इतिहासराजस्थान का इतिहास

आमेर के राजप्रासाद

आमेर के राजप्रासाद – कछवाहों की प्राचीन राजधानी आमेर के स्थापत्य में दुर्ग स्थापत्य तथा राजप्रासादों के स्थापत्य का सुन्दर सम्मिश्रण मिलता है। आमेर के कछवाहा शासकों ने धीरे-धीरे अपनी आवश्यकता के अनुरूप यहाँ गढ, परकोटा, बुर्ज, मंदिर, जलाशय और राजप्रासादों का निर्माण करवाया।

आमेर के राजप्रासाद स्थापत्य की दृष्टि से राजस्थान के सर्वाधिक सुन्दर राजप्रासादों में माने जाते हैं। इसका निर्माण कार्य राजा मानसिंह ने आरंभ करवाया था, जो मिर्जा राजा जयसिंह के काल में पूर्ण हुआ था। ऊँची पहाङी पर बने राजप्रासाद, चारों ओर से सुदृढ दीवारों से सुरक्षित किये गये हैं तथा दुर्ग के दोनों ओर पहाङियों की कतार आ जाने से यह और भी अधिक सुरक्षित हो गया है

ऊपर के भाग को चारों ओर से बंद करके नीचे से आने वाले आक्रमणकारी का मुकाबला किया जा सकता था। नीचे का भाग इतना तंग है कि शत्रु ऊपर तक तोपें आदि नहीं ले जा सकता और ऊपर तक अपने शस्रों का प्रयोग नहीं कर सकता। इसके पूर्वी भाग में बने जलाशय के पास दलाराम बाग है,

जिसमें बने फव्वारे, छतरियाँ व बँगले इसकी शोभा बढाते हैं। इसकी सजावट मुगल शैली की है, किन्तु भवनों के मेहराब और छज्जे बंगाली शैली के हैं। दुर्ग पर बना हुआ संपूर्ण ढाँचा हिन्दू शैली का है। मुख्य द्वार के आगे वाले चौक को जलेब चौक कहते हैं। इस चौक में हाथी, घोङे, फौज आदि का निरीक्षण किया जाता था और इसी चौक में घुङदौङ भी हुआ करती थी,

जिसे ऊपर के दालान में बैठकर देखा जा सकता था। इसी शैली के चौक उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर व सिरोही के राजप्रासादों में देखे जा सकते हैं। चौक की समाप्ति पर दूसरा मुख्य द्वार आता है जो सिंहपोल कहलाती है। यह द्वार अत्यन्त ही भव्य और कलात्मक है, जिसके स्थापत्य में हिन्दू शैली दिखाई देती है, लेकिन बाहर की चित्रकला उत्तर मुगलकालीन प्रतीत होती है।

आमेर के राजप्रासाद

मुख्य द्वार में प्रवेश करने के बाद पुनः एक और चौक आता है। इस चौक में विशेषाधिकारों से युक्त सामन्त आया करते थे। इस चौक के एक कोने पर एक खुला भवन बना हुआ है, जिसे दीवान-ए-आम कहते हैं। बाहर से यह भवन मुगल शैली का दिखाई देता है, लेकिन अंदर का भाग हिन्दू शैली का है।

अंदर का संपूर्ण ढाँचा आगरा के किले के दीवान-ए-आम के अनुरूप है, लेकिन खंभे, छत आदि हिन्दू शैली के हैं। भवन में लाल पत्थर के 40 खंभे लगे हुए हैं और इसकी छत पट्टियों व मेहराबों वाली है। छत के भार को संतुलित रखने के लिए घुमावदार घोङियाँ (ब्रिकेट) अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती हैं।

इसके खंभों पर उत्कीर्ण हाथियों की आकृतियों से भी हिन्दू शैली का प्रदर्शन होता है। इस भवन से लगा हुआ कमरा मजलिस-विलास कहलाता है, जहाँ शासक अपने प्रशासनिक पदाधिकारियों से विचार-विमर्श किया करते थे। संपूर्ण भवन के स्थापत्य में एकरूपता ने होने के कारण अनुमान किाय जाता है कि इसमें समय-समय पर परिवर्तन किये गये हों तथा प्राचीन दुर्ग और राजप्रासादों का पत्थर परिवर्तित भवनों के निर्माण में उपयोग में लाया गया हो।

दीवान-ए-आम के दक्षिण की ओर अंदर जाने के लिये एक भव्य द्वार आता है, जिसे गणेशपोल कहते हैं। यह द्वार तथा इसके आजू-बाजू में बने भवन शुद्ध राजपूत शैली के हैं लेकिन द्वार के ऊपर वाला भाग मेहराबदार है। इस द्वार में प्रवेश करने पर एक चौक आता है, जिसके एक तरफ शीश महल बना हुआ है। शीश महल में चूने से बेल-बूटे उभार कर सजावट की गयी है। बाहरी और भीतरी दीवारों पर भी उभरे हुए फूलों के गुलदस्ते तथा फूलों पर तितलियों की आकृतियाँ बनायी गयी है। इस प्रकार की सजावट मुगल शैली को प्रदर्शित करती है। इसकी दीवारों में संगमरमर पत्थर के टुकङे तथा छत में शीशे का काम हुआ है। प्रकाश किया जाने पर संपूर्ण शीश जगत जगमगा उठता है।

इसे दीवान-ए-खास भी कहा जाता है। शीश महल के सामने स्थित सुख निवास तथा सुख मंदिर राजपूत शैली का है। इस महल के दरवाजे चंदन की लकङी के बने हुए हैं तथा उन पर हाथीदाँत का कलात्मक काम भी किया हुआ है। शीश महल के ऊपर जस मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर में भी शीशे के टुकङे जङे हुए हैं जो बङे कलात्मक प्रतीत होते हैं।

शीश महल के आसपास दो छोटे कमरे बने हुए हैं जिनकी छतों व दीवारों पर भी काँच के टुकङे जङे हुए हैं। काँच के टुकङों से बेल, पत्तियाँ, सुराहियाँ आदि बनी हुई हैं जो फारसी (ईरानी) कला से साम्यता रखती हैं।

गणेशपोल के ऊपर के भाग में सुहाग मंदिर, एक दालान और आसपास ही छोटे कमरे बने हुए हैं। दालान में जालियाँ लगी हुई हैं ताकि ऊपर से स्रियाँ नीचे की ओर बाहर होने वाले उत्सवों आदि को देख सकें, किन्तु बाहर के लोग इन जालियों से स्रियों को न देख सकें। यहाँ से कुछ आगे जयगढ से लगे हुए भवन बने हुए हैं।

इन प्राचीन भवनों की विशेषता यह है कि इनके द्वार छोटे-छोटे हैं, दोहरे और खुले तिबारे तथा कमरे साथ-साथ जुङे हैं तथा इन भवनों की छतें भी नीची हैं। दरवाजों पर राजपूत शैली के चित्र बने हुए हैं। नीचे की ओर बारादरी के आसपास रानियों के अलग-अलग आवास बने हुए हैं। प्रत्येक आवास में दो कमरे हैं, जो बरामदे से जुङे हुए हैं। सभी आवासों को जोङने वाला एक दालान भी बना हुआ है।

सुख निवास के पास बरामदों के साथ-साथ छोटी कोठरियाँ भी बनी हुई हैं, जो संभवतः राजपरिवार के पुरुष सदस्यों के बैठने व मिलने आदि के लिए काम में आती थी। इसकी दीवारों पर राजपूत शैली में पौराणिक चित्र बने हुए हैं। पास में पानी की नाली बनी हुई है जो लहरदार पत्थर पर बनी हुई है। यहाँ से आगे सिंह द्वार आता है और सिंह द्वार से नीचे उतरने पर शिलादेवी का मंदिर आता है। राजा मानसिंह ने बंगाल के राजा केदार को परास्त कर देवी की मूर्ति यहाँ लाकर स्थापित की थी।

यह देवी की मूर्ति श्याम पाषाण की बनी हुई है । आमेर दुर्ग में महलों के उत्तर-पश्चिम में जगत शिरोमणि का मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से एक श्रेष्ठ कलाकृति है। यह राजा मानसिंह के पुत्र जगतसिंह की स्मृति में उसकी विधवा पत्नी ने बनवाया था। मंदिर में लगे हुए स्तंभों पर देवी-देवताओं की आकृतियाँ अत्यन्त सुन्दर बनी हुई हैं।

मंदिर के गर्भगृह में काले पत्थर की कृष्ण मूर्ति है। यहाँ के प्राचीन मंदिरों में अम्बदीश का मंदिर तथा नरसिंह जी का मंदिर प्रमुख हैं। आमेर में अकबरकालीन एक मस्जिद भी है।

आमेर के राजप्रासादों के बारे में फर्ग्युसन एवं ब्राउन का मानना है कि ये मुगल शैली के हैं, किन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार ये राजप्रासाद बाहरी दिखावे में मुगल शैली के दिखाई देते हैं, लेकिन इनका संपूर्ण आंतरिक ढाँचा मंडन के राजवल्लभ में दिये गये ढाँचे के अधिक निकट है। चित्रित दरवाजे, बरामदों के साथ दो कमरे, तंग ड्योढियाँ, मयूर व हाथी की आकृतियाँ, रंगीन काँच के टुकङों से पौराणिक चित्र आदि सभी तत्व भारतीय हैं।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
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विकिपिडिया : आमेर 

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