साँगा और दिल्ली सल्तनत
साँगा और दिल्ली सल्तनत – सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र इब्राहीम लोदी 22 नवम्बर, 1517 ई. को दिल्ली के तख्त पर आसीन हुआ। सिकंदर लोदी के अंतिम दिनों में साँगा ने दिल्ली सल्तनत को निर्बल देखकर दिल्ली सल्तनत के अधीन वाले मेवाङ की सीमा से लगे कुछ भागों को अधिकृत कर अपने राज्य में मिला लिया था। सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद इब्राहीम लोदी और उसके छोटे भाई जलालखाँ के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया।
दिल्ली सल्तनत में व्याप्त इस अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए साँगा ने पूर्वी राजस्थान के उन क्षेत्रों को, जो दिल्ली सल्तनत के अधीन थे, जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इससे इब्राहीम लोदी ने क्रुद्ध होकर साँगा को सबक सिखाने के लिये मेवाङ पर आक्रमण करने का निश्चय किया। दोनों के बीच संघर्ष का एक कारण यह भी था कि सुल्तान इब्राहीम लोदी मालवा पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था और इसके लिये साँगा को पराजित करना आवश्यक था, क्योंकि साँगा भी मालवा को अपने अधीन रखने हेतु प्रयत्नशील था।
1518 ई. में इब्राहीम लोदी ने ससैन्य मेवाङ पर चढाई कर दी। बून्दी के निकट खातोली नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ जिसमें सुल्तान इब्राहीम लोदी की निर्णायक पराजय हुई तथा एक लोदी राजकुमार बंदी बना लिया गया। इस युद्ध में साँगा भी बुरी तरह से जख्मी हुआ, उसका एक बाजू कट गया तथा एक तीर का आघात लगने से वह लंगङा हो गया। कर्नल टॉड, डॉ.ओझा और अमरकाव्य वंशावली आदि ग्रन्थों में साँगा की इस निर्णायक विजय का उल्लेख किया गया है।
बाबरनामा और मिराते अहमदी भी इब्राहीम की पराजय और साँगा की विजय की पुष्टि करते हैं। किन्तु डॉ.एन.बी.राय ने तो यहाँ तक कह दिया है कि दोनों के बीच युद्ध हुआ ही नहीं था क्योंकि दोनों शासकों के पास युद्ध करने का समय ही नहीं था। परंतु इन कथनों में कोई सत्यता नहीं है। खातोली का युद्ध लङा गया था और इसमें साँगा की विजय हुई थी, इसकी पुष्टि तो अनेक साक्ष्यों से होती है। इसलिये संदेह करने का कोई ठोस कारण नहीं है।
खातोली के युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद साँगा ने अपना अभियान जारी रखते हुये टोडाभीम के निकट अपना पङाव डाला। अहमद यादगार के अनुसार इब्राहीम लोजी ने, साँगा से अपनी पराजय का बदला लेने के लिये मियाँ मक्खन के नेतृत्व में एक शाही सेना साँगा के विरुद्ध भेज दी।
सुल्तान को शाही सेना के दो सेनानायकों – मियाँ हुसैन फरमूली तथा मियाँ मासूफ फरमूली पर कुछ संदेह हो गया था, अतः सुल्तान ने मियाँ मक्खन को एक गुप्त संदेश भिजवाया कि इन दोनों सेनानायकों को बंदी बना ले। लेकिन इन दोनों सेनानायकों को गुप्त संदेश की जानकारी मिल गयी और वे दोनों शाही शिविर छोङकर राणा साँगा की शरण में चले गये। इससे साँगा की शक्ति में वृद्धि हो गयी। उसके बाद धौलपुर के निकट बारी नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भारी संग्राम हुआ जिसमें शाही सेना बुरी तरह पराजित होकर भाग खङी हुी।
यद्यपि कुछ वृत्तान्तों में साँगा की पराजय का उल्लेख किया गया है। किन्तु स्वयं बाबर ने अपनी आत्मकथा बाबरनामा में धौलपुर के युद्ध में राजपूतों की विजय का उल्लेख किया है। फारसी वृत्तान्तों में फरमूली सेनानायकों द्वारा सुल्तान से क्षमा याचना करना तथा साँगा पर आक्रमण कर उसे खदेङने का जो विवरण दिया है, उसकी पुष्टि अन्य साक्ष्यों से न होने से स्वीकार नहीं किया जा सकता। बाबर ने लिखा है कि राणा साँगा ने चंदेरी के आस-पास का क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से छीनकर मेदिनीराय को सौंप दिया था। इससे महाराणा की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
राणा साँगा का चरमोत्कर्ष
1519 ई. से 1526ई. का काल राणा साँगा की शक्ति का चरमोत्कर्ष काल माना जा सकता है। 1519 ई. में साँगा गागरोण के युद्ध में विजयी होकर मालवा के सुल्तान महमूद खलजी द्वितीय को बंदी बनाकर चित्तौङ ले आया था। इसके बाद तो निरंतर उसकी शक्ति बढती गयी। 1526 ई. में साँगा द्वारा दिल्ली सुल्तान इब्राहीम लोदी को पराजित करना उसकी शक्ति का चरमोत्कर्ष था।
अब तक अनेक हिन्दू राजाओं और सरदारों ने उसके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया था। कर्नल टॉड. ने लिखा है कि 7 उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव और 104 सरदार उसकी सेवा में उपस्थित थे। वस्तुतः साँगा ने अपने पङौसी राजपूत शासकों, मालवा और गुजरात के सुल्तानों तथा दिल्ली के इब्राहीम लोदी को पराजित करके अपने आपको राजपूत शासकों में श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया था। अनेक हिन्दू शासक और सामान्य जनता उसे हिन्दू धर्म और संस्कृति का रक्षक समझने लगी थी। राजपूत शासकों और सरदारों को तो यह विश्वास होने लग गया था कि राणा उत्तर भारत में हिन्दू साम्राज्य की अवश्य स्थापना कर लेगा। इस प्रकार 1526 ई. तक साँगा की शक्ति और प्रतिष्ठा अपने चरम शिखर पर थी।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास