तथा पेशावर तक के भू भाग पर सुबुक्तगीन का कब्जा हो गया। 998 ई. में उसका पुत्र महमूद गजनी का शासक बना। महमूद ने 1001 ई. में जयपाल को हराकर उसका अपमान किया तथा उसके राज्य को लूटा। जयपाल अपमान न सह सका और उसने अग्नि में कूदकर आत्महत्या कर लिया। 1004-1005 ई. तथा 1008 ई. में जयपाल के लङके आनंदपाल ने महमूद के आक्रमण का वीरता से सामना किया किंतु वह दोनों बार हार गया। इस पराजय का सबसे बङा कारण यह था कि तुर्की आक्रमण के समय भारत में राजनीतिक एकता का अभाव था। इस संदर्भ में यह विशेष महत्व की बात है कि 1008-9 ई. में आनंदपाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, दिल्ली तथा अजमेर के शासकों से सैनिक सहायता प्राप्त की थी। ध्यान देने पर पता चलता है, कि असफलता के बावजूद इस प्रकार के प्रयासों का अपना एक ऐतिहासिक महत्त्व है। सन् 1013 तथा 1014 ई. में पुनः आनंदपाल महमूद से हार गया। उसके पुत्र त्रिलोचनपाल तथा त्रिलोचनपाल के उत्तराधिकारी भीम ने भी महमूद का प्रतिरोध किया। इस प्रकार जयपाल, आनंदपाल त्रिलोचनपाल तथा भीमपाल ने करीब पचास वर्षों तक तुर्कों के आक्रमण का लगातार सामना ही नहीं किया, वरन् कई बार तो आक्रमण करके उन पर दबाव बनाए रखने में सफलता प्राप्त की थी।