लार्ड कर्जन और उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति (Lord Curzon and the North-West Frontier Policy)
लार्ड कर्जन और उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति- लार्ड डफरिन से अब्दुर रहमान के संबंध लार्ड लैन्सडाउन के काल में भी मधुर बने रहे। अफगान और ब्रिटिश प्रशासित क्षेत्रों के बीच 25 हजार वर्गमील की पट्टी का एक क्षेत्र था, जहाँ विश्व की अत्यधिक खूंखार जाति निवास करती थी, जिस पर अमीर का नियंत्रण नहीं के बराबर था। इस कबीले के लोग प्रायः ब्रिटिश सीमा का उल्लंघन कर ब्रिटिश क्षेत्रों में लूटमार किया करते थे। इन्हें दंडित करने हेतु समय-समय पर उनके विरुद्ध आक्रमण किये गये, लेकिन इनका कोई प्रभाव नहीं पङता था। अतः भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा सदैव समस्यामूलक रही।

जब अँग्रेजों ने अफगानिस्तान और कबाइली क्षेत्रों के बीच सीमांकन किया तो कबाइली भङक उठे तथा कबाइलियों ने ब्रिटिश मार्गों पर लूटमार आरंभ कर दी। लार्ड लैन्सडाउन ने उन्हें नियंत्रित किया तथा सर मोर्टीमेर डूरंड को अमीर से बातचीत करने हेतु अफगानिस्तान भेजा।
1893 ई. में डूरण्ड ने अमीर के साथ एक समझौता किया जिसे डूरंड समझौता कहते हैं। इसमें यह तय हुआ कि-
- अमीर अब वजीरियों, अफरीदियों और अन्य सीमांत कबीलों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
- जहाँ भी संभव होगा ब्रिटिश और अफगान कमिश्नर्स मिलकर सीमा रेखा स्पष्ट कर लेंगे।
- अमीर चितराल, दीर, स्वात और बाजौर में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इसके बदले में अँग्रेजों ने उसे कुछ जिले प्रदान कर दिये।
- अँग्रेजों ने अमीर को भारत से होकर युद्ध सामग्री खरीदने व आयात करने की छूट प्रदान कर दी।
- अमीर को दी जाने वाली आर्थिक सहायता 12 लाख रुपये वार्षिक से बढाकर 18 लाख रुपये वार्षिक कर दी गयी।
लार्ड कर्जन और उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति – लार्ड लैन्सडाउन के उत्तराधिकारी लार्ड एल्गिन द्वितीय के काल में 1897 ई. में कबाइलियों ने पुनः विद्रोह कर दिया। एल्गिन ने एक सेना को भेजकर हजारों कबाइलियों को मौत के घाट उतार दिया। लगभग 50 हजार सेना पूरे अशांत क्षेत्र में फैला दी गयी जिसने एक के बाद दूसरे गाँव को जला डाला, घर बर्बाद कर दिये तथा खङी फसलों को तहस-नहस कर दिया। तब शांति स्थापित हो सकी। लार्ड एल्गिन ने कबाइलियों को नियंत्रित करने हेतु कश्मीर के गिलगित नामक स्थान पर ब्रिटिश एजेन्सी स्थापित करके चितराल, टोची घाटी, लोडी, कोतल व खैबर दर्रे में ब्रिटिश सैनिक तैनात कर दिये। लार्ड कर्जन के भारत आने के समय इन स्थानों पर ब्रिटिश सेना तैनात थी।
उस समय उत्तर-पश्चिमी सीमान्त नीति के संबंध में दो विचारधाराएँ प्रचलित थी – एक विचारधारा अग्रगामी नीति की समर्थक थी, जिसके अनुसार ब्रिटिश सैनिकों को कबाइली क्षेत्रों में आगे बढना चाहिये तथा सैन्य शक्ति से कबाइलियों को नियंत्रित करना चाहिये।
दूसरी विचारधारा अहस्तक्षेप की नीति की समर्थक थी। कर्जन ने मध्यममार्गी नीति का समर्थन किया। वह न तो इस क्षेत्र में सैन्य शक्ति के प्रयोग के पक्ष में था और न वह चाहता था कि यह क्षेत्र इतना अनियंत्रित हो जाय कि ब्रिटिश सेना को पीछे हटने के लिए विवश होना पङे। कर्जन ने कबाइली क्षेत्रों से ब्रिटिश सेना को वापिस बुला लिया और उसके स्थान पर कबाइली रंगरूटों को तैनात कर दिया, किन्तु उनकी सैनिक कमान ब्रिटिश सैनिक अधिकारियों के हाथ में रखी। कबाइलियों को यह बात अच्छी तरह समझा दी गयी कि जहाँ भारत सरकार उनकी स्वाधीनता का सम्मान करती है वहीं उस क्षेत्र में किसी प्रकार की अव्यवस्था को भी सहन करने को तैयार नहीं है। कर्जन ने कबाइलियों के आक्रमण के प्रति सजग रहते हुए सीमा की सुरक्षा व्यवस्था को दृढ कर दिया।
कबाइली क्षेत्रों में सङकों आदि के निर्माण के लिए भी कबाइली मजदूरों की भर्ती की, ताकि वे अपना जीविकोपार्जन कर सके। कर्जन की नीति की सफलता इसी से स्पष्ट हो जाती है कि भारत सरकार को अगले दस वर्षों तक इस क्षेत्र में किसी अप्रिय घटना का सामना नहीं करना पङा। फिर भी इस नीति से सीमान्त समस्या का स्थायी हल नहीं निकल सका। प्रथम विश्व युद्ध के समय इस क्षेत्र में स्थिति पुनः अनियंत्रित हो गयी थी।
