अकबर एवं राजपूत राज्य
अकबर एवं राजपूत – जनवरी, 1556 ई. में हुमायूँ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अकबर मुगल साम्राज्य का स्वामी बना। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था। वह न केवल उत्तरी भारत में अपितु समूचे भारत को अपने साम्राज्य के अंतर्गत लाने की आकांक्षा रखता था। उसने इस बात को भी समझ लिया था कि राजपूतों की सहायता के बिना हिन्दुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य स्थायी रूप से स्थापित नहीं किया जा सकता।
राजपूतों के सक्रिय सहयोग के बिना किसी प्रकार की सामाजिक अथवा राजनैतिक एकता भी संभव नहीं हो सकती थी। इसलिए उसने राजपूतों के साथ मैत्री संबंध स्थापित किये तथा उनके सहयोग को प्राप्त करने की नीति का सूत्रपात किया।
उसे अपने शासनकाल में तीन प्रकार के राजपूत शासकों का सामना करना पङा – 1,)ऐसे राजपूत शासक जिन्होंने बिना किसी प्रकार प्रतिरोध के अधीनता स्वीकार कर ली और अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित कर शाही व्यवस्था में घुल-मिल गये।इनमें आमेर, बीकानेर, जैसलमेर आदि शासकों का नाम लिया जा सकता है।
2.) ऐसे राजपूत शासक जिन्होंने डटकर युद्ध किया लेकिन परास्त होकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और मुगल सम्राट को अपनी सेवाएँ देते रहे, इसमें रणथंभौर के राव सुर्जन हाङा का नाम लिया जा सकता है।
3.) ऐसे राजपूत शासक जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता बेचने की अपेक्षा अकबर से युद्ध करना ही उचित समझा चाहे उन्हें असीम कष्ट ही क्यों न उठाने पङे और जिन्हें पराजित करने के बाद भी अकबर अधीनता में न ला सका। इसमें मारवाङ के राव चंद्रसेन और मेवाङ के राणा प्रताप के नाम लिये जा सकते हैं।
अधिकांश राजपूत राज्यों ने केन्द्रीय सत्ता के साथ सहयोग की नीति का पालन किया और केवल कुछ ने, विशेषकर मेवाङ के राणाओं ने उसकी केन्द्रीय सत्ता का प्रतिरोध किया। पहले हम राजपूत मुगल सहयोग का उल्लेख इस पोस्ट में करेंगे-
राजपूत-मुगल सहयोग के कारण
भारत की राजनैतिक और सामाजिक एकता के लिये राजपूताना को नियंत्रण में लाना दिल्ली के शासकों के लिये अनिवार्य था। सामरिक दृष्टि से भी इस प्रदेश का अत्यधिक महत्त्व था, क्योंकि मालवा और गुजरात की ओर जाने वाला मार्ग इसी क्षेत्र में होकर गुजरता था। राजपूताने पर प्रभुत्व स्थापित किये बिना अकबर की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं हो सकती थी। इसलिए राजपूत शासकों का सहयोग अपेक्षित था। जिन कारणों ने अकबर को राजपूतों से सहयोग प्राप्त करने हेतु प्रेरित किया, वे निम्नलिखित हैं-
अकबर द्वारा राजपूतों का सहयोग प्राप्त करने का मुख्य कारण अपनी राजनीतिक आकांक्षा – संपूर्ण भारत को अपनी सर्वोच्चता के अन्तर्गत लाना था। राजपूतों से संघर्ष करके अब तक कोई भी मुस्लिम शासक स्थायी सफलता प्राप्त नहीं कर पाया था। इसकी पूर्ति केवल राजपूतों के सहयोग के माध्यम से ही की जा सकती थी।
सौभाग्यवश परिस्थितियाँ अनुकूल थी। इस समय नेताविहीन राजपूत शासकों में संगठन का अभाव था। उनमें एक दूसरे के प्रति प्रतिस्पर्द्धा व शत्रुता की भावना बहुत तीव्र होती जा रही थी। राजपूत शासकों की इस आपसी फूट का लाभ उठाकर उन्हें अपनी सर्वोच्चता के अन्तर्गत लाना आसान था।
राजपूत एक वीर, विश्वासपात्र और स्वामिभक्त जाति थी। एक बार जिसका साथ देने का वचन दिया, उसे पूरा करने के लिये अपना सर्वस्व भी न्यौछावर करने में वे पीछे नहीं हटते थे। अकबर को अपने साम्राज्य विस्तार के लिये ऐसे ही व्यक्तियों की सेवाओं की आवश्यकता थी, जो सोने-चाँदी के टुकङों से खरीदे जा सकें और जो अपमान की अपेक्षा मौत को गले लगाना पसंद करते थे। राजपूत जाति इन गुणों से युक्त थी।
मुगल शासक भारतीयों के लिये विदेशी थे। वे अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिये विदेशी सैनिकों का ही विश्वास करते थे। उन्हीं की सहायता से वे अपने साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा रखते थे। परंतु यह संभव नहीं था, कि निरंतर युद्धों के लिये मुगलों को नियमित रूप से विदेशी रंगरूट मिलते ही रहें। इन विदेशी सैनिकों को भारत की आम जनता से कोई लगाव अथवा प्रेम नहीं था। इसलिए भारतीयों के साथ उनका व्यवहार भी उद्दंड तथा अनुदारतापूर्ण था। वे अपने आपको साम्राज्य निर्माता समझते थे और कभी-कभी तो अपने सम्राट के विरुद्ध भी विद्रोह का झंडा खङा कर देते थे। अकबर का विश्वास था कि राजपूतों के सक्रिय सहयोग मिल जाने से आम जनता से मुगलों को विदेशी मानने की भावना भी समाप्त हो जायेगी और मुगल साम्राज्य की जङें भी सुदृढ हो जायेंगी।
बाबर अपने अमीरों तथा संबंधियों को अनुशासन एवं नियंत्रण में बनाये रखने में सफल रहा था। परंतु हुमायूँ के शासनकाल में वे उच्छृंखल हो गये और सम्राट की अवज्ञा तथा उपेक्षा करने लगे। अकबर के शासन के प्रारंभिक वर्षों में भी वे अवज्ञा प्रदर्शित करते रहे। अधमखाँ, पीर मोहम्मद, बैरामखाँ आदि सभी अमीरों ने अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये सम्राट और साम्राज्य के हितों को भुला दिया था।
अतः अकबर के सामने अपने उद्दण्ड मुगल अमीरों को नियंत्रण में बनाये रखने की गंभीर समस्या उपस्थित थी। उसका विश्वास था कि यदि शक्तिशाली राजपूतों का सहयोग मिल जाय तो इन मुगल अमीरों तथा राजपूत सरदारों के बीच शक्ति संतुलन कायम हो जाएगा और मुगल अमीर सम्राट के विरुद्ध विद्रोह करने का साहस नहीं जुटा पायेंगे। इससे मुगल सम्राट की सर्वोच्च स्थिति हमेशा के लिये सुरक्षित हो जाएगी।
अकबर का जन्म राणा बेरीसाल (अमरकोट का शासक)के राजमहल में हुआ था अर्थात् एक राजपूत घर में हुआ था। अतः उसके ह्रदय में प्रारंभ से ही राजपूत जाति के प्रति स्नेह एवं सम्मान की भावना विद्यमान थी। अकबर की माँ हमीदाबानू प्रसिद्ध शिया फकीर मीर अली अकबर जानी की पुत्री थी जो उदार और सहनशील स्वभाव की स्त्री थी।
अपनी माँ के प्रभाव के कारण अकबर में भी उदारता और सहनशीलता का समावेश हो चुका था। इसलिए उसने राजपूतों के साथ उदारता का व्यवहार किया और उन्हें अपना सहयोगी बनाने का निश्चय किया।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि अकबर की विचारधारा पर उसके शिया शिक्षक अब्दुल लतीफ और संरक्षक बैरामखाँ तथा अन्य साधु संन्यासियों का भी गहरा प्रभाव पङा। उनकी उदारता एवं व्यापक दृष्टिकोण से प्रभावित होकर अकबर ने न केवल राजनैतिक क्षेत्र में अपितु सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का निश्चय किया और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये राजपूतों का सहयोग आवश्यक था।
अतः अवसर मिलते ही अकबर ने राजपूतों के प्रति एक नई नीति का सूत्रपात किया। अपने साम्राज्य विस्तार तथा उस साम्राज्य के अन्तर्गत राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के उद्देश्य से उसने राजपूतों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये। सैन्य बल के स्थान पर वह प्रेम, सहानुभूति और उदारता के द्वारा उनके ह्रदय जीतना चाहता था।
अतः अकबर ने उन्हें अपने दरबार में सम्मानपूर्ण स्थान दिया, उन्हें ऊँचे पदों पर नियुक्त किया, उन्हें शाही सेना का संचालन करने का अवसर दिया, उन्हें धार्मिक उपासना तथा आचरण की स्वतंत्रता प्रदान की और उन्हें उनकी जीवन, धन संपत्ति तथा मान मर्यादा की रक्षा का आश्वासन दिया। उनके साथ वैवाहिक संबंध कायम किये।
फिर भी यह ध्यान रखने योग्य है कि अकबर ने अपनी सर्वोच्चता के बारे में कभी भी किसी के साथ साझेदारी नहीं की। वह अपनी सर्वोच्चता के अंतर्गत ही उपर्युक्त सुविधाएँ देने को तैयार था और जिस किसी ने भी उसकी सर्वोच्चता को मानने से इन्कार किया, उसका दमन करने में उसने कोई कसर बाकी नहीं छोङी।
अकबर की इस नवीन नीति की शुरूआत 1562 ई. से होती है। जनवरी, 1562 ई. में वह ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की मजार के दर्शन करने अजमेर आया था। इस अवसर पर आमेर का कछवाहा शासक भारमल अपनी आंतरिक तथा ब्राह्य परिस्थितियों से परेशान होकर अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ और उसकी अधीनता स्वीकार करने के साथ ही अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करने का प्रस्ताव भी रखा जिसे अकबर ने स्वीकार कर लिया।
इस वैवाहिक संबंध से आमेर के कछवाहा राजघराने का भाग्य चमक उठा और कुछ ही वर्षों में कछवाहा न केवल राजस्थान के अपितु मुगल साम्राज्य के अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशाली व्यक्ति बन गये। भारमल तो अकबर का इतना अधिक विश्वासपात्र हो गया था कि जब कभी अकबर को लंबे समय के लिये राजधानी के बाहर जाना पङता तो वह राजधानी एवं राजमलों की सुरक्षा का दायित्व भारमल को ही सौंप कर जाता था, जिसे उसने भी सफलतापूर्वक निभाया।
डॉ. रघुवीरसिंह ने लिखा है कि भारमल की पुत्री के साथ स्वयं विवाह कर अकबर ने राजपूताना के राजघरानों के साथ अत्यधिक निकट संबंध स्थापित करने की एक नई नीति आरंभ की। इस विवाह के बाद उसने जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर के राजघरानों के साथ भी अपने परिवार के वैवाहिक संबंध स्थापित किये। इन वैवाहिक संबंधों की इतिहासकारों ने काफी प्रशंसा भी की है तो कुछ ने कटु आलोचना भी की। इसमें कोई संदेह नहीं कि इसके परिणामस्वरूप अकबर की धार्मिक नीति में सहिष्णुता का उत्तरोत्तर विकास होता गया और सामाजिक क्षेत्र में हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य सांस्कृतिक समन्वय भी बढा।
वैवाहिक संबंधों के अलावा राजपूतों का सहयोग बनाये रखने के लिये अकबर द्वारा उठाया गया कदम था – अपनी सर्वोच्चता को स्वीकार करने वाले राजपूत शासकों के भाई-भतीजों तथा निकट संबंधियों को शाही सेवामें ऊँचे पदों पर नियुक्त करना। इस नीति के द्वारा राजपूताना के राजघराने मुगल साम्राज् के सुदृढ आधार स्तंभ बन गये और उन्होंने मुगल साम्राज्य के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योग दिया।
परंतु राजपूत शासकों के लिये इसन नीति के कुछ परिणाम घातक सिद्ध हुए। ज्यों-ज्यों राजपूत राज्यों पर मुगल प्रभाव बढता गया त्यों-त्यों उनकी स्वतंत्रता कम होती गई। शाही सेवा के सिलसिले में उन्हें लंबे समय के लिये अपने राज्यों से दूर रहना पङता था और अपनी अनुपस्थिति में अपने राज्यों की शासन व्यवस्था अपने मंत्रियों तथा अधिकारियों के हाथों में सौंपनी पङती थी।
इनमें अधिकांश व्यक्ति स्वेच्छाचारिता से शासन चलाने लगे जिससे राज्यों की शासन व्यवस्था भ्रष्ट एवं अत्याचारी बनती गयी। इसके अलावा उनकी अनुपस्थिति में मुगल अधिकारियों को उनके आंतरिक शासन में हस्तक्षेप करने का अवसर भी मिलने लगा। अकबर ने राजपूतों के साथ अपना राजकीय ढाँचा कुछ इस प्रकार बिठा लिया था कि राजा के मरने के बाद नये राजा के बनने की साही बागडोर अकबर के हाथ में रहती थी।
अकबर की स्वीकृति से ही मृत राजा का पुत्र अधिकृत राजा बन सकता था। अकबर चाहता तो उत्तराधिकारी को बदला भी जा सकता था। वह चाहता तो नये उत्तराधिकारी को पूरा राज्य न देकर आधा या उससे भी कम राज्य दे सकता था। इसका एक परिणाम यह निकला कि राजपूत शासकों के भावी उत्तराधिकारी अपने घरेलू झगङों को अकबर के सामने ले जाने लगे। इसके अलावा, मुगल दरबार में महत्व एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये अब राजपूत नरेशों में आपसी प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गयी जिसका मुगल शासकों ने पूरा-पूरा लाभ उठाया।
कर्नल टॉड ने अकबर की नीति की समीक्षा करते हुये लिखा है, कि उसने राजपूतों की स्वतंत्रता नष्ट कर दी………..उसने उन लोगों को जंजीरों से जकङा किन्तु उनके ऊपर सोने का मुलम्मा चढा दिया। इन जंजीरों की राजा को आदत पङ गई, क्योंकि बादशाह (अकबर)ने अपनी शक्ति का उपयोग ऐसे ढंग से किया कि राजपूतों का जातीय अभियान बना रहा और कभी-कभी उनके अकीर्तिकार राग-द्वेष भी चलते रहे, परंतु उनकी विजयों के पूर्ण रूप से सुदृढ होने से पूर्व ही उसकी तलवार ने इन सैनिक कौमों की कई पश्तें काट डाली और उनकी दमक-चमक और कीर्ति खत्म कर दी।
इन सभी तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि अकबर द्वारा राजपूतों का सहयोग प्राप्त करने का मुख्य उद्देश्य अपनी सर्वोच्च सत्ता की स्थापना करना तथा अपने साम्राज्य का विस्तार करना था। डॉ.त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है कि अकबर ने अन्य राजपूत राजाओं के प्रति अपने व्यवहार से यह सिद्ध कर दिया कि न तो वह उनके राज्य पर अधिकार करना चाहता था और न उसे उनके सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप करना था। वह इतना ही चाहता था कि वे नवीन साम्राज्य संघ का प्रभुत्व मान लें।
राजपूतों द्वारा सहयोग के कारण
अकबर को अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित करने के लिये राजपूतों के सहयोग की आवश्यकता थी। किन्तु तब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जिन राजपूत शासकों ने पिछले 350 वर्षों से दिल्ली के तुर्क, अफगानों और मुगलों से डटकर मोर्चा लिया, अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति दी और राजपूत वीरांगनाओं ने जौहर की धधकती हुई ज्वाला में संहर्ष अपने प्राणों की आहुति दी, वे ही राजपूत अब मुगलों के प्रबल समर्थक कैसे बन गये? राजपूतों द्वारा मुगलों से सहयोग करने के निम्नलिखित कारण थे –
यद्यपि राजपूत शासक दिल्ली के तुर्कों, अफगानों व मुगलों से दीर्घकाल तक संघर्ष करते रहे, लेकिन खानवा और गिरि-सुमेल के युद्धों में राजपूतों की निर्णायक पराजय के साथ ही उन्हें अपार जन धन की क्षति उठानी पङी। इतनी भीषण क्षति उठाने के बाद भी राजपूत शासकों में पारस्परिक संघर्ष बढता गया, जिससे राजपूत शासकों की शक्ति दिनों दिन क्षीण होती गयी।
अतः अब अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये तथा अपने पैतृक राज्य की रक्षा के लिये किसी शक्तिशाली सत्ता का संरक्षण प्राप्त करना उनके लिये एक अनिवार्य आवश्यक बन गया। चूँकि राजपूत शासकों में मुगल सम्राट अकबर से मुकाबला करने की शक्ति नहीं रह गयी थी, अतः उन्होंने अखबर का संरक्षण स्वीकार करना ही उचित समझा।
राजपूतों में बहुपत्नी प्रथा के कारण राजस्थान के अनेक राज्यों में उत्तराधिकार के सच्चे-झूठे झगङे उठ खङे होते थे। उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर राज्यों में गृह युद्ध तक छिङ जाता था। ऐसी स्थिति में राजगद्दी के अनेक दावेदार अकबर की सेवा में उपस्थित हो जाते थे और अपने पैतृक राज्य को प्राप्त करने हेतु मुगल सम्राट से सहायता की याचना करते थे। राणा प्रताप का भाई शक्तिसिंह, मारवाङ में चंद्रसेन का भाई शक्तिसिंह, मारवाङ में चंद्रसेन का भाई राम आदि इसीलिए अकबर के दरबार में उपस्थित हुए थे।
राजस्थान में एक समय था जबकि कोई साहसी एवं पराक्रमी अपने समर्थकों के साथ पैतृक राज्य को त्यागकर नवीन राज्य एवं राजघराने की नींव रख देता था, जैसाकि मारवाङ के शासक राव जोधा के पुत्र राव बीका ने बीकानेर राज्य की स्थापना की थी। लेकिन अब वह स्थिति नहीं रह गयी थी, क्योंकि मुगल सत्ता धीरे-धीरे प्रबल होती जा रही थी। राजपूत शासकों के लिये यह भी आवश्यक था कि अपने भाई-बेटों के लिये उन्नति एवं समृद्धि के साधन जुटाएँ।
इसके लिये उनके समक्ष मात्र यही विकल्प था कि मुगलों की अधीनता स्वीकार कर, मुगल सम्राट के साम्राज्य-विस्तार में अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देकर ऊँची-ऊँची मनसबें व जागीरें प्राप्त करें।
राजस्थान में राजपूत शासकों के पास कोई स्थाई सेना नहीं होती थी। जब भी शासक को आश्यकता होती थी, राज्य के सामंत अपनी – अपनी सेना लेकर अपने शासक की सेवा में उपस्थित हो जाते थे। जब तक शासक शक्तिशाली रहा, उसका अपने सामंतों पर पूरा नियंत्रण भी रहा और सामंत भी अपने शासक की सेवा करना अपना धर्म समझते थे।
किन्तु तुर्कों, अफगानों व मुगलों से निरंतर संघर्षों के कारण शासकों की इन सामंतों पर निर्भरता बढती गयी और सामंतों की शक्ति इतनी बढ गयी कि वे अपने शासकों से समानता का दावा करने लगे। ऐसे वंशानुगत सामंतों को नियंत्रण में रखना राजपूत शासकों की सामर्थ्य से बाहर था।
अतः इन सामंतों पर नियंत्रण स्थापित कर आंतरिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिये सबल बाह्य शक्ति की सहायता अनिवार्य थी, ऐसी स्थिति में मुगलों का संरक्षण स्वीकार करने के अतिरिक्त उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था।
राजपूत मुगल सहयोग के लिये चाहे किसी भी पक्ष ने पहल कीहो, यह तथ्य निर्विवाद है कि इससे सहिष्णुता का उत्तरोत्तर विकास हुआ और सामाजिक क्षेत्र में हिन्दू मुस्लिम सांस्कृतिक समन्वय को प्रोत्साहन मिला। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि इसने (नीति ने) मुगल साम्राज् को दोनों हिन्दुओं और मुसलमानों के सदभावों पर आधारित किया। इस युक्ति से राजपूतों को जो समानता के पद मुगल व्यवस्था में दिये गये थे, जिससे वे भारत के बाहर जाकर भी संघर्ष अपना रक्त मुगल हित के लिये बहाने को तैयार हो गये।
कई राजपूत वीर जिन्होंने मुगल संपर्क को मान्यता दी थी और जिन्हें साहित्य और कला प्रेम था उन्होंने शाही दरबार के वैभव को परिवर्द्धित करने में अनुपम योग दिया। इस युग की जो सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय की उपलब्धि हो सकती है उसका अधिकांश श्रेय राजपूतों को है, जिन्होंने हिन्दू मुस्लिम सामंजस्य को एक संभावित घठना बताया।
राजपूत मुगल सहयोग के परिणाम
आमेर के राजा भारमल द्वारा 1562 ई. में भारमल द्वारा 1562 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार करने तथा मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने के बाद राजस्थान में, मेवाङ राज्य को छोङकर, लगभग सभी शासकों ने मुगल शासकों से वैवाङिक संबंध स्थापित कर लिये। इससे राजस्थान के निवासियों को निरंतर चलने वाले विध्वंसकारी युद्धों से मुक्ति मिल गई तथा राजस्थान में शांति एवं समृद्धि का एक नवीन युग आरंभ हुआ। राजस्थान पर मुगलों की सर्वोच्चता स्थापित होने के बाद एक वैभवपूर्ण नियमबद्ध शाही दरबार का उद्भव हुआ, जिसमें राजपूत मनसबदारों द्वारा शाही नियमों और रीति-रिवाजों का पालन करना उनका कर्त्तव्य बन गया।
अब राजपूत शासकों के लिये शाही दरबार में उपस्थित होना अथवा शाही आदेशानुसार अपने नियुक्त स्थल पर साम्राज्य की सेवा में लगे रहना अनिवार्य था। इससे यद्यपि राजपूत शासकों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पङा तथापि अपनी योग्यता प्रदर्शित कर उच्च पद प्राप्त करने तथा साम्राज्य में महत्त्व प्राप्त करने के अवसर एवं साधन भी प्राप्त होने लगे। राजपूत शासकों व सैनिकों को दूरस्थ प्रदेशों की यात्रा करने, वहाँ के जन जीवन की जानकारी प्राप्त करने तथा युद्ध विद्या के नये कौशल सीखने का भी अवसर मिला।
अकबर ने जब अपने विस्तृत साम्राज्य के विभिन्न सूबों का नये ढंग से संगठन किया तब इस प्रदेश का (राजस्थान का) कोई प्रान्तीय नाम नहीं था। अतः यह प्रान्त अपनी राजधानी के नाम से अजमेर सूबा कहलाया।
अजमेर सूबे के शासन को संगठित करने से राजस्थान की प्रान्तीय एकता का बीजारोपण हो गया जिससे राजस्थान में नूतन प्रांतीय समानता तथा सांस्कृतिक प्रवृत्तियों में अनोखी आंतरिक एकता उत्पन्न हो गयी। इसका प्रभाव विभिन्न राजपूत राज्यों के शासन संगठन पर भी पङा।
मारवाङ के राजा सूरसिंह के प्रधानमंत्री गोविन्द दास मानावत ने राज्य के शासन प्रबंध को पूर्णतया मुगल साम्राज्य के ढाँचे पर पुनर्गठित किया। इसी प्रकार शाही दरबार में मनसबदारों की विभिन्न श्रेणियाँ थी तथा उनकी मान-मर्यादा निश्चित थी, उसी प्रकार राजस्थान के शासकों ने भी अपने सामंतों की विभिन्न श्रेणियाँ निश्चित कर उनकी मान-मर्यादा भी निश्चित कर दी।
इस प्रकार सामंती व्यवस्था को शाही नमूने पर वैभवपूर्ण नियमबद्ध कर उसे नया स्वरूप दिया गया। इससे पूर्व शासक एवं सामंतों के बीच कुलीय समानता के संबंध थे, लेकिन नवस्थापित व्यवस्था में स्वामी सेवक का नया संबंध स्थापित हो गया। इस नयी व्यवस्था को धीरे-धीरे राजस्थान के सभी छोटे-बङे राज्यों ने अपना लिया, जिसका राजस्थान की संस्कृति एवं राजनीति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पङा।
राजस्थान में शांति स्थापित हो जाने पर प्रान्त में आर्थिक प्रगति भी होने लगी, जिससे राजस्थान में 1647 ई. में पङने वाले भयंकर अकाल का काई स्थाई प्रभाव नहीं पङा। सांभर का नमक उद्योग उत्तरोत्तर उन्नति करने लगा। सांभर का नमक आगस, अवध और इलाहाबाद के सूबों में उपयोग किया जाता था तथा नमक कर से मुगल साम्राज्य को प्रति वर्ष लाखों रुपयों की आय भी होने लगी।
उत्तरी व दक्षिणी सूबों को जोङने वाले व्यापारिक मार्ग अजमेर, नागौर, मेङता, चित्तौङ आदि थे जिससे राजस्थान में विदेशी व्यापार भी समृद्ध हुआ। जब कोई विदेशी व्यापारी किसी राज्य की सीमा में प्रविष्ट होता था तब उसकी सुरक्षा का दायित्व वह राज्य स्वयं लेता था और इस सुरक्षा के बदले राज्य को कर प्राप्त होता था। मुगल शासकों द्वारा व्यापारियों की सुविधा के लिये जगह-जगह सरायों का निर्माण करवाने से दिल्ली के व्यापारी मालवा और राजस्थान होते हुये गुजरात तक पहुँच जाते थे।
कभी-कभी विदेशी व्यापार का परिणाम राजस्थान के लिये घातक भी होता था, जैसे 1625 ई. के आसपास भारत में ताँबे का मूल्य एकाएक बढ गया, जिससे विदेशी ताँबा भारत में आने लगा, जिसके साथ व्यापारिक प्रतियोगिता संभव नहीं थी। फलस्वरूप राजस्थान का ताँबा उद्योग एक बार बंद हो गया।
राजपूत मुगल सहयोग ने राजस्थान के सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन किया। यहाँ के निवासियों के खान पान और वेश भूषा में परिवर्तन आया। हिन्दू सामंतों ने दगली, जामा औदि मुस्लिम अमीरों की वेश भूषा ग्रहण कर ली। राजपूतों के फेंटे व पगङियों में परिवर्तन आया।
अकबर के काल में मेवाङ में अटपटी पगङी का प्रचलन हुआ और जहाँगीर व शाहजहाँ के काल से अमरशाही पगङी का। पगङियों को आकर्षक बनाने के लिये उस पर तुर्रा, सरपेच, लटकन आदि लगाये जाने लगे। हिन्दुओं में सलवार, जर्दा व सुर्ती खाना तथा खाना राजपूत मुगल सहयोग का ही परिणाम है। राजपूत शासकों एवं सामंतों ने शिकार में अपनी औरतों को साथ ले जाने की परंपरा मुगलों से सीखी थी।
राजस्थान में शतरंज का खेल लोकप्रिय हुआ तथा राजपूत राजाओं के रसोङे में मुगलों की तरह बाकरबानी चपातियाँ बनने लगी व तेज मिर्च मसालों का प्रयोग होने लगा।
राजस्थान की कला और साहित्य में भी परिवर्तन आये। मेवाङ, आमेर, जोधपुर तथा बीकानेर के राजमहलों की स्थापत्य कला में सम्मिश्रित राजपूत-मुगल शैली का विकास स्पष्ट दिखाई देता है। राजस्थानी चित्रकला पर भी मुगल शैली का प्रभाव पङा। मुगलों के निरंतर साहचर्य के फलस्वरूप राजपूत शासकों, उनके सामंतों व उच्च पदाधिकारियों की वेश भूषा में होने वाले परिवर्तन तथा मुगल स्थापत्य की नयी शैली का प्रतिबिम्ब राजस्थानी शैली के चित्रों में भी दिखाई देने लगा।
मुगल प्रभाव के फलस्वरूप बढते हुये ऐश्वर्यय विलास की झलक भी इस काल के चित्रों में स्पष्ट दिखाई देती है। संगीत कला के क्षेत्र में जहाँ एक ओर मुगल दरबार में शास्रीय संगीत की मधुर तान सुनाई देने लगी तो दूसरी ओर राजपूत शासकों के राजदरबारों में गजल और ठुमरी की शान्त ध्वनि सुनाई देने लगी। राजपूती राजदरबारों में मुगलिया वेश भूषा में नर्तकियों के नृत्य आम बात हो गयी।
शांती एवं समृद्धि का यह काल राजस्थानी साहित्य के विकास में भी सहायक सिद्ध हुआ। बीकानेर के राजा रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज राठौङ ने इसी काल में वेलि क्रिसन रुक्मणी जैसे उत्कृष्ट काव्य की रचना की। राजस्थान के अमर कवि दुरसा आढा की ओजपूर्ण वाणी तथा भावपूर्ण मर्मभेदी कृतियाँ इस काल में ही प्रथम बार सुनाई पङी।
राणा प्रताप के स्वातन्र्य प्रेम तथा अनुकारणीय दृढता को लेकर इन दोनों कवियों ने अनेक छंदों की रचना की जो राजस्थान के घर-घर में आज भी लोकप्रिय हैं। भक्ति प्रधान साहित्य की धारा भी इस काल में बहती रही। राजस्थान में संत कवियों की परंपरा इसी काल में आरंभ हुई।
हिन्दी साहित्य के निर्गुणोपासक संत कवियों में सुन्दरदास ने जहाँ एक ओर संत कवि परंपरा को सुदृढ एवं सम्पन्न बनाया, वहीं महाकवि बिहारी ने बिहारी सतसई जैसा अपूर्व ग्रन्थ रत्न हिन्दी साहित्य को प्रदान किया। रीति ग्रन्थों के साथ-साथ नर काव्यों की परंपरा भी चलती रही।
हम्मीर रासो राजरूपक एवं सूरज प्रकाश जैसे उच्च कोटि के ग्रन्थों की रचना इसी काल में हुई थी। संस्कृत काव्य धारा भी राजस्थान में यदाकदा बहती रही। महाराणा जगतसिंह के संरक्षण में कवि विश्वनाथ ने जगत प्रकाश नामक संस्कृत काव्य की रचना की।
राजपूत मुगल सहयोग के इस काल में जहाँ एक ओर शांति रही, वहीं दूसरी ओर हिन्दू मुस्लिम संस्कृति समन्वय से इस क्षेत्र का सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास हुआ। फलस्वरूप कोई भी संस्कृति अपने मूल स्वरूप को बनाये नहीं रख सकी।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References राजस्थान में मुगल राजपूत सम्बन्ध - Mygkbook