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सर्वोच्च सत्ता की कार्यप्रणाली क्या थी?

सर्वोच्च सत्ता की कार्यप्रणाली

सर्वोच्च सत्ता की कार्यप्रणाली ( sarvochch satta kee kaaryapranaalee)

देशी राज्यों के प्रति ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गई नीति का विवेचन हम निम्नलिखित बिन्दुओं से कर सकते हैं-

संधियों की रचनात्मक व्याख्या – 1858 के बाद ब्रिटिश सरकार ने संधियों की कोई नई व्याख्या नहीं की तथा प्रत्येक संधि को स्वीकार कर लिया। परंतु शीघ्र ही संधियों की रचनात्मक व्याख्या करने की नीति अपनाई गयी। इसका अर्थ यह हुआ कि सर्वोच्च सत्ता होने के नाते ब्रिटिश सरकार ने मनमाने ढंग से संधि की व्याख्या करना आरंभ कर दिया। भारत सरकार की नीति थी सब संधियों को एक मिलाकर पढना। यदि किसी भी राज्य के साथ की गयी संधि से भारत सरकार को किसी प्रकार का अधिकार मिला था, तब उसने उस संधि का अन्य राज्यों के विषय में भी उपयोग किया। इस प्रकार भारत सरकार ने देशी राज्यों पर अंकुश लगाते समय संधि की व्यवस्थाओं की जैसी चाही व्याख्या की और देशी नरेश उसके कार्यों के विरुद्ध कोई भी आवाज नहीं उठा सकते थे।

एक निगरानी का सिद्धांत – इस अवधि में भारत सरकार ने एक निगरानी के सिद्धांत के अनुसार कार्य किया। इसी कारण ब्रिटिश नीति को अधीनस्थ एकता की नीति कहा गया। 1858 के बाद संपूर्ण भारत को एक करने के लिए भरसक प्रयास किया गया और इसी से प्रत्येक गवर्नर जनरल ने एक निगरानी के सिद्धांत का अनुसरण किया। प्रशासनिक दृष्टि से तथा आर्थिक विकास का निर्णय करते समय किसी भी देशी रियासत को बाधा उपस्थित करने का अवसर नहीं दिया गया। इसी प्रकार से अन्य संचार-साधनों की व्यवस्था करते समय भी संपूर्ण भारत को एक इकाई ही माना गया।

अंग्रेजों द्वारा चलाया गया सिक्का पूरे भारत में व्यापार का आधार बना। कर संबंधी व्यवस्था करते समय भी देशी राज्यों को सहयोग करने को कहा गया। इस प्रकार आर्थिक ढंग से देश एक होता गया। देशी राज्यों ने भी उसी प्रकार की न्याय-व्यवस्था का प्रबंध किया जिस तरह की न्याय-व्यवस्था ब्रिटिश अधीन भारत में स्थापित थी।

सीमावर्ती देशी राज्यों के प्रतिनिधि – सीमावर्ती राज्यों पर भारत सरकार ने अधिक नियंत्रण लगाए। 1886 से कश्मीर राज्य पर भारत सरकार ने नियंत्रण बढाना शुरू कर दिया। कश्मीर में एक अंग्रेज रेजीडेन्ट नियुक्त किया गया तथा 1889 में कश्मीर के महाराजा प्रतापसिंह को अपदस्थ करके कश्मीर के प्रशासन पर ब्रिटिश प्रभाव को बढाया गया। इसी प्रकार सिक्किम तथा भूटान पर भी नियंत्रण बढाया गया। 1893 में कलात के शासक खुदादार खाँ को अपदस्थ कर दिया गया तथा कलात पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए क्वेटा से सेनाएँ भेजी गयी।

रेजीडेन्टों का बढता हुआ प्रभाव – भारत सरकार देशी राज्यों पर निगरानी रखने के लिए प्रत्येक देशी राज्य में अपना एक ब्रिटेश रेजीडेन्ट नियुक्त करती थी। यह ब्रिटिश अधिकारी राज्य की राजधानी में रह कर उस राज्य में होने वाली प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखता था। रेजीडेन्टों के द्वारा ही गवर्नर जनरल प्रत्येक देशी राज्य के विषय में जानकारी प्राप्त करता था और इसी की रिपोर्ट के अनुसार किसी प्रकार की कार्यवाही की जाती थी। ये रेजीडेन्ट ही देशी नरेशों के भाग्य का निर्णय करते थे। इस कारण कोई भी देशी नरेश ब्रिटिश रेजीडेन्टों को नाराज करने का साहस नहीं कर सकता था।

डॉ.के.एम.पनिक्कर का कथन है कि देशी नरेश ब्रिटिश रेजीडेन्ट की सलाह को आज्ञा के रूप में स्वीकार करते थे।

देशी राज्यों में बढता हुआ ब्रिटिश हस्तक्षेप – यद्यपि प्रत्येक देशी नरेश को प्रशासन चलाने के लिए मंत्रियों की नियुक्ति करने की पूरी स्वतंत्रता थी, फिर भी मंत्रियों की नियुक्ति तथा उन्हें अपदस्थ करने में ब्रिटिश सर्वोच्च सत्ता ने कई बार हस्तक्षेप किया। यदि किसी प्रभावशाली मंत्री के संबंध ब्रिटिश सर्वोच्च सत्ता ने कई बार हस्तक्षेप किया।

यदि किसी प्रभावशाली मंत्री के संबंध ब्रिटिश रेजीडेन्ट अथवा गवर्नर जनरल से अच्छे थे, तो उसे देशी नरेश आसानी से नहीं हटा सकता था। जब हैदराबाद के मुख्यमंत्री सालारजंग ने हैदराबाद के निजाम के साथ मतभेद हो जाने के कारण त्याग-पत्र दे दिया तो गवर्नर जनरल ने निजाम के साथ मतभेद हो जाने के कारण त्याग-पत्र दे दिया तो गवर्नर जनरल ने निजाम को विवश किया कि वह सालारजंग को पदमुक्त न करे क्योंकि सालारजंग अंग्रेजों का समर्थक था। कई बार भारत सरकार ने अपने अधिकारियों को प्रशासन की व्यवस्था करने के लिए देशी राज्यों में भेजी।

दरबारों का आयोजन – 1877 में लार्ड लिटन ने दिल्ली में एक विशाल दरबार आयोजित किया जिसमें प्रत्येक देशी नरेश को वायसराय के सामने सिर झुकाना पङा। इसी प्रकार 1903 एवं 1911 में दरबार आयोजित किये गए। इन दरबारों के आयोजन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के वैभव से देशी नरेशों को प्रभावित करना था।

डॉ.के.एम.पनिक्कर का कथन है कि दरबारों को आयोजित करने का उद्देश्य था – देशी राज्यों को पूरी तरह से अधीन करना तथा उन्हें राज्यभक्ति के लिए प्रेरित करना।

देशी नरेशों की अल्पवयस्कता – जब भी भारत सरकार को कभी देशी राज्य के लिए किसी नरेश का चुनाव करना आवश्यक हो जाता था तो उस समय भी राजवंश के ऐसे व्यक्ति का चुनाव किया जाता था जिसकी आयु बहुत कम हो। ऐसे कम आयु के शासक के संरक्षण की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार स्वयं संभाल लेती थी और इस अवधि में प्रायः शासन की बागडोर ब्रिटिश अधिकारियों के हाथ में रहती थी।

देशी राज्यों के आंतरिक प्रशासन में ब्रिटिश हस्तक्षेप – भारत सरकार ने देशी राज्यों के आतंरिक प्रशासन में हस्तक्षेप की नीति अपनाई। आरंभ में ही देशी नरेशों को बता दिया गया कि ब्रिटिश सत्ता उनसे अच्छे शान की आशा करती थी। यदि किसी राज्य में स्थिति बिगङती थी, तो ब्रिटिश सत्ता वहाँ खुलेआम हस्तक्षेप करने में तनिक भी संकोच नहीं करती थी।

1870 में गवर्नर जनरल ने अलवर के राजा को अपदस्थ कर दिया तथा राज्य का प्रशासन चलाने के लिए सामंतों की एक समिति का गठन किया गया। 1867 में टोंक के नवाब को गद्दी से हटा दिया गया और भारत सरकार ने उसके पुत्र को नवाब बनाया। बङौदा के शासक मल्हार राव गायकवाङ के ब्रिटिश रेजीडेन्ट से संबंध बिगङ गए। ब्रिटिश रेजीडेन्ट ने मल्हार राव के विरुद्ध यह शिकायत की कि महाराजा ने उसे विष देकर मार डालने का षङयंत्र रचा था। इस पर गवर्नर जनरल ने मल्हार राव होल्कर को बंदी बना लिया। कुछ समय बाद मल्हार राव होल्कर पर कुशासन का आरोप लगा कर उसे गद्दी से हटा दिया गया।

देशी राज्यों में उत्तराधिकार के समय ब्रिटिश हस्तक्षेप – ब्रिटिश सर्वोच्च सत्ता ने सिद्धांत के अनुसार कार्य किया कि किसी भी राज्य के नरेश के स्थान पर उसके उत्तराधिकारी का चुनाव करने के उसे हर प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। जब तक भारत सरकार स्वीकार न कर ले, किसी भी राज्य के उत्तराधिकारी की सत्ता वैध नहीं मानी जाती थी। वास्तव में भारत सरकार की इच्छा के विरुद्ध कोई भी उत्तराधिकारी देशी राज्य का शासक नहीं बन सकता था। कई ऐसे अवसर आए जब भारत सरकार ने उस राजकुमार को उत्तराधिकारी नहीं माना जिसे गद्दी पर बैठने का सबसे अधिक हक था और उसके स्थान पर किसी दूसरे व्यक्ति को चुना गया।

1890 में महल के निकट गोलियाँ चलने के कारण मैसूर का महाराजा सूर्यचंद्र महल से भाग निकला और उसके भाग जाने के बाद उसका छोटा भाई कुलचंद्र सिंह गद्दी पर बैठ गया। ब्रिटिश सरकार ने उसके अधिकार को स्वीकार कर लिया। परंतु अंग्रेजों ने कुचंद्र सिंह के छोटे भाई टीकेन्द्रजीत सिंह को बंदी बनाने का आदेश दिया क्योंकि उसने मनीपुर में हुई क्रांति में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

जब ब्रिटिश सैनिकों ने उसे बंदी बनाने के लिए उसके महल पर आक्रमण किया तो टीकेन्द्रजीत सिंह के सैनिकों ने डटकर मुकाबला किया। विवश होकर ब्रिटिश अधिकारियों को ही टीकेन्द्रजीत सिंह से संधि वार्ता करनी पङी। इसी समय मनीपुर में एकत्रित भीङ ने अचानक अंग्रेज अधिकारियों पर हमला कर दिया और अनेक अंग्रेज अधिकारियों का वध कर दिया। इस पर गवर्नर-जनरल ने एक ब्रिटिश सेना मनीपुर भेजी। टीकेन्द्रजीत सिंह तथा मनीपुर के शासक कुलचंद्रसिंह बंदी बना लिए गए। टीकेन्द्रसिंह तथा उसके कुछ साथियों को फांसी दे दी गयी।

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि 1858-1905 के मध्य ब्रिटिश सरकार ने सर्वोच्च सत्ता के सिद्धांत के आधार पर देशी राज्यों के साथ अधीनस्थ एकता की नीति पर चलकर संबंध बढाये तथा अपने स्वार्थों को सिद्ध किया।

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