चंद्रवरदाई कौन था ?

हिन्दी में आदि महाकाव्य पृथ्वीराज रासो के रचयिता चंदवरदाई का जीवन चरित्र संभवतः सबसे अधिक विवादास्पद है। चंद्रवरदाई के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट महाराजा पृथ्वीराज तृतीय चौहान के सामंत और राजकवि थे। वे न केवल कुशल कवि ही थे, अपितु पृथ्वीराज के अनन्य सखा और सामंत भी थे। पृथ्वीराज रासो ढाई हजार पृष्ठों का वृहद ग्रन्थ है, जिसके उत्तरार्द्ध के बारे में कहा जाता है कि उसकी रचना चंद के पुत्र जल्हण ने की थी। रासो में एक स्थान पर ऐसा उल्लेख भी मिलता है।
“पुस्तक जल्हण हथ्थ दे चलि गज्जन नृप काज”
पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता के विषय में बहुत मतभेद हैं, क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों के साथ इस ग्रंथ में वर्णित घटनाओं का ताल-मेल नहीं बैठता। भाषा की विविधता भी इसके प्रामाणिक होने में संदेह उपस्थित करती है। यहाँ हम इस ग्रंथ के बारे में केवल दो ही तथ्यों का जिक्र करना चाहेंगे, एक तो यह कि पृथ्वीराज रासो डिंगल का नहीं अपितु पिंगल का ग्रंथ है और दूसरा यह कि इसका जो स्वरूप प्राप्त होता है, उससे उसकी रचना किसी एक कवि द्वारा हुई हो, ऐसा अनुमान नहीं किया जा सकता। फिर भी इतना तो मानना पङेगा कि यह हिन्दी का सर्वप्रथम उपलब्ध महाकाव्य है जिसमें काव्य का सौन्दर्य असाधारण कोटि का है। पृथ्वीराज रासो के पद्मवती समय के कुछ पद उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं-
मनहू कला असमान कला सोहल सौ वन्निय।
बाल बैस, ससि तासमीप अम्रित रस पिन्निय।
बिगति कमल मृग, भवन बेनु, कंजन, मृग लुट्टिया।।
कट्टिल केस सुदेश पोह परिचियत पिक्क सद।
कमल गंध, वयसंध, हंसगति चलति मंद।
सेत वस्त्र सोहे शरीर नष वति बूंद जस।
भुमर भवाहे भुल्लहि सुझाव मकरंद बास रस।।