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प्रथम विश्व युद्ध के कारण क्या थे

प्रथम विश्व युद्ध के कारण

प्रथम विश्व युद्ध के कारण (pratham vishv yuddh ke kaaran)

प्रथम विश्व युद्ध का प्रारंभ 1914 ई. में आस्ट्रिया के युवराज फर्डी नेण्ड की हत्या के कारण हुआ था। किन्तु यह कोई आकस्मिक बात नहीं थी। इसकी पृष्ठभूमि 1870 ई. से 1914 ई. तक यूरोपीय राज्यों के स्वार्थों, नीतियों तथा घटनाओं द्वारा तैयार हो चुकी थी। वास्तव में युद्ध अनिवार्य हो चुका था। 1891 ई. में बिस्मार्क ने कहा था – मैं विश्वयुद्ध को नहीं देखूंगा, परंतु तुम देखोगे और उसका प्रारंभ पूर्व से होगा।

प्रथम विश्व युद्ध के कारणों को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं-

  • आधारभूत कारण
  • अंतर्राष्ट्रीय संकट
  • तात्कालिक कारण

आधारभूत कारण

गुप्त संधियाँ तथा गुटबंदी

प्रथम विश्व युद्ध का प्रणुख कारण गुप्त संधियों से उत्पन्न गुटबंदी थी। इसका प्रांरभ प्रशा के हाथों फ्रांस की पराजय से हुआ। एकीकृत जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य प्रतिशोध की भावना ग्रस्त फ्रांस को मित्रहीन बनाये रखना था। इसके लिए उसने 1879 ई. में आस्ट्रिया के साथ गुप्त संधि द्वारा द्वि-गुट का निर्माण किया।

उसने 1882 ई. में इटली को भी सम्मिलित करते हुए त्रिमैत्री संधि द्वारा फ्रांस एवं रूस के विरुद्ध त्रिगुपत का निर्माण किया। अक्टूबर, 1883 ई. में बिस्मार्क ने जर्मनी, आस्ट्रिया तथा रूमानियाका त्रिपक्षीय गठजोङ स्थापित किया। बिस्मार्क ने आस्ट्रिया से छिपाते हुए 1887 ई. में रूस के सात पुनर्आश्वासन की संधि कर ली, ताकि रूस फ्रांस की ओर उन्मुख न हो सके।

1890 ई. में बिस्मार्क के त्याग पत्र के साथ ही जर्मनी विदेश नीति में आमूल चूल परिवर्तन होने लगा। जर्मनी द्वारा बाल्कन प्रदेश में आस्ट्रिया के समर्थन से अप्रसन्न रूस तथा फ्रांस के बीच 1894 ई. में मैत्री संधि हो गयी। अब तक एकाकी इंग्लैण्ड ने जर्मनी से मित्रता के प्रयास किए। लेकिन जर्मनी सम्राट कैसर विलियम द्वितीय की पूर्व की और विस्तार, नौसेना तथा उपनिवेशों के विस्तार की नीति के कारण ऐसा नहीं हो पाया। जर्मनी की महत्वाकांक्षा से आशंकित इंग्लैण्ड ने अपने पुराने शत्रु फ्रांस से मतभेद दूर करने आरंभ कर दिए।

1904 ई. में इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के बीच सौहार्द्र मैत्री हो गयी। 1907 ई. में इंग्लैण्ड तथा रूस में भी संधि हो गयी। इस प्रकार संपूर्ण यूरोप दो गुटों में विभाजित हो गया। इन गुप्त संधियों तथा गुटों ने परस्पर तनाव तथा स्पर्धा को बढावा दिया। गुट में सम्मिलित राज्य स्वयं का हित न होते हुए भी मित्र राज्य का सहयोग करने हेतु वचनबद्ध था।

शस्त्रीकरण तथा सैन्यवाद

19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में सैन्य वाद तथा शस्त्रीकरण की स्पर्धा आरंभ हुई। पूर्व में सैनिक शक्ति को आधार बनाकर जर्मनी ने आस्ट्रिया तथा फ्रांस को पराजित किया था। अब फ्रांस ने पराजय का प्रतिशोध लेने हेतु सैनिक शक्ति में वृद्धि करना आरंभ कर दिया। जापान से पराजित रूस ने भी सैनिक शक्ति बाढाना आरंभ किया। 1890 ई. के बाद जर्मनी ने नौ सेना का विस्तार तेजी से कर दिया।

इसे चुनौती मानकर इंग्लैण्ड ने भी नौ सेना वृद्धि आरंभ कर दी। यही नहीं सैन्यवाद तथा शस्त्रीकरण की इस स्पर्धा से शासन में सैनिक अधिकारियों का वर्चस्व बढने लगा।

उग्र राष्ट्रवाद

राष्ट्रीयता की भावना फ्रांसीसी क्रांति की देन थी। कालांतर में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। इसके परिणाम स्वरूप जर्मनी तथा इटली का एकीकरण हुआ। लेकिन 19 वीं सदी के अंत में राष्ट्रीयता की इस भावना ने उग्र रूप धारण कर लिया। प्रत्येक राष्ट्र अपने विस्तार, सम्मान तथा गौरव की वृद्धि तथा अन्य देशों को नष्ट करने को उद्यत हो उठे। फ्रांस आल्सेस तथा लोरेन पाना चाहता था, तो राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित पोल, चेक, सर्ब, बल्गर आदि जातियाँ आस्ट्रिया से स्वतंत्र होना चाहती थी। आस्ट्रिया द्वारा बोस्निया हर्जगोविना के अधिग्रहण से सर्बिया तथा रूस उसके कट्टर शत्रु हो गए। राष्ट्रवाद के कारण ही बाल्कन युद्ध लङे गए जिन्होंने यूरोप के वातावरण को विस्फोटक बना दिया।

आर्थिक एवं औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा

आर्थिक एवं औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा प्रथम विश्व युद्ध का प्रमुख कारण थी। 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान तथा अमेरिका का तेजी से औद्योगिक विकास आरंभ हुआ। इसके साथ ही कच्चे माल की आपूर्ति तथा उत्पादित माल के लिए नवीन बाजारों की आवश्यकता हुई। बढती जनसंख्या तथा सैनिक आवश्यकताओं ने भी उपनिवेश स्थापना हेतु प्रेरित किया। इस प्रतिस्पर्धा में सर्वाधिक क्षेत्र इंग्लैण्ड तथा फ्रांस को प्राप्त हुआ।

जर्मनी इसमें पीछे रह गया। 1890 ई. के बाद उसने उपनिवेश प्राप्ति के प्रयास आरंभ किए, जिससे इंग्लैण्ड तथा फ्रांस उसके शत्रु हो गए। रूस तथा आस्ट्रिया ने बाल्कन प्रदेश में प्रभाव बढाना आरंभ कर दिया। इटली भी उपनिवेशों के लिए लालायित था। उपनिवेश प्राप्ति की इस स्पर्धा ने परस्पर घृणा तथा अविश्वास को बढाया।

समाचार पत्र तथा युद्धोन्मादी प्रचार

यूरोपीय देशों के बीच द्वेष, शत्रुता तथा युद्धोन्माद को बढाने में तत्कालीन समाचार पत्रों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इंग्लैण्ड के समाचार पत्र जर्मन सम्राट की नीतियों की आलोचना कर रहे थे। तो दूसरी और जर्मन समाचार पत्र फ्रांस तथा इंग्लैण्ड के प्रति कटुतापूर्ण लेख प्रकाशित कर रहे थे।

आस्ट्रिया के युवराज की हत्या के बाद आस्ट्रिया तथा सर्बिया के समाचार पत्रों ने एक दूसरे के विरुद्ध भङकाने वाले लेख प्रकाशित किए। इस काल में ऐसे दार्शनिक तथा विचारक हुए जिन्होंने युद्ध को राष्ट्र की उन्नति के लिए अपरिहार्य बताया। इनमें दार्शनिक हीगल तथा माल्थस प्रमुख है। विश्व पर वर्चस्व स्थापना हेतु लालायित राष्ट्रों में इनके विचार अत्यधिक लोकप्रिय होने लगे।

अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अभाव

इस समय किसी ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की आवश्यकता थी, जो यूरोपीय राज्यों के आपसी विवादों का हल निकालकर उन्हें युद्ध से विमुख कर देती। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी कोई संस्था नहीं होना भी इस विश्व युद्ध का एक कारण था।

कैसर विलियम द्वितीय की महत्वाकांक्षा

कैसर विलियम द्वितीय जर्मनी को विश्व शक्ति बनाना चाहता था। सैनिक शक्ति में वृद्धि की नीति के फलस्वरूप जर्मनी सेना की संख्या 18 लाख हो चुकी थी। उसने उपनिवेश प्राप्त करने हेतु नौ सेना का विस्तार करना आरंभ किया। इसके फलस्वरूप इंग्लैण्ड, जर्मन का विरोधी हो गया। विलियम द्वितीय ने साम्राज्य विस्तार हेतु पूर्व की ओर प्रसार की नीति घोषित की। उसने 1902 ई. में तुर्की से समझौता करके बर्लिन बगदाद रेल मार्ग के निर्माण का अधिकार प्राप्त कर लिया। जर्मनी की बढती शक्ति तथा महत्वाकांक्षा ने फ्रांस, इंग्लैण्ड तथा रूस को अपने आपसी मतभेद भुलाकर एकजुट होने के लिए बाध्य कर दिया।

मिस्र इंग्लैण्ड का प्रभाव क्षेत्र बन चुका था। फारस तथा अफगानिस्तान में रूस तथा इंग्लैण्ड के हिते निहित थे। यही नहीं बर्लिन बगदाद रेलवे योजना इंग्लैण्ड के भारतीय उपनिवेश हेतु खतरा थी।

अन्तर्राष्ट्रीय संकट

प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व के डेढ दशक में घटी कुछ घटनाओं ने यूरोप के विभिन्न राष्ट्रों के बीच परस्पर संबंधों में कटुता एवं तनाव में वृद्धि की। इन घटनाओं से जुङे इन राज्यों के निहित स्वार्थों ने उन्हें दो सशस्त्र गुटों में विभाजित कर दिया।

रूस जापान संघर्ष (1904-05ई.) –

रूस तथा जापान के बीच संघर्ष में जापान जैसे छोटे से एशियाई देश ने यूरोप की महाशक्ति रूस को बुरी तरह पराजित कर दिया। इस पराजय ने रूसी साम्राज्य की सुदूर पूर्व में विस्तारवादी महत्वाकांक्षा को रोक दिया। विवश रूस ने अब बाल्कन क्षेत्र में रुचि लेना आरंभ कर दिया। यहाँ उसके हस्तक्षेप ने जर्मनी को आस्ट्रिया तथा टर्की का पक्ष लेने हेतु बाध्य कर दिया। यही नहीं रूस की पराजय का प्रभाव फ्रांस की स्थिति पर भी पङा। अब जर्मनी ने मोरक्को का पक्ष लेकर फ्रांस को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया।

मोरक्को संकट –

अफ्रीका के उत्तर में स्थित मोरक्को, अल्जीरिया तथा टयूनिशिया फ्रांस के नियंत्रण में थे। 1905 ई. में जर्मनी के सम्राट ने मोरक्को की यात्रा की तथा मोरक्को की अखंडता तथा स्वतंत्रता की घोषणा की। जर्मनी सम्राट तथा मोरक्को के सुल्तान ने मोरक्को समस्या पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की मांग की। फ्रांस ने इसका विरोध किया। अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट के प्रयासों से 1906 ई. में अल्जेसिराज में सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में इंग्लैण्ड, रूस, इटली तथा स्पेन ने फ्रांस का पक्ष लिया। जर्मनी का समर्थन केवल आस्ट्रिया ने किया। इस संकट ने इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा रूस की मैत्री को और भी अधिक सुदृढता प्रदान की।

बोसनिया तथा हर्जगोविना विवाद –

इन दोनों प्रदेशों में सर्व जाति के लोग रहते थे। 1878 ई. की बर्लिन कॉंग्रेस में इन प्रदेशों पर शासन करने का अधिकार आस्ट्रिया को दिया गया था। इन दोनों प्रदेशों की जनता सर्बिया में विलय चाहती थी। 6 अक्टूबर, 1908 ई. को आस्ट्रिया ने इन प्रदेशों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। फ्रांस, इंग्लैण्ड, इटली, सर्बिया तथा रूस ने आस्ट्रिया के इस कदम की कङी आलोचना की। इस प्रश्न पर सर्बिया तथा रूस द्वारा आस्ट्रिया पर आक्रमण की आशंका उत्पन्न हो गयी। जर्मनी ने आस्ट्रिया का पक्ष लिया। यह संकट तो टल गया लेकिन आस्ट्रिया के इस कार्य से सर्बिया में आस्ट्रिया विरोधी भावनाऐं बढने लगी।

अगाडीर संकट –

1911 ई. में फ्रांस ने मोरक्को में शांति स्थापना हेतु अपनी सेनाएं भेजी। जर्मनी ने इसका विरोध करते हुए मोरक्को में जर्मनी हितों की रक्षा हेतु अपने युद्धपोत पैंथर को मोरक्को के बंदरगाह अगाडीर में भेज दिया। इस घटना ने जर्मनी तथा फ्रांस के बीच युद्ध का खतरा स्थापित कर दिया। लेकिन इंग्लैण्ड द्वारा दृढता से फ्रांस का समर्थन करने पर जर्मनी को झुकना पङा। इस संकट ने इंग्लैण्ड तथा फ्रांस की मैत्री को अधिक मजबूती प्रदान करने का कार्य किया।

बाल्कन युद्ध (1912-13 ई.) –

बाल्कन युद्धों ने यूरोपीय राज्यों के मध्य कटुता बढाने का कार्य किया। युद्ध के बाद लंदन सम्मेलन भी बाल्कन राज्यों के विवाद हल करने में असफल रहा। इस सम्मेलन द्वारा आस्ट्रिया के जोर डालने पर अल्बानिया की स्थापना की गयी। इससे सर्बिया की समुद्र तट प्राप्ति की लालसा को धक्का लगा। अब सर्बिया में आस्ट्रिया का विरोध और भी बढ गया। रूस द्वारा सर्बिया की मांग का समर्थन किए जाने से दोनों के मध्य मैत्री संबंध को दृढता प्राप्त हुई।

इस सम्मेलन के निर्णयों से सबसे अधिक हानि बल्गारिया को हुई। सम्मेलन के निर्णयों से अप्रसन्न बल्गारिया विवश होकर जर्मनी की ओर झुकने लगा। लंदन सम्मेलन के निर्णयों से निराश टर्की अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु जर्मनी की शरण में चला गया। वास्तव में बाल्कन युद्ध के परिणामों ने शस्त्रीकरण तथा गुटबंदी को प्रोत्साहन दिया। ग्रांट एवं टेम्परले के अनुसार, – प्रथम विश्व युद्ध के लिए कोई घटना इतनी अधिक उत्तरदायी नहीं जितनी कि बाल्कन युद्ध।

तात्कालिक कारण

आस्ट्रिया के युवराज फर्डीनेण्ड की हत्या – 28 जून, 1914 ई. को बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में आस्ट्रिया के युवराज फर्डीनेण्ड तथा उनकी पत्नी की दो सर्ब युवकों ने सरे आम सङक पर हत्या कर दी। दोनों हत्यारे सर्व स्लाव आंदोलन से संबंधित थे। इस हत्याकांड की आस्ट्रिया में कङी प्रतिक्रिया हुई। हत्यारे सर्ब होने के कारण आस्ट्रिया ने सर्बिया को कठोर दंड देने का निश्चय किया। जर्मनी का उसे समर्थन प्राप्त था।

23 जुलाई, 1914 ई. को आस्ट्रिया ने कठोर शर्तों सहित सर्बिया को अल्टीमेटम दिया। आस्ट्रिया ने इसे 48 घंटे में स्वीकार न करने पर परिणाम भुगतने की चेतावनी भी दी। यद्यपि कोई भी स्वतंत्र राष्ट्र इसे स्वीकार नहीं कर सकता था। फिर भी निर्धारित अवधि में सर्बिया ने अधिकांश मांगे स्वीकार कर ली। लेकिन आस्ट्रिया युद्ध करने पर उतारू था।

28 जुलाई, 1914 ई.को आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 30 जुलाई को रूस ने सर्बिया के पक्ष में लामबंदी की घोषणा कर दी। 1 अगस्त को जर्मन ने रूस के विरुद्ध तथा 3 अगस्त को फ्रांस के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया। जर्मन सेनाओं के बेल्जियम में घुसते ही इंग्लैण्ड ने भी 4 अगस्त को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया। 23 अगस्त को जापान तथा 29 अक्टूबर को टर्की भी युद्ध में सम्मिलित हो गया।

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