प्राचीन भारतइतिहासचंद्रगुप्त मौर्यमौर्य साम्राज्य

चंद्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति का वर्णन

मौर्य साम्राज्य का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य था, जिसकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक विद्वानों ने अलग-2 मत प्रकट किये हैं। चंद्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति के संबंध में ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में परस्पर विरोधी विवरण मिलते हैं।

ब्राह्मण ग्रंथ, बौद्ध ग्रंथ, जैन ग्रंथों का विवरण।

फलस्वरूप उसकी जाति का निर्धारण भारतीय इतिहास की कठिन समस्या है। ब्राह्मण ग्रंथ में चंद्रगुप्त मौर्य को शूद्र अथवा निम्न कुल से संबंधित करते हैं, जबकि बौद्ध तथा जैन ग्रंथ उसे क्षत्रिय सिद्ध करते हैं। चार वर्ण कौन-कौन से थे?

चंद्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति-विषयक विभिन्न मतों की समीक्षा निम्नलिखित हैं-

ब्राह्मण साहित्य का साक्ष्य

यूट्यूब विडियो

ब्राह्मण साहित्य में सर्वप्रथम पुराणों का उल्लेख किया जा सकता है। पुराण नंदों को शूद्र कहते हैं। विष्णुपुराण में कहा गया है, कि शिशुनागवंशी शासक महानंदी के बाद शूद्र योनि के राजा पृथ्वी पर शासन करेंगे। कुछ विद्वानों इस कथन के आधार पर मौर्यों को शूद्र सिद्ध करने का प्रयास किया है।

विष्णुपुराण के एक भाष्यकार श्रीधरस्वामी ने चंद्रगुप्त को नंदराज की पत्नी मुरा से उत्पन्न बताया है। उनके अनुसार मुरा की संतान होने के कारण ही वह मौर्य कहा गया।

दूसरा प्रमाण विशाखादत्त के मुद्राराक्षस नामक नाटक से लिया गया है। मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त को नंदराज का पुत्र कहा गया है। किन्तु इसमें जो विवरण मिलता है, उससे स्पष्ट हो जाता है, कि चंद्रगुप्त नंदराज का वैध पुत्र नहीं था, क्योंकि नाटक में ही नंदवंश को चंद्रगुप्त का पितृकुलभूतं अर्थात् पितृकुल बनाया गया, पद उल्लेखित है।

यदि चंद्रगुप्त नंदराज का वैध पुत्र होता तो उसके लिए पितृकुल का प्रयोग मिलता। फिर से एक स्थान पर लिखा गया है, कि नंदराज का समूल नाश हो गया। यदि चंद्रगुप्त नंद राजा का वास्तविक पुत्र होता तो उसके बचे रहने का प्रश्न ही नहीं उठता।

यह नाटक नंदों को उच्च कुल तथा चंद्रगुप्त को निम्न कुल का बताता है। इस ग्रंथ में चंद्रगुप्त को वृषल तथा कुलहीन कहा गया है।

शूद्र उत्पत्ति के समर्थक विद्वानों ने इन दोनों शब्दों ( वृषल तथा कुलहीन ) को शूद्र जाति के अर्थ में ग्रहण किया है। 18 वी.शता.ई. के मुद्राराक्षस के एक टीकाकार धुंडिराज ने चंद्रगुप्त को शूद्र सिद्ध करने के लिए एक अनोखी कहानी गढी है।

धुंडिराज के अनुसार सर्वार्थसिद्धि नामक एक क्षत्रिय राजा की दो पत्नियाँ थीं – 1) सुनंदा 2) मुरा। सुनंदा एक क्षत्राणी थी, जिसके नौ पुत्र हुए जो नव नंद कहे गये। मुरा शूद्रा (वृषलात्मजा) थी। उसका एक पुत्र हुआ जो मौर्य कहा गया।

11 वी. शता. ईस्वी के दो संस्कृत ग्रंथ – सोमदेव कृत कथासरितसागर तथा क्षेमेन्द्र कृत वृहतकथामंजरी में चंद्रगुप्त की शूद्र उत्पत्ति के विषय में एक भिन्न विवरण मिलता है।

इन ग्रंथों के अनुसार नंदराज की अचानक मृत्यु हो गयी तथा इंद्रदत्त नामक एक व्यक्ति योग के बल पर उसकी आत्मा में प्रवेश कर गया तथा राजा बन बैठा।

इसके बाद वह योगनंद के नाम से जाना जाने लगा। उसने नंदराज की पत्नी से विवाह कर लिया। जिससे उसे हिरण्यगुप्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। किन्तु वास्तविक नंद राजा (पूर्वनंद) को पहले से ही चंद्रगुप्त नामक एक पुत्र था।

योगनंद अपने तथा अपने पुत्र हिरण्यगुप्त के मार्ग में चंद्रगुप्त को बाधक मानता था। जिससे दोनों में वैमनयस्य होना स्वाभाविक था। वास्तविक नंदराजा के मंत्री शकटार ने चंद्रगुप्त का पक्ष लिया। चाणक्य नामक ब्राह्मण को अपनी ओर मिलाकर उसकी सहायता से शकटार ने योगनंद तथा हिरण्यगुप्त का अतं कर दिया तथा राज्य का वैध उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त ही सिंहासन पर बैठा।

इस प्रकार इन ग्रंथों में चंद्रगुप्त को नंदराज का पुत्र मानकर उसकी शूद्र उत्पत्ति का मत व्यक्त किया गया है।

बौद्ध साहित्य का साक्ष्य

ब्राह्मण परंपरा के विपरीत बौद्ध ग्रंथों का प्रमाण मौर्यों को क्षत्रिय जाति से संबंधित करता है। यहाँ चंद्रगुप्त मोरिय क्षत्रिय वंश का कहा गया है। ये मोरिय कपिलवस्तु के शाक्यों की ही एक शाखा थे। जिस समय कोशल नरेश विड्डभ ने कपिलवस्तु पर आक्रमण किया, शाक्य परिवार के कुछ लोग कोशलनरेश के अत्याचारों से बचने के लिये हिमालय के एक सुरक्षित क्षेत्र में आकर बस गये।

यह स्थान मोरों के लिये प्रसिद्ध था, अतः यहाँ के निवासी मोरिय कहे गये।

मोरिये शब्द मोर से ही निकला है, जिसका अर्थ है – मोरों के प्रदेश का निवासी। एक दूसरी कथा में मोरिय नगर का उल्लेख हुआ है तथा यह बताया गया है कि यह नगर जिन ईटों से निर्मित हुआ था, उनकी बनावट मयूरों के गर्दन के समान थी। अतः नगर के निर्माता मोरिय नाम से प्रसिद्ध हुए।

अनेक बौद्ध ग्रंथ बिना किसी संदेह के चंद्रगुप्त को क्षत्रिय घोषित करते हैं।महाबोधिवंश उसे राजकुल से संबंधित (नरिन्द्रकुलसंभव) बताता है, जो मोरिय नगर में उत्पन्न हुआ था।

महावंश में चंद्रगुप्त, मोरिय नामक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न कहा गया है। महापरिनिब्बानसूत्त में मौर्यों को पिप्पलिवन का शासक तथा क्षत्रिय वंश का कहा गया है। इसके अनुसार बुद्ध की मृत्यु के बाद मोरियों ने कुशीनारा के मल्लों के पास उनके अवशेषों का अंश प्राप्त करने के लिए राजदूत भेजकर अपने क्षत्रिय होने के आधार पर ही दावा किया था। महापरिनिब्बानसूत्त प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ है, अतः इसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाता है।

जैन साहित्य का साक्ष्य

जैन साहित्य में हेमचंद्र का परिशिष्टपर्वन् सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें चंद्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के (मयूर-पोषक ग्रामे) मुखिया की पुत्री का पुत्र बताया गया है। आवश्यक सूत्र की हरिभद्रीया टीका में भी चंद्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिय के कुल में उत्पन्न कहा गया है।

यहां उल्लेखनीय है कि, जैन नंदों को शूद्र बताकर उनकी निंदा करते हैं, जबकि वे मौर्यों की शूद्र-उत्पत्ति का संकेत तक नहीं करते।

इस प्रकार जैन तथा बौद्ध दोनों ही साक्ष्य मौर्यों को मयूर से संबंधित करते हैं। इस मत की पुष्टि अशोक के लौरियानन्दनगढ के स्तंभ के नीचे के भाग में उत्कार्ण मयूर की आकृति से भी हो जाती है। सर्वप्रथम ग्रुनवेडेल महोदय ने यह बताया था कि मयूर मौर्यों का वंशीय चिन्ह था। इसी कारण मौर्य युग की कलाकृतियों में मयूरों का प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है।

मार्शल का विचार है कि साँची के पूर्वी द्वार तथा अन्य भवनों को सजाने के लिए मोरों के चित्र बनाये जाते थे। साँची के विशाल स्तूप में भी मयूरों की कई आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं।

विदेशी लेखकों के साक्ष्य

सिकंदर के उत्तरकालीन यूनानी लेखकों ने चंद्रगुप्त के संबंध में जो विवरण दिये हैं, वे यहाँ विचारणीय हैं। यूनानी लेखक उसे एंड्रोकोटस आदि नामों से जानते हैं। प्लूटार्क के विवरण से पता चलता है, कि जब वह युवक था तभी स्वयं सिकंदर से मिला था। बाद में कहा करता था कि सिकंदर बङी आसानी से संपूर्ण देश को जीत लिया होता क्योंकि तत्कालीन नंद राजा अपने कुल की निम्नता के कारण जनता में अत्यधिक घृणित एवं अप्रिय था।

विदेशी लेखकों का विवरण

इससे निष्कर्ष निकलता है, कि चंद्रगुप्त यदि स्वयं निम्नकुलोत्पन्न होता तो वह नंदों के कुल के विषय में ऐसी बातें नहीं करता। जस्टिन हमें बताता है, कि चंद्रगुप्त यद्यपि सामान्य कुलोत्पन्न था, फिर भी दैवी प्रेरणावश सम्राट बनने का महत्वाकांक्षा रखता था। एक बार साण्ड्रोकोटस की स्पष्टवादिता से सिकंदर अप्रसन्न हो गया और उसने उसे मार डालने का आदेश दिया।

चंद्रगुप्त अपनी सतर्कता से बच निकला। इन विवरणों से मात्र यही निष्कर्ष निकलता है, कि वह राजपरिवार से संबंधित नहीं था।

वर्ण निर्धारण-

इन विविध प्रमाणों की आलोचनात्मक समीक्षा के पश्चात् यह कहा जा सकता है, कि बौद्ध तथा जैन ग्रंथों का प्रमाण ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक संतोषजनक है।

वस्तुतः चंद्रगुप्त मोरिय क्षत्रिय ही था। उसे शूद्र अथवा निम्नजातीय सिद्ध करने के लिए हमारे पास कोई ठोस आधार नहीं हैं। सबसे बङी बात तो यह है कि चंद्रगुप्त का गुरु चाणक्य वर्णाश्रम धर्म का प्रबल पोषक था। जिसके अनुसार क्षत्रिय वर्ण का व्यक्ति ही राजत्व का अधिकारी हो सकता है। अर्थशास्त्र में उसने एक स्थान पर बताया है कि दुर्बल व्यक्ति भी यदि उच्च वर्ण (अभिजात) का हो तो वह निम्न कुलोत्पन्न (अनभिजात) बलवान व्यक्ति की अपेक्षा राजा होने के योग्य होता है।

ऐसे व्यक्ति का वर्ण की श्रेष्ठता के कारण प्रजा स्वतः सम्मान करती है। उसकी आज्ञाओं का पालन करती है। जबकि शूद्रवंशी राजा घृणा का पात्र होता है। इन उद्धरणों से स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है, कि यदि चंद्रगुप्त क्षत्रिय नहीं होता तो चाणक्य नंदों के विनाश के लिये उसे अपना अस्त्र नहीं बनाता। वह एक शूद्र को राजगद्दी पर कदापि नहीं बैठा सकता था। अतः चंद्रगुप्त को क्षत्रिय मानना ही सर्वथा समीचीन लगता है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

Related Articles

error: Content is protected !!