इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान में आधुनिक शिक्षा

राजस्थान में आधुनिक शिक्षा – राजस्थान में 1818 ई. से पूर्व शिक्षा-प्रसार निजी व्यक्तियों अथवा संस्थाओं के योगदान पर निर्भर करता था। उस युग में शिक्षा, नौकरी के लिये पूर्व-शर्त नहीं थी। इसलिए शिक्षा का प्रसार उसकी उपयोगिता पर निर्भर करता था। अतः 18 वीं शताब्दी तक राजस्थान में प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति प्रचलित रही, जिसका उद्देश्य ज्ञान, व्यक्तिगत कल्याण और जीविका निर्वाह के साधन उपलब्ध कराना था। शिक्षकों को अपने ढंग से शिक्षा देने की स्वतंत्रता थी। देशी शिक्षा प्रणाली, आधुनिक शिक्षा पद्धति से सर्वथा भिन्न थी। परंपरागत संस्कृति तथा वैदिक साहित्य की भाषा होने के कारण संस्कृत तथा राजकीय भाषा होने के कारण फारसी के अध्ययन-अध्यापन पर जोर दिया जाता था। लेन-देन, हिसाब-किताब और वाणिज्य में गणित की उपयोगिता के कारण गणित की शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया जाता था। स्कूल में छात्र के प्रवेश के लिये निश्चित समय का बंधन नहीं था। वर्ष पर्यन्त किसी भी दिन छात्र का प्रवेश हो जाता था। स्थानीय शिक्षण पद्धति में नियमित रूप से परीक्षाएँ भी नहीं होती थी और अंक देने अथवा डिग्री या सर्टिफिकेट देने की प्रथा भी नहीं थी। विद्यार्थी, शिक्षक की ख्याति का माध्यम होता था। उस समय यह परंपरागत शिक्षा प्रणाली, उस समय की आवश्यकताओं के लिये पर्याप्त थी। राजस्थान के शासकों से यह आशा नहीं की जाती थी कि वे शिक्षा के प्रसार में योगदान दें, क्योंकि वे स्वयं मध्यकालीन सामंती ढाँचे के अंग थे। फिर भी वे अपने राज्य के शिक्षकों और शिक्षण संस्थाओं को समय-समय पर आर्थिक अनुदान एवं भूमि अनुदान में देते रहते थे।

राजस्थान में आधुनिक शिक्षा प्रणाली आरंभ होने से पूर्व परंपरागत शिक्षा का काफी प्रसार था। जोधपुर राज्य में लगभग 94 शालाएँ थी, जिनमें 2426 छात्र पढते थे। जयपुर नगर में 110 शालाएँ थी, जिनमें 2598 छात्र पढते थे। इसी प्रकार अलवर में 101, सिरोही में 38, और अजमेर-मेरवाङा में 113 शालाएँ थी। कोटा, बूंदी और झालावाङ में अनेक निजी शालाएँ थी तथा प्रत्येक गाँव में एक शाला थी। भरतपुर राज्य में भी सैंकङों शालाएँ थी जिनमें हिन्दी और फारसी की प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी। राजस्थान के ए.जी.जी. ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि सभी राज्यों में असंख्य निजी शालाएँ हैं जिनमें साधारण पारिश्रमिक के बदले में हिन्दी, फारसी और गणित की शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि राजस्थानी समाज में शिक्षा का अभाव नहीं था। नियमित परीक्षाओं के अभाव में अध्यापक ही अपने शिष्यों की योग्यता को परखता था और शिष्य अपने गुरु की प्रतिष्ठा से ही जाने जाते थे। वे अध्यापक में अपने गुरुओं की परंपरा को ही प्रचलित रखते थे। परंपरागत शालाओं में शुल्क भी निश्चित नहीं था। श्री अर्सकीन ने लिखा है कि इन शालाओं में तीन वर्ष तक शिक्षा दी जाती थी और संपूर्ण शुल्क के रूप में प्रत्येक विद्यार्थी 6 मन बाजरी तथा आठ रुपये देता था।

राजस्थान में मुस्लिम शिक्षा भी प्रचलित हो चुकी थी। अजमेर मुस्लिम शिक्षा का केन्द्र था। अजमेर की दरगाह के खादिमों के बच्चों के लिये एक मकतब खोला गया था। वहाँ मौलवी अपने शिष्यों को कुरान पढाते थे। नवाब व अमीर इस प्रकार के मकतबों को आर्थिक सहायता देते थे। मकतब व मदरसों में कुरान के अलावा फारसी व अरबी भाषाओं का भी ज्ञान कराया जाता था। उस समय राजस्थान में उर्दू भाषा भी काफी प्रचलित हो चुकी थी। अतः मकतबों में उर्दू भी पढाई जाती थी। मुस्लिम मकतब लगभग मस्जिदों में ही चलते थे। मुस्लिम बच्चों को गणित की शिक्षा भी दी जाती ती।

राजस्थान में अँग्रेजी शिक्षा

राजपूत राज्यों पर ब्रिटिश संरक्षण स्थापित होने के बाद अँग्रेजों ने राजस्थान को सांस्कृतिक प्रभाव में लाने के प्रयास आरंभ कर दिये थे। ईसाई धर्म प्रचारक अँग्रेजी शिक्षा के माध्यम से ईसाई धर्म का प्रचार करना चाहते थे तथा पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञान की उत्कृष्टता भी प्रदर्शित करना चाहते थे। अब तक राजस्थानी शासकों के साथ पत्र-व्यवहार फारसी भाषा में होता था, जिसको समझने में अँग्रेजों को बङी परेशानी होती थी। इसके अलावा शासकों, सामंतों तथा राज्यों के पदाधिकारियों से अँग्रेजी भाषा के ज्ञान के अभाव में ब्रिटिश अधिकारियों से सीधी बात-चीत नहीं हो पाती थी और गुप्त मंत्रणा में दुभाषिये को साथ रखना पङता था। व्यापारी वर्ग को भी ब्रिटिश कंपनियों व एजेण्टों से संपर्क करते समय अँग्रेजी भाषा के जानकार लोगों का सहारा लेना पङता था। ऐसी परिस्थिति में राजस्थान में अँग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ करने की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।

राजस्थान में अँग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ अजमेर क्षेत्र में बैप्टिस्ट प्रचारक डॉ. विलियम केरी के पुत्र जेवज केरी ने किया। उसने रेजीडेण्ट ऑक्टरलोनी की सहायता से 1819 ई. के आरंभ में अजमेर और पुष्कर में तथा बाद में भिनाय और केकङी में स्कूल खोले। परंतु इन स्कूलों में बाईबिल पढाना तथा ईसाई धर्म की शिक्षा देना आरंभ किया तो अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया। फलस्वरूप 1831 ई. तक केरी द्वारा प्रारंभ किये गये सभी स्कूल बंद हो गये। गवर्नर-जनरल लार्ड बैंटिक के शासनकाल में 1835 ई. तक केरी द्वारा प्रारंभ किये गये सभी स्कूल बंद हो गये। गवर्नर-जनरल लार्ड बैंटिक के शासनकाल में 1835 ई. में जब अँग्रेजी भाषा को राजकीय भाषा के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गयी, तब स्थिति में परिवर्तन आया। मई, 1836 ई. में अजमेर में प्रथम सरकारी स्कूल स्थापित किया गया, जहाँ छात्रों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। किन्तु वित्तीय भार अधिक होने के कारण 1843 ई. में इस स्कूल को भी बंद करना पङा। राजस्थानी राज्यों में अँग्रेजी शिक्षा की शुरूआत का प्रथम प्रयास अलवर के महाराजा बन्नेसिंह ने किया। 1842 ई. में पंडित रूपनारायण की सहायता से अलवर में एक स्कूल स्थापित किया गया, जिसकी प्रगति संतोषजनक रही। 1842 ई. में भरतपुर में भी एक अँग्रेजी स्कूल खोला गया। जयपुर नरेश सवाई रामसिंह (1835-80ई.) की अँग्रेजी भाषा के अध्ययन में विशेष रुचि थी अतः 1844 ई. में जयपुर में महाराजा स्कूल की स्थापना की गयी और 1847 ई. में इस स्कूल में पहली बार आधुनिक शिक्षा प्रणाली आरंभ की गयी। 1873 ई. में इस स्कूल को इण्टरमीडिएट कॉलेज, 1888 ई. में डिग्री कॉलेज और 1900 ई. में स्नातकोत्तर महाविद्यालय बना दिया गया। उस समय तक राजस्थान में यही एकमात्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय था। महाराजा रामसिंह ने 1861 ई. में जयपुर में एक मेडिकल कॉलेज भी स्थापित किया, किन्तु प्रति छात्र वित्तीय भार अधिक होने, लाशों की चीर-फाङ के प्रति छात्रों की अरुचि, यूरोपीय चिकित्सा पद्धति के प्रति जनता में आशंकाएँ आदि कारणों से 1867 ई. में इस मेडिकल कॉलेज को बंद करना पङा।

1843 ई. में अजमेर में सरकारी स्कूल बंद हो जाने के बाद उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के तत्कालीन गवर्नर टॉमसन की रिपोर्ट के आधार पर 1848 ई. में अजमेर में पुनः सरकारी स्कूल खोला गया। इस स्कूल की संतोषजनक प्रगति को देखकर 1861 ई. में एण्ट्रेंस परीक्षा के लिये इसे कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध कर दिया गया। 1868 ई. में इसे इण्टरमीडिएट कॉलेज तथा 1869 ई. में इसे डिग्री कॉलेज बना दिया, जो राजस्थान का प्रथम डिग्री कॉलेज था। जोधपुर में अँग्रेजी शिक्षा की शुरुआत जन सहयोग से हुई थी। 1867 ई. में राव राजा मोतीसिंह ने कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों के सहयोग से जोधपुर में एक अँग्रेजी स्कूल स्थापित किया जिसे 1869 ई. में राज्य सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया और इसका नाम दरबार स्कूल रखा। 1876 ई. में इसे हाई स्कूल और 1893 ई. में इसे इण्टमीडिट कॉलेज बनाकर इसका नाम जसवंत कॉलेज रख दिया और इसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया गया। 1896 ई. में इसे डिग्री कॉलेज बना दिया। जोधपुर की कुछ जातियों ने अँग्रेजी शिक्षा में रुचि लेते हुए अपने जातीय स्कूल स्थापित किये। 1887 ई. में कायस्थों ने सर प्रताप हाई स्कूल, 1896 ई. में ओसवालों ने सरदार मिडिल स्कूल और 1898 ई. में क्षत्रिय मालियों ने श्री सुमेर सैनी मिडिल स्कूल स्थापित किये।

बीकानेर में यद्यपि 1772 ई. में पहला सरकारी स्कूल खोला गया लेकिन इसमें अँग्रेजी बाषा के शिक्षण की व्यवस्था नहीं थी। अतः 1885 ई. में एक नया स्कूल स्थापित कर उसमें अँग्रेजी भाषा के शिक्षण की व्यवस्था की गयी। इसे बाद में हाई स्कूल बनाकर पंजाब विश्वविद्यालय से और 1897 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया। उदयपुर में महाराणा शंभूसिंह (1861-74 ई.) की अल्पव्यस्कता के काल में रीजेन्सी कौन्सिल की अनुमति से 1863 ई. में शंभूरत्न पाठशाला खोली गयी, जिसमें 1865 ई. से अँग्रेजी शिक्षण की व्यवस्था की गयी। 1885 ई. में इसे हाईस्कूल बनाकर इसका नाम महाराणा हाई स्कूल रखा और इसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध कर दिया गया। इस प्रकार 19 वीं शताब्दी के अंत तक जैसलमेर को छोङकर राजस्थान के सभी राज्यों में अँग्रेजी शिक्षा प्रारंभ कर दी गयी। 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में जोधपुर में एक कॉलेज सहित 34, उदयपुर में एक हाई स्कूल सहित 42, और जयपुर में एक कॉलेज सहित 385 शिक्षण संस्थाएँ स्थापित हो चुकी थी। सभी राज्यों की राजधानियों में एक-एक स्कूल स्थापित हो चुका था।

20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में स्वतंत्रता की प्राप्ति तक राजस्थान में अँग्रेजी शिक्षा की निरंतर प्रगति होती रही। जन-सामान्य में अँग्रेजी शिक्षा चके प्रति बढते हुए आकर्षण को देखते हुए 1928 ई. में बीकानेर के सरकारी हाई स्कूल को डूँगर इण्टरमीडिएट कॉलेज बना दिया गया। 1935 ई. में इसे डिग्री कॉलेज और 1942 ई. में इसे पोस्ट-डिग्री कॉलेज बना दिया गया। उदयपुर में महाराणा हाई स्कूल को 1922 ई. में इण्टरमीडिएट कॉलेज और 1945 ई. में इसे पोस्ट-डिग्री कॉलेज बनाकर इसका नाम महाराणा भूपाल कॉलेज कर दिया गया। उदयपुर में गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं का भी आधुनिक शिक्षा के प्रसार में बङा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। 1930 ई. में महात्मा गाँधी ने देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ किया, तब उन्होंने सरकारी शिक्षण संस्थाओं को त्यागकर राष्ट्रीय विद्यापीठों की स्थापना का आह्वान किया। इसी संदर्भ में 1931 ई. में उदयपुर में विद्या भवन सोसाइटी स्थापित हुई तथा 1937 ई. में राजस्थान विद्यापीठ की स्थापना की गयी। स्वतंत्रता के समय तक राजस्थान में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर और अजमेर में पोस्ट-डिग्री कॉलेज स्थापित हो चुके थे।

मिशन स्कूल

राजस्थान में ईसाई धर्म के प्रचार के लिये मार्च, 1860 ई. में ब्यावर में यूनाइटेड प्रेस्बिटेरियन मिशन का प्रथम केन्द्र स्थापित हुआ। धर्म प्रचार के लिये यह मिशन शिक्षा को एक प्रमुख साधन समझता था। अतः अगस्त, 1860 ई. में ब्यावर में प्रथम मिशन स्कूल की स्थापना की गयी। वह स्कूल इतना लोकप्रिय हुआ कि सरकार ने ब्यावर के सरकारी स्कूल को बंद कर दिया। बाद में, 1862 ई. में जब कुछ हरिजन लङकों को स्कूल में प्रवेश दिया गया तब लगभग दो-तिहाई सवर्ण हिन्दुओं ने स्कूल छोङ दिया। मार्च, 1862 ई. में मिशन ने अजमेर में अपना दूसरा स्कूल खोला। स्थानीय सवर्ण हिन्दुओं के विरोध के बावजूद अजमेर के मिशन स्कूल ने संतोषजनक प्रगति की। तत्पश्चात् मिशन स्कूलों में निरंतर वृद्धि होती गयी। नसीराबाद (1862 ई.), टॉडगढ (1864 ई.), देवली (1871 ई.), जयपुर (1872 ई.), सांभर और पुलेरा (1876ई.), अलवर (1877 ई.), बाँदीकुई (1883 ई.), जोधपुर व उदयपुर (1885 ई.) तथा कोटा में 1889 ई. में मिशन स्कूल स्थापित हुए। 1864 ई. मिशन ने ब्यावर में अपना लिथो प्रेस स्थापित किया, जहाँ पाठ्य-पुस्तकें और धार्मिक साहित्य छापा जाता था।

राजकुमारों और सामंत-पुत्रों की शिक्षा

राजपूत शासकों और सामंतों की अँग्रेजी भाषा एवं शिक्षा के प्रति कोई रुचि नहीं थी। इसका मुख्य कारण यह था कि अँग्रेजी शिक्षा को आजीविका का साधन मात्र समझा जाता था। इसके अलावा सार्वजनिक स्कूलों में वे अपने पुत्रों को निम्नस्तर की जातियों के लङकों के साथ पढाना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे। किन्तु ब्रिटिश अधिकारी राजकुमारों और सामंत पुत्रों को अँग्रेजी शिक्षा में शिक्षित करना चाहते थे ताकि भावी शासक और सामंत भी अँग्रेजों से सीधी बातचीत करने में सक्षम हो सकें। इसलिए ब्रिटिश अधिकारियों को राजकुमारों और सामंत पुत्रों के लिये पृथक विशिष्ट स्कूलों की व्यवस्था करनी पङी।

सर्वप्रथम जयपुर राज्य में 1867 ई. में नोबिल्स स्कूल स्थापित किया गया जिसमें केवल राजपूत सामंतों के लङके ही शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। 1871 ई. में अलवर में भी सामंत-पुत्रों के लिये एक पृथक स्कूल स्थापित किया गया। 1875 ई. में जोधपुर में पाइलेट नोबिल्स स्कूल स्थापित किया गया तथा सामान्य राजपूतों के लिये 1896 ई. में एलिगिन राजपूत स्कूल स्थापित किया गया। 1893 ई. में बीकानेर में वाल्टर नोबिल्स स्कूल की स्थापना हुई। उदयपुर में 1877 ई. में शंभुरत्न पाठशाला में ही सामंत पुत्रों के लिये एक विशेष कक्षा शुरू की गयी, लेकिन सामंतों की अरुचि के कारण 1882 ई. में इसे बंद कर दिया गया। इस प्रकार विभिन्न राज्यों के शासकों ने अपने सामंतों में अँग्रेजी शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न करने का प्रयास किया। सार्वजनिक स्कूलों की अपेक्षा इन स्कूलों का पाठ्यक्रम भिन्न होता था और शिक्षकों को वेतन भी अच्छा मिलता था।

मेयो कॉलेज

ब्रिटिश अधिकारियों ने 1857 ई. के विप्लव के समय राजस्थानी शासकों की अँग्रेजी सत्ता के प्रति निष्ठा और भक्तिभावना का अनुभव कर लिया था। अब अँग्रेजों ने अपनी नवीन नीति द्वारा राजस्थान के भावी नरेशों और सामंतों को विद्याबुद्धि, तर्क, शैली, रहन-सहन तथा आचार-विचार में सर्वथा अँग्रेज बनाने का निश्चय किया। 1870 ई. में अजमेर में एक विशेष दरबार आयोजित किया गया जिसमें तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मेयो ने राजकुमारों व सामंत पुत्रों की शिक्षा के लिये अजमेर में एक विशिष्ट कॉलेज की स्थापना का प्रस्ताव रखा। राजस्थानी शासकों ने मेयो के प्रस्ताव का स्वागत किया और भावी कॉलेज के लिये चंदा भी दिया। अक्टूबर, 1875 ई. में मेयो कॉलेज स्थापित हो गया और राजस्थान के लगभग सभी राज्यों ने कॉलेज प्रांगण में अपने निजी छात्रावास बनवाये। मेयो कॉलेज में पढने वाले छात्रों में अँग्रेजी राज, ताज और पाश्चात्य मान्यताओं के प्रति अगाध भक्ति और श्रद्धा की भावना भरी जाने लगी। उन्हें देश की परंपरागत संस्कृति से सर्वथा भिन्न वातावरण में पोषित किया जाने लगा। लेकिन यहाँ का पाठ्यक्रम सामान्य स्कूलों के पाठ्यक्रम से कोई विशेष भिन्न नहीं था। अतः 19 वीं सदी के अंत तक पाठ्यक्रम में परिवर्तन करने का विचार चलता रहा। धीरे-धीरे मेयो कॉलेज की प्रतिष्ठा बढने लगी, लेकिन कुछ वर्षों बाद ही यह कॉलेज अनाचार और व्यभिचार का अड्डा बन गया, जिसे नियंत्रित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। फलस्वरूप मेयो कॉलेज की प्रतिष्ठा दिन-प्रतिदिन गिरती गयी।

स्री-शिक्षा

राजस्थान पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित होने से पूर्व लङकियों के लिये प्रारंभिक शिक्षा, लङकों से भिन्न नहीं थी। लेकिन उनकी उच्च शिक्षा घरों पर ही होती ती। लङकियों की शिक्षा का एक भाग मौखिक एवं अनौपचारिक शिक्षा का होता था, जिसके माध्यम से धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को सिखाया जाता था। गायन और नृत्य की शिक्षा अनिवार्य होती थी। इसी शिक्षा का दूसरा भाग ऐतिहासिक एवं साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन होता था। उच्च वर्गों में ऐसी अनेक स्रियों के उदाहरण मिलते हैं, जिनकी साहित्यिक उपलब्धियाँ उच्च कोटी की थी। स्रियों की घुङसवारी, तलवार चलाने तथा प्रशासन संचालित करने की क्षमता के भी कई उदाहरण मिलते हैं। अतः 19 वीं सदी के पूर्व तक स्री-शिक्षा का व्यापक प्रसार था। किन्तु अँग्रेजी शिक्षा में लङकियाँ अवश्य देरी से आयी थी। इसका प्रमुख कारण यह था कि अँग्रेजी शिक्षा अधिकतर नौकरी के लिये अथवा निजी व्यवसायों के लिये प्राप्त की जाती थी। अतः लङकों का ऐसी शिक्षा के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था।

स्री शिक्षा के संबंध में सर्वप्रथम 1866 ई. में जयपुर, उदयपुर और भरतपुर में सरकारी स्कूल खोले गये। जयपुर के महिला स्कूल के लिये 1867 ई. में कलकत्ता से श्रीमती ओगलटीन को बुलवाकर प्रधानाध्यापिका नियुक्त किया गया, जिसने स्कूल को तीन दर्जों में विभाजित किया। पहले दर्जे में केवल प्रारंभिक ज्ञान की जानकारी दी जाती थी तथा दूसरे व तीसरे दर्जे में भूगोल, गणित तथा सिलाई की जानकारी दी जाती थी। 1887 ई. में जोधपुर और 1888 ई. में भरतपुर में भी महिला स्कूल स्थापित हुए। 19 वीं शताब्दी के अंत तक जयपुर में 9, टोंक में 5, कोटा में 4, भरतपुर में 3 तथा बीकानेर, झालावाङ, उदयपुर, जोधपुर व करौली में एक-एक महिला स्कूल स्थापित हो चुके थे। किन्तु लङकियों की उच्च शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं किया गया। 20 वीं शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक में महात्मा गाँधी के आह्वान पर स्री-शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। गाँधीजी के राष्ट्रीय शिक्षा संबंधी विचारों से प्रभावित जयपुर प्रजामंडल के ख्याति प्राप्त नेता पंडित हीरालाल शास्री ने 1935 ई. में जीवन शिक्षा कुटीर के नाम से वनस्थली में महिला शिक्षण संस्था स्थापित की, जहाँ भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में लङकियों को शिक्षा दी जाती थी। इसी प्रकार अजमेर प्रजामंडल के ख्याति प्राप्त नेता श्री हरिभाऊ उपाध्याय ने अजमेर के निकट हटुंगी ग्राम में महिला शिक्षण संस्था स्थापित की। बाद में, वनस्थली में स्थापित, जीवन शिक्षा कुटीर का नाम वनस्थली विद्यापीठ कर दिया गया, जो आज विश्वविद्यालय मान्य संस्था के रूप में कार्यरत है और भारत में महिला शिक्षा का प्रमुख केन्द्र है।

राजस्थान के ब्यावर नगर में स्थापित मिशन के केन्द्र ने भी स्री-शिक्षा के लिये मिशन स्कूलों की स्थापना की। 1862 ई. में नसीराबाद में मिशन की ओर से प्रथम महिला स्कूल स्थापित हुआ, जिसमें प्रारंभिक लिखाई-पढाई के साथ-साथ सिलाई-बुनाई और कशीदे का काम सिखाया जाता था। 1863 ई. में अजमेर में भी एक महिला स्कूल स्थापित किया गया। यह स्कूल काफी लोकप्रिय रहा।

इस विवरण से स्पष्ट है कि राजस्थान में अँग्रेजी शिक्षा के प्रसार में शासकों, ब्रिटिश अधिकारियों, ईसाई मिशनरियों, विभिन्न जातिगत समुदायों और प्रतिष्ठित नागरिकों का सामूहिक योगदान था। व्यवसायी तथा नौकरी पेशा वर्ग ने अँग्रेजों की कृपा करने तथा नौकरी में पदोन्नति प्राप्त करने की आशा में अँग्रेजी शिक्षा का स्वागत किया। धीरे-धीरे अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति की समाज में भी प्रतिष्ठा बढने लगी। इसी अँग्रेजी शिक्षा से पाश्चात्य व्यक्तिवाद का बीजारोपण हुआ तथा राजस्थान की गौरवमयी परंपराएँ समाप्त होने लगी, लेकिन यही अँग्रेजी शिक्षा ब्रिटिश साम्राज्य की जङें खोदने में सहायक सिद्ध हुई।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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