इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान का प्रसिद्ध विजयस्तंभ

राजस्थान का प्रसिद्ध विजयस्तंभ – महाराणा कुम्भा की अमर कीर्ति का यह विजयस्तंभ राजस्थान की स्थापत्य एवं तक्षण कला का एक अद्वितीय नमूना है। इस विजयस्तंभ के निर्माण के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों के अनुसार कुम्भा ने मालवा के सुल्तान पर अपनी विजय की स्मृति में यह स्तंभ बनवाया था और कुछ विद्वानों के अनुसार कुम्भा ने अपने उपास्य देव भगवान विष्णु के निमित्त इसे बनवाया था। चाहे कुम्भा ने इसे किसी के निमित्त बनवाया हो, स्थापत्य की दृष्टि से कुम्भा की यह श्रेष्ठ कलाकृति है।

यह स्तंभ 12 फुट ऊँची और 42 फुट चौङी चौकोर चबूतरी पर स्थित है। नीचे से यह 30 फुट चौङी है और इसकी लंबाई 122 फुट है। मध्य का भाग गोल न होकर चौकोर है। इसका निर्माण काल वि. सं.1496-97 से वि.सं.1516 के बीच माना जाता है। यद्यपि इसकी प्रतिष्ठा वि.सं. 1505 माघ सुदी 10 को हो गयी थी, लेकिन इस पर निर्माण कार्य आगे भी चलता रहा। इस स्तंभ में छः शिलालेख भी उत्कीर्ण हैं, जिनसे पता चलता है कि इस स्तंभ निर्माण का प्रमुख शिल्पी जइता था तथा उसके पुत्रों – नापा, पूँजा, पोमा आदि ने इस कार्य में सहयोग दिया था। इस स्तंभ के नीचे के प्रवेश करते ही जनार्दन की मूर्ति दिखाई देती है, जिसके चार हाथ हैं, लेकिन दो हाथ खंडित हो चुके हैं। ऊपर के दोनों हाथों में गदा और चक्र हैं। प्रथम मंजिल की पार्श्व की ताकों में क्रमशः अनन्त, रुद्र और ब्रह्मा की मूर्तियाँ हैं। अनंत, विष्णु का रूप है और यह मूर्ति पद्मासन में है। रुद्र और ब्रह्मा की मूर्तियाँ हैं। अनंत, विष्णु का रूप है और यह मूर्ति पद्मासन में हैं। रुद्र और ब्रह्मा के भी चार-चार हाथ बताये गये हैं। दूसरी मंजिल के मुख्य पार्श्वों में अर्द्धनारीश्वर और हरिहर, पितामह की प्रतिमाएँ हैं। हरिहर की प्रतिमा में आधे विष्णु और आधे शिव के आयुध हैं। इसके अलावा अग्नि, यम, भैरव, वरुण, वायु आदि की छोटी-छोटी प्रतिमाएँ भी हैं। दूसरी तरफ पार्श्व में अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा है जिसमें आधा अंग शिव का है और आधा पार्वती का है। इसके दोनों ओर किन्नरियों (स्री प्रतिमाएँ) की प्रतिमाएँ हैं और मध्य में वायु, इन्द्र आदि की प्रतिमाएँ हैं। इसी मंजिल के तीसरी ओर के पार्श्व में हरिहर पितामह की प्रतिमा है, जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव के सम्मिलित भावों को व्यक्त करती है। तीसरी मंजिल के मुख्य पार्श्वों में विरची, जयंत नारायण और चंद्रार्क्र पितामह की प्रतिमाएँ हैं। चंद्रार्क्र पितामह की प्रतिमा में शिव व पितामह के सम्मिलित भावों को व्यक्त किया गया है। इस प्रतिमा के छः हाथ हैं, जिसके ऊपर के दोनों हाथों में कमल, मध्य के दोनों हाथों में खड्ग और नीचे के दोनों हाथों में माला है। चौथी मंजिल तो मूर्तियों से लदी पङी है। इन प्रतिमाओं में त्रिखंडा त्रिपुरा, लक्ष्मी, नंदा, क्षेयंकरी, सर्वती, भ्रामणी, सर्वमंगला, रेवती, सिद्धि, लीला, सुलीला, लीलावती, उमा, पार्वती, गौरी, हिंगलाज, हिमवती आदि देवियों की, गंगा, यमुना, सरस्वती नदियों की तथा विश्वकर्मा व कार्तिकेय की प्रतिमाएँ हैं। पाँचवीं मंजिल में भी अनेक प्रतिमाएँ हैं, जिनमें लक्ष्मीनारायण, महाकाली की प्रतिमाएँ हैं। नीचे नर्तक मंडली को प्रदर्शित किया गया है। सातवीं मंजिल में विष्णु के विभिन्न अवतारों की प्रतिमाएँ हैं। वराह, नरसिंह, परशुराम आदि की प्रतिमाओं के साथ-साथ बुद्ध को भी हिन्दू देवता के रूप में प्रदर्शित किया गया है। आठवीं मंजिल में कोई प्रतिमा नहीं है, चारों ओर आठ स्तंभ बने हुए हैं, जिन पर अलग-अलग दृश्य अंकित हैं। नवमी मंजिल बिजली गिरने से नष्ट हो गयी थी जिसे वि.सं. 1911 में महाराणा स्वरूपसिंह ने पुनः बनवाया था। इस मंजिल में चार शिलालेख लगे हुए थे, लेकिन अब केवल दो ही उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार यह विजयस्तंभ नौमंजिला बना हुआ है।

विजयस्तंभ के शिल्पकारों ने सभी मूर्तियों के नीचे उनके नाम भी उत्कीर्ण कर दिये हैं, जिनकी मूर्ति हैं। इससे मूर्ति के संबंध में सरलता से जानकारी मिल जाती है। विजयस्तंभ की मूर्तियाँ जीवन के प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डालती हैं। अतः डॉ. रामप्रसाद व्यास ने ठीक ही लिखा है कि विजयस्तंभ केवल कुम्भा का विजय स्मारक ही नहीं वरन् हिन्दू प्रतिमाशास्र की एक अनुपम निधि है। मूर्तियों के माध्यम से भक्ति, शौर्य, श्रम और प्रणय की भावनाओं का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। डॉ.गोपीनाथ शर्मा के अनुसार जीवन के व्यावहारिक पक्ष को व्यक्त करने वाला यह स्तंभ एक लोक जीवन का रंगमंच है। संपूर्ण स्तंभ में मूर्तिकला और स्थापत्य कला का सुन्दर सामंजस्य दिखाई देता है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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