मेवाङ का उत्तराधिकार संघर्ष (Succession struggle of Mewang)-
मेवाङ के पङौसी प्रान्त मालवा में मराठों का प्रवेश हो जाने से मेवाङ की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया था। अतः महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने मुगल दरबार के प्रमुख राजनीतिज्ञों को बार-बार सचेत किया था, किन्तु शक्तिहीन मुगल दरबार मराठों की बढती हुई शक्ति को नहीं रोक सका। मालवा में अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद मराठों ने राजस्थान की ओर देखना आरंभ कर दिया।
बून्दी के आंतरिक झगङे ने उन्हें अवसर प्रदान कर दिया। तत्पश्चात पेशवा अक्टूबर, 1735 ई. में उत्तर भारत की ओर आया और उदयपुर पहुँचा। महाराणा ने पहली बार मराठों को चौथ देना स्वीकार किया। 1741 ई. में धौलपुर-समझौते के बाद जब शाही फरमान द्वारा मालवा, मराठों का प्रान्त हो गया, उसके बाद मराठे मेवाङी सीमा में प्रवेश कर लूटमार करने लगे, किन्तु मेवाङी फौजों ने मराठों को खदेङ दिया।
सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद जयपुर में आरंभ हुए उत्तराधिकार संघर्ष में महाराणा जगतसिंह ने अपने भांजे, माधोसिंह को जयपुर की गद्दी दिलवाने के लिये मराठों को भारी आर्थिक प्रलोभन देकर माधोसिंह की सहायतार्थ उन्हें आमंत्रित किया। फलतः मेवाङ में भी मराठों के हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी।

महाराणा जगतसिंह की मृत्यु के बाद महाराणा प्रतापसिंह (1741-1754ई.) तथा उसके सामन्तों में पारस्परिक विरोध बना रहा। तत्पश्चात महाराणा राजसिंह द्वितीय (1754-1761 ई.) की बाल्यावस्था के कारण मेवाङ की रही-सही शक्ति भी अधिकाधिक क्षीण होती गयी तथा मराठों को बार-बार द्रव्य देकर उन्हें मेवाङ से दूर रखने की नीति अपनानी पङी।
महाराणा राजसिंह की निःसंतान मृत्यु के बाद उसका चाचा अङसी (अरिसिंह) मेवाङ की गद्दी पर बैठा। लेकिन उसके क्रोधी स्वभाव और दुर्व्यवहार के कारण मेवाङ के अनेक प्रमुख सामंत उससे क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने महाराणा राजसिंह के मरणोपरांत उत्पन्न पुत्र रतनसिंह को मेवाङ की गद्दी पर दावेदार खङा कर दिया। दोनों पक्षों ने मराठों से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया।
महाराणा अङसी के पक्ष वालों ने मराठों को 20 लाख रुपया देने का वायदा किया, लेकिन रतनसिंह के पक्ष वालों ने, रतनसिंह को मेवाह की गद्दी पर बैठाने की शर्त पर महादजी सिन्धिया को 50 लाख रुपये तथा मराठों की जो भी बकाया राशि देनी थी, सभी रुपया चुकाने का वायदा किया। महादजी 14 दिसंबर, 1768 ई. को ससैन्य उज्जैन से रतनसिंह की सहायतार्थ रवाना हुआ और उदयपुर पर चढाई करने की तैयारी करने लगा।
महाराणा अङसी को जब इसकी सूचना मिली तो महाराणा ने अपने कुछ सरदारों को महादजी को समझाने-बुझाने के लिए भेजा, लेकिन महादजी ने अङसी के पक्ष वालों की एक भी न सुनी। तब अङसी ने एक सेना उज्जैन की तरफ भेज दी। महाराणा ने अपनी सेना के प्रमुख सामंतों को हिदायत दी कि वे महादजी को एक बार पुनः समझाने का प्रयास करें और यदि वह नहीं माने तो उससे युद्ध किया जाय।
महाराणा की फौज ने उज्जैन पहुँच कर क्षिप्रा नदी के किनारे अपना डेरा लगाया तथा महादजी से बातचीत आरंभ की। महादजी ने रतनसिंह के लिये मेवाङ की गद्दी की माँग की। इस पर मेवाङ के अङसी समर्थक सामंतों ने उसे समझाया कि महाराणा राजसिंह की रानी महाराणा के देहान्त के समय गर्भवती नहीं थी, इसलिए रतनसिंह, महाराणा राजसिंह का वास्तविक पुत्र नहीं है, यदि वह स्वर्गीय महाराणा का वास्तविक पुत्र होता तो वे खुशी से उसे अपना स्वामी स्वीकार कर लेते।
इन सामंतों ने महादजी को 35 लाख रुपया देने का प्रलोभन भी दिया। किन्तु धन का लालची महादजी 50 लाख रुपये छोङकर 35 लाख रुपये लेने को कब तैयार होने वाला था। अतः उसने मेवाङी सामंतों की दलीलों पर कोई ध्यान नहीं दिया। तब तो महाराणा की सेना के राजपूत महादजी से लङने के लिये तैयार हो गये।
16 जनवरी, 1769 ई. को क्षिप्रा नदी के किनारे दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें महादजी ने अपने विरोधियों को पराजित किया। अपनी इस विजय से प्रोत्साहित होकर महाजदी उदयपुर की तरफ आया और उसने उदयपुर नगर को घेर लिया। इस समय महाराणा की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी थी।
राज्य का खजाना खाली था तथा सिन्धिया की फौज से युद्ध करने के लिये पूरी फौज भी उसके पास नहीं थी। फिर भी महाराणा के प्रधान अगरचंद बङवा ने बङी कुशलता के युद्ध की तैयारी की और सिन्धिया की सेना से युद्ध करने लगा। छः महीने तक उदयपुर का घेरा ज्यों का त्यों चलता रहा, किन्तु सिन्धिया नगर पर अधिकार न कर सका। जब उदयपुर में रसद सामग्री समाप्त होने लगी तब अङसी के समर्थक सामंतों ने सिन्धिया को कहलवाया कि यदि वह रतनसिंह को मेवाङ की गद्दी पर बैठाना चाहता है तो वह उससे रुपया ले वरना हम देने को तैयार हैं।
तब सिन्धिया ने रतनसिंह के समर्थकों से रुपया माँगा, लेकिन वे टालमटोली करने लगे। जब सिन्धिया को रतनसिंह के पक्ष वालों से रुपया मिलने की कोई आशा नहीं रही तब उसने 21 जुलाई, 1769 को महाराणा से संधि कर ली। संधि के अनुसार अङसी ने युद्ध खर्च के रूप में सिन्धिया को 60 लाख रुपये तथा साढे तीन लाख रुपये दफ्तर खर्च के देना तय हुआ। इसके अलावा रतनसिंह को 75 हजार रुपये वार्षिक आय की जागीर तथा मंदसौर का परगना देना तय हुआ।
सिन्धिया को दी जाने वाली रकम में से 8 लाख रुपये रोकङ तथा 17 लाख 75 हजार का सोना, चाँदी तथा आभूषण दिये गये और शेष रुपयों के बदले नीमच, जावद, जीरण और मोरवण के परगने इस शर्त पर सिन्धिया के पास गिरवी रखे गये कि इन परगनों की आय प्रति वर्ष जमा होगी और जब कुल रकम अदा हो जाय तब वे परगने पुनः महाराणा को सौंप दिये जायेंगे। किन्तु मराठों ने ये परगने महाराणा को कभी नहीं लौटाये और ये सदा के लिये मेवाङ राज्य से अलग हो गये।
इस संधि के बाद महादजी सितंबर, 1769 ई. के अंत में मालवा की ओर चला गया। महादजी के चले जाने के बाद रतनसिंह का पक्ष निरंतर कमजोर होता गया।
मेवाङ के उत्तराधिकार संघर्ष में मराठों के इस हस्तक्षेप के बाद तो मेवाङ में मराठों की निरंतर लूटमार आरंभ हो गयी। ऐसी स्थिति में सिसोदिया वंशी सामंतों की दो प्रमुख शाखाओं – चूँडावतों और शक्तावतों में पारस्परिक संघर्ष आरंभ हो गया जिससे मराठों को कभी चूँडावतों का तो कभी शक्तावतों का पक्ष ग्रहण करने का अवसर मिलता रहा।
फलस्वरूप राज्य का रहा सहा शक्तिहीन शासन छिन्न-भिन्न हो गया। स्वयं महाराणा भी इतना असहाय हो गया कि अपने ही सामंतों को नियंत्रण में रखने के लिये उसे महादजी से सहायता की याचना करनी पङी। मेवाङ में व्यवस्था और अनुशासन तो मानों कोसों दूर चले गये थे। सर्वत्र भयंकर अराजकता का शासन स्थापित हो गया। अर्द्ध शताब्दी की इस अराजकता के बाद राजस्थान में अंग्रेजी की सर्वोपरि सत्ता स्थापित होने के बाद इसका अंत हो सका।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
