उत्तरकालीन अभिजात वर्ग क्या था?

उत्तरकालीन अभिजात वर्ग – उत्तरकालीन मुगल राजनीति में एक बहुत बुरी बात जो उभर कर सामने आई, वह थी एक ऐसे शक्तिशाली सरदारों का उत्थान था जो अब सम्राट-निर्माता की भूमिका निभाने लगे थे। उत्तराधिकार के युद्ध तो मुगल काल के अच्छे दिनों में भी होते थे जिनमें शक्तिशाली मनसबदार मुख्य लङने वालों का साथ देते थे परंतु बाद के मुगल काल में ये महत्वाकांक्षी अमीर और सरदार ही मुख्य भूमिका निभाने लगे थे और मुगल राजकुमार तो केवल शतरंज के मोहरे मात्र रह गये थे। सरदार लोग अपने स्वार्थ के लिए राजकुमारों को सिंहासन पर बैठा देते अथवा हटा देते। जहांदर शाह अपनी शक्ति से नहीं अपितु इरानी दल के नेता जुल्फिकार खां के उत्तम नेतृत्व के कारण सम्राट बना। इसी प्रकार फर्रुखसीयर को सैयद बंधुओं ने ही 1713 में सिंहासन पर बैठाया और फिर जब 1719 में वह उनके लिए बेकार हो गया तो सिंहासन से उतार दिया गया। इसी भांति तीन कठपुतली सम्राट रफी-उद्-दरजात, रफी-उद्-दौला और मुहम्मद शाह सैयद बंधुओं ने सिंहासन पर बैठाए। 1720 में सैयद बंधुओं का पतन इसलिए नहीं हुआ कि वे सम्राट का विश्वास खो बैठे थे अपितु इसलिए कि निजाम-उल-मुल्क और मुहम्मद अमीन खां के नेतृत्व दल अधिक बलशाली हो गया था। ये दल आधुनिक दलों की भाँति भिन्न-भिन्न नीतियों पर आधारित नहीं थे अपितु केवल स्वार्थ भाव से ही प्रेरित थे और प्रायः मुगल सम्राटों और देश के हितों के विपरीत ही कार्य करते थे।
मुगल दरबार में दल-
प्रसिद्ध लेखक विलियम अरविन के अनुसार, मुगल दरबार में बहुत से दल थे। इनमें चार प्रमुख थे, तूरानी, ईरानी, अफगानी और हिन्दुस्तानी। इनमें तीन मध्य एशियाई, ईरानी और अफगान सैनिकों के वंशज थे जिन्होंने भारत को जीता था और जहां राज्य स्थापित करने में सहायता दी थी। उनकी संख्या औरंगजेब के अंतिम 25 वर्षों में बहुत बढ गयी थी, विशेषकर जब वह दक्षिण में युद्धों में व्यस्त रहा। इनके वंशज भारत के भिन्न-भिन्न भागों में सैनिक और असैनिक पदों पर नियुक्त थे। इनमें ऑक्सस नदी के पार वाले तूरानी और फारस और खुरासान के अफगान, प्रायः सुन्नी थे और ईरानी अधिकतर शिया थे। इस मुगल अथवा विदेशी दल के विपरीत एक भारतीय दल था जिसमें वे लोग थे जिनके पूर्वज बहुत पीढियों पहले भारत में बस गए थे अथवा हिन्दुओं से मुसलमान बन गये थे। इस दल को राजपूत, जाट तथा शक्तिशाली हिन्दू जमीदारों का समर्थन भी प्राप्त था। छोटे-छोटे पदों पर नियुक्त हिन्दू भी इसी दल का समर्थन करते थे। परंतु यह भी कहना ठीक नहीं होगा कि ये दल केवल रक्त, जाति और धर्म पर ही आधारित थे। डॉ. सतीश चंद्र ने ठीक ही कहा है कि अमीरों द्वारा धर्म और जाति की दुहाई केवल अपने निजी प्रयोजन के लिये ही दी जाती थी, वास्तविक दल प्रायः धर्म और जाति के बंधनों से ऊपर होते थे।