राजस्थान में स्थापत्य एवं चित्रकला
स्थापत्य एवं चित्रकला – लिपिबद्ध साधनों से जिस प्रकार हम इतिहास का निर्माण करते हैं, उसी प्रकार स्थापत्य एवं चित्रकला के साधनों के माध्यम से इतिहास के सांस्कृतिक पक्ष का निर्माण कर सकते हैं। स्थापत्य के साधनों में दुर्ग, राजप्रासाद, सार्वजनिक भवन, राजाओं की समाधियाँ, मंदिर और मूर्तियाँ, जलाशय आदि हैं जिनका विस्तार से वर्णन करना संभव नहीं है।
बहुत से राजपूत शासकों ने राज्य की सुरक्षा के लिये, बाह्य आक्रमणों का प्रतिरोध करने के लिये भव्य प्रासादों का निर्माण करवाया, अपनी आध्यात्मिक पिपासा की तृप्ति के लिये मंदिर बनवाये, अपने वीर पूर्वजों की याद में समाधियाँ बनवाई। यद्यपि मुस्लिम आक्रमणों के फलस्वरूप और बाद में स्थानीय लोगों की लापरवाही से अधिकांश स्मारक नष्ट हो चुके हैं, फिर भी, जो अभी तक सुरक्षित हैं, उनके अध्ययन से इतिहास के निर्माण में बहुत सहयोग मिलता है।
सार्वजनिक भवनों, निजी भवनों तथा राजप्रासादों के अवशेषों से हमें उस युग के सामाजिक जीवन का वास्तविक स्तर का पता चलता है।इसके साथ ही राजनातिक उथल-पुथल का अध्ययन करने में भी सहयोग मिलता है। मंदिर और मूर्तियों से उस समय के लोगों के धार्मिक विश्वासों की जानकारी मिलती है।
मूर्तियों के वस्रों तथा आभूषणों के माध्यम से न केवल उस युग में प्रचलित वेश-भूषा का ही ज्ञान होता है अपितु आर्थिक सम्पन्नता की जानकारी भी मिलती है। इसी प्रकार की जानकारी चित्रों तथा सचित्र-ग्रन्थों के माध्यम से मिलती है।

राजस्थान में स्थापत्य कला का विकास महाराणा कुम्भा के समय से होता है। उनके समय में प्रसिद्ध शिल्पशास्री मंडन हुआ जिसने वास्तुशिल्प कला पर पाँच ग्रन्थ लिखे जिनमें प्रासादमंडल, रूपावतार और रूपमंडन अधिक प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थों में देवालय, मूर्ति-निर्माण, सामान्य व्यक्तियों के घर, कुआँ, बावङी, तालाब, राजमहल आदि के निर्माण के संबंध में महत्त्वपूर्ण निर्देशों का उल्लेख किया गया है।
चित्तौङ का कीर्ति स्तंभ, मंडन की शिल्पकला का अद्वितीय नमूना है। ओझाजी के मतानुसार मेवाङ में 84 किलों में से 32 किलों तथा अनेक मंदिर और जलाशय महाराणा कुम्भा के बनवाये हुए हैं। मारवाङ के शासक जोधा ने भी जोधपुर नगर एवं जोधपुर के सुदृढ दुर्ग का निर्माण करवाया।
मारवाङ नरेश मालदेव ने अपने बढते हुये राज्य की सुरक्षार्थ महत्त्वपूर्ण सामरिक स्थानों पर कई नए किले और परकोटे बनवाये। राजपूत शासकों के संरक्षण में कई महत्त्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण भी हुआ। उदयपुर शहर का जगदीश मंदिर, नाथद्वारा के मंदिर, जयपुर का गोविन्द देवजी का मंदिर आदि का निर्माण भी किया गया था।
मुगल शासकों के साथ संपर्क में आने के बाद धीरे-धीरे राजस्थानी स्थापत्य कला पर मुगल स्थापत्य शैली का प्रभाव सुस्पष्ट होका गया।
मुगलों का प्रभाव राजपूत चित्र शैली पर भी पङा। अब राजपूत चित्र शैली में मुगलों की नवीन वेश-भूषा का प्रभाव बढा। पुराने समय की चंचलतापूर्ण गतिशीलता का स्थान प्रौढ, गाम्भीर्यपूर्ण, मर्यादा-प्रधान स्वरूप ने ले लिया। औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता ने मुगल चित्रकलाके बढते कदमों को रोक दिया। ऐसे नाजुक समय में राजपूत शासकों ने चित्रकारों को आश्रय देकर भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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