आधुनिक भारतइतिहास

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व की राजनैतिक स्थिति

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व की राजनैतिक स्थिति (Political situation before World War II)

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जो घटनाक्रम चला वह विश्व को दूसरे महायुद्ध की ओर ले गया। बीस वर्षों की शांति के बाद 1 सितंबर, 1939 को युद्ध की अग्नि ने फिर से सारे यूरोप को लपेट लिया। इसमें कोई शंका नहीं है कि युद्ध की संभावनाएँ 1919 के पेरिस-शांति सम्मेलन में ही शुरू हो गयी थी, जब वर्साय की आरोपित एवं अपमानजनक संधि पर जर्मनी के प्रतिनिधियों ने बङी निःसहाय एवं बाध्यता की स्थिति में हस्ताक्षर किए थे। वे इस कलुषित दस्तावेज द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को समाप्त करना अपना पुनीत कर्तव्य समझते रहे।

जर्मनी प्रतिनिधि एर्जबर्गर ने आत्मविश्वास से कहा था साठ मिलियन उत्पीङित देशवासियों का राष्ट्र कभी मर नहीं सकता। इस तथ्य से परिचित होते हुए कि जर्मनी अपने राष्ट्रीय अपमान का बदला अवश्य लेगा, फ्रांस ने जर्मनी के प्रति उचित व्यवहार नहीं किया, अपितु कठोरतापूर्वक क्षतिपूर्ति राशि वसूल करने की नीति भी अपनाई । फ्रांस का दुर्भाग्य रहा कि मित्रों में से अमेरिका शनैः शनैः निःसंगता की नीति की ओर अग्रसर होता गया। इटली शांति संधियों से असंतुष्ट होकर प्रतिपक्ष से जा मिला तथा इंग्लैण्ड यूरोप में, अपने व्यापार का विकास करने और साम्यवाद के विरुद्ध जर्मनी का एक ढाल के रूप में उपयोग करने के लिए जर्मनी को पुनः समृद्ध देखना चाहता था। इससे फ्रांस व इंग्लैण्ड के मध्य कूटनीतिक मतभेद जितने बढते गए, उतना ही जर्मनी को वर्साय संधि की शर्तों में एक पक्षीय उलंघन करने का अवसर मिलता गया।

जापान ने भी शांति संधियों से असंतुष्ट होकर सैन्यवाद द्वारा अपनी प्रसारवादी नीतियों पर कार्य करना आरंभ कर दिया था। 1931 में राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव की अवहेलना कर मंचूरिया पर आक्रमण कर अपना विजय अभियान जारी रखा। फ्रांस एवं मित्र राष्ट्रों द्वारा चीन की सुरक्षा के लिये सामूहिक प्रयास न करना एवं दुर्भाग्यपूर्ण भील थी। प्रत्येक भूल कीमत मांगती है, जबकि बदलते घटनाक्रम, कूटीनीतिक दांव पेच व तुष्टीकरण की सोच से भूल पर भूल होती गई, जिसकी परिणिति द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हुई।

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व की राजनैतिक स्थिति

जर्मनी

प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के पराजित होने से सम्राट केसर विलियम द्वितीय 10 नवम्बर 1918 को सिंहासन त्यागकर हॉलैण्ड चला गया, स्थिति गंभीर हो गयी। बर्लिन में मध्यवर्ग द्वारा क्रांति करके जर्मनी को गणराज्य घोषित कर दिया। समाजवादी नेता फ्रेडरिक एबर्ट ने सामयिक सरकार की स्थापना की। 11 नवम्बर 1918 को एबर्ट ने युद्ध विराम संधि पर हस्ताक्षर करके प्रथम विश्वयुद्ध का अंत किया। वाइमर संघ के नाम से अंतरिम सरकार का गठन किया। वाइमर गणराज्य, जर्मनी के निराश व खिन्न लोगों का दलीय व्यवस्था के प्रति अनुभव न होने, मुद्रा स्फिीति की विस्फोटक स्थिति, उद्योगों में व्यापक अराजकता, मित्र राष्ट्रों द्वारा क्षतिपूर्ति की जबरन बसूली तथा उग्रपंथी, साम्यवादी, राजसत्तावादी, सैन्यवादी व अन्य दक्षिण पक्षीय दलों के विरोध के कारण पूर्णतया असफल रहा।

1929 की विश्वव्यापी मंदी में अर्थ व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया। लाखों श्रमिक बेरोजगार हो गए, उद्योग बंद करने पङे। अमेरिका ने भी रिण देना अस्वीकार कर दिया। इस ऐतिहासिक पृष्ठ धारा में नात्सी क्रांति के साथ हिटलर का अभ्युदय हुआ। राष्ट्रपति को बोल्शेविक संकट का भय दिखाकर 30 जनवरी, 1933 को हिटलर चांसलर बन गया।

2 अगस्त को जनमत संग्रह द्वारा राष्ट्रपति व चांसलर पद को एक करने का निर्णय लेकर हिटलर ने राइक फ्यूहरर के नाम से सर्व सत्ता स्थापित कर ली। हिटलर ने मीन केम्फ (मेरा संघर्ष) पुस्तक की रचना जेल में रहकर की। हिटलर स्वयं ने कहा था जर्मनी के पीङित प्रदेश उग्र विरोध प्रदर्शनों द्वारा पितृ देश में वापस नहीं लाये जा सकते, बल्कि कठोर चोट करने में सक्षम तलवार द्वारा ही लाए जा सकते हैं, अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये हिटलर ने धमकी, धौंस, शांति का आडंबर, संधि भंग और युद्ध आदि तरीकों को अपनाया।

इटली

प्रथम विश्वयुद्ध ने मित्र राष्ट्रों का सहयोग किया। अपनी क्षमता से अधिक धन और सैनिकों का नुकसान उठाया किन्तु इटालियन लोगों को शांति संधि में उतना लाभ प्राप्त नहीं हुआ, जितना कि उन्हें युद्ध पूर्व में वचन दिया गया था। इटली की आंतरिक स्थिति डावॉंडोल हो गयी। उत्पादन अवरुद्ध हो गया, बेरोजगारी बढ गयी, आर्थिक स्थिति सोचनीय हो गयी। रोम व वेनिस के वैभव बीते जमानें की बातें हो गयी थी। इटली के प्राचीन गौरव के सपने देखने वाले युवाओं को फासिस्टवादी मुसोलिनी के राष्ट्रवादी व लच्छेदार भाषणों ने आकर्षित किया। परिणाम स्वरूप फासिस्टवाद का जन्म हुआ। मुसोलिनी का कहना था, इटली का विस्तार उसके जीवन और मृत्यु का प्रश्न है। इटली का विस्तार होना चाहिए नहीं तो उसका विनाश हो जायेगा। उसके दो प्रमुख उद्देश्य थे। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इटली को सम्मानित स्थान दिलाना और अफ्रीका व भूमध्य सागर में इटली का साम्राज्य स्थापित करना। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये मुसोलिनी ने आक्रामक विदेश नीति का अनुसरण किया।

फ्रांस

इतिहासकार लैंगसम लिखते हैं – “युद्ध की समाप्ति से बहुत पहले ही फ्रांस ने एक अन्य जर्मनी आक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा के उपायों की खोज प्रारंभ कर दी थी।” इ.एच.कार ने ठीक ही लिखा है कि “सन 1919 के बाद यूरोपीय घटनाक्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण तथा स्थायी तथ्य फ्रांस द्वारा सुरक्षा की मांग थी।”

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मित्र राष्ट्रों द्वारा जर्मनी के साथ किए गए। व्यवहार से फ्रांस आशंकित था, कि जर्मनी इस अपमान व अन्याय का बदला अवश्य लेगा। इसलिए विजेता राष्ट्रों की पंक्ति में खङा होने के बाद भी फ्रांस अपनी भावी सुरक्षा के लिए अत्यधिक चिंतित था। अतः राष्ट्रसंघ एवं मैत्री संधियों के माध्यम से ध्येय प्राप्ति के लिये प्रयास किए।

मैत्री संधियाँ

फ्रांस ने उन छोटे राज्यों, जो वर्साय व्यवस्था को कायम रखना चाहते थे, से मैत्री संधियाँ करके जर्मनी की घेराबंदी करने की नीति का आश्रय लिया।

बेल्जियम के साथ संधि

7 सितंबर, 1920 को बेल्जियम के साथ सैनिक संधि की गयी। इसके तहत दोनों देशों ने जर्मनी आक्रमण के विरुद्ध एक दूसरे को सैनिक सहायता देने का आश्वासन दिया । इस संधि से पश्चिम में फ्रांस की सीमा सुरक्षित हो गयी।

पौलेण्ड के साथ संधि

फ्रांस के पूर्व में पौलैण्ड जनसंख्या व क्षेत्रफल की दृष्टि से बङा राज्य था। 18 फरवरी, 1921 को युद्ध में एक दूसरे का साथ देने की मुख्य शर्त पर 10 वर्ष के लिये मैत्री संधि दोनों देशों में सम्पन्न हुई। 1932 में 10 वर्ष के लिये पुनः बढाया गया। इसी संधि के कारण ही फ्रांस जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में कूदा।

लघु मैत्री संघ के समझौते

2 जुलाई, 1921 को लघु मैत्री संघ की स्थापना की गयी। इसके सदस्य चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया और यूगोस्लाविया थे। फ्रांस ने 1924 में चोकोस्लोवाकिया के साथ 1926 में रूमानिया के साथ, 1927 में यूगोस्लाविया के साथ अलग-अलग समझौते किए। इन संधियों द्वारा फ्रांस को तीनों राज्यों का समर्थन मिल गया, जो वर्साय की व्यवस्था को यथास्थिति बनाये रखने के लिये वचनबद्ध थे।

जापान

पेरिस शांति सम्मेलन में अमेरिका के विरोध के बाद भी चीन का शान्टुंग प्रदेश जो पहले जर्मनी के पास था, प्रशांत महासागर में स्थित उपनिवेश के साथ मेण्डेट प्रथा के अन्तर्गत जापान को प्राप्त हो गए। फिर भी अन्य मांगें स्वीकार न करने पर इटली की भांति जापान में भी यह भावना व्याप्त हो गयी कि उसने युद्ध में जो कुछ जीता था वह संधि में खो दिया।

वाशिंगटन सम्मेलन

12 नवंबर, 1921 को नौ सैनिक शक्ति में कटौती एवं निःशस्त्रीकरण हेतु जापान संयुक्तराष्ट्रसंघ, ब्रिटेन, इटली और फ्रांस के बीच पंच राष्ट्रीय समझौता हुआ, जिसमें इटली व फ्रांस का टौती अनुपात तुलनात्मक रूप से कम रखकर असंतोष की स्थिति पैदा कर दी।

तनाका स्मरण पत्र

1927 में बैरन जनरल तनाका जापान के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने कूटनीतिक कार्यवाही तथा शक्ति प्रयोग पर आधारित नीति अपनाई। जुलाई, 1927 में प्रधानमंत्री ने सेनाध्यक्षों एवं वित्त-विशेषज्ञों की बैठक बुलाकर अपनी सैन्यवाद व राष्ट्रवाद की विचारधारा का समावेश कर तनाका स्मरण पत्र तैयाकर कर, 25 जुलाई, 1927 को सम्राट के सम्मुख प्रस्तुत किया। इस पत्र को जापान व मुनरो सिद्धांत भी कहा जाता है।

मंचूरिया काण्ड

तनाका स्मरण पत्र में अपनी विस्तारवादी सोच को उजागर करते हुए उल्लेख किया गया था कि चीन पर अधिकार करने से पूर्व हमें मंचूरिया और मंगोलिया जीत लेना चाहिये। इसका प्रमुख कारण बढती जनसंख्या को बसाना व मंचूरिया की खनिज सम्पदा पर अधिकार। 18 सितंबर, 1931 को रात्रि में मुकदन नगर के समीप हुए बम विस्फोट की आङ में 19 सितंबर को मंचूरिया में सैनिक कार्यवाही आरंभ कर दी।

3 जनवरी, 1932 तक संपूर्ण मंचूरिया पर अधिकार कर लिया। 19 फरवरी, 1932 को मांचूको नामक कठपुतली सरकार की स्थापना कर दी। 20 मार्च, 1933 को राष्ट्रसंघ का त्याग कर दिया। ई.एच.कार के अनुसार जापान द्वारा मंचूरिया विजय प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सीमा उल्लंघन की घटना थी। 18 अप्रैल, 1934 को जापान प्रवक्ता अमाओं ने वक्तव्य जारी कर बाहरी शक्तियों द्वारा चीन को दी जाने वाली सैनिक सहायता का विरोध किया गया। यह वक्तव्य तनाका स्मरण पत्र का पूरक था।

एन्टीकोमिन्टर्न पेक्ट

रूस द्वारा चीन को सहयोग किए जाने के विरोध में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये जापान ने 25 नवम्बर, 1936 को एन्टीकोमिन्टर्न पेक्ट पर हस्ताक्षर कर, जर्मनी के साथ संधि कर ली। 6 नवम्बर, 1937 में इटली के भी इस पेक्ट में शामिल हो जाने से रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी का निर्माण हो गया। 1937 में उत्साहित होकर जापान ने पुनः चीन पर आक्रमण कर दिया। युद्ध का अंत भी नहीं हुआ था, कि 1 सितंबर, 1939 को दूसरा विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। इस बार जापान ने धुरी राष्ट्रों का साथ दिया।

इंग्लैण्ड

दो विश्वयुद्धों के मध्य ब्रिटेन की विदेश नीति के प्रमुख आधार निम्नलिखित थे-

(i )अलगाववादी नीति का युग (1919 से 1930 तक)

(ii)तुष्टिकरण की नीति का युग (1930 से 1939 तक)

लायडजार्ज ने 1922 तक, अनुदार दल के नेता बोनरला तथा वाल्डविंन 1922 से 1929 तक, मेकडॉनाल्ड की मजदूरदलीय सरकारों ने 1930 तक अलगाववाद को जारी रखा।

1931 से 1939 तक मेकडॉनाल्ड (1931-1935), वाल्डविन (1935-1937), तथा चेम्बरलेन (1937-1940), तुष्टिकरण की नीति का अनुसरण किया जो द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बना।

ब्रिटेन द्वारा तुष्टिकरण की नीति का नीति का पालन करने के निम्न कारण थे-

  • साम्यवाद का भय
  • शक्ति संतुलन को बनाए रखना
  • ब्रिटिश-फ्रेंच मतभेद
  • ब्रिटेन की आंतरिक एवं आर्थिक कठिनाईयाँ

ब्रिटिश नेताओं के देल में युद्ध का अदृश्य खौफ था। अतः युद्ध से हरसंभव बचने का उपाय करने के लिये मेकडॉनल्ड वाल्डवीन तथा चेम्बरलेन ने तुष्टिकरण को हथियार के रूप में प्रयोग किया। चेम्बरवेल का विश्वास था कि, यदि बिना रक्त की बूँद बहाए, आपसी विवादों का हल ढूँढने के लिये ऊँची कीमत भी चुकानी पङे तो भी विश्व शांति और मानव कल्याण के लिये यह मार्ग उत्तम रहेगा। चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग व म्युनिख समझौता तुष्टिकरण नीति की चरम स्थिति थी। आखिरकार 1 सितंबर, 1939 को दूसरे विश्वयुद्ध में मजबूरन ब्रिटेन को सम्मिलित होना ही पङा।

शूमेन लिखते हैं कि “यह नीति आरंभ से ही एक आत्मघाती मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं थी इसे किसी प्रकार से भी सही नहीं ठहराया जा सकता था।”

सोवियत संघ

1917 में बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस की बागडोर लेनिन (1917-1924) और स्टालिन (1924-1953) के हाथ में रही। विदेश नीति की दृष्टि से रूस की राजनीतिक स्थिति को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-

प्रथम अवस्था(1917-1921)

इस अवस्था में मुख्य उद्देश्य पश्चिमी राष्ट्रों का विरोध तथा साम्यवादी, क्रांति को विश्व में फैलाना। उद्देश्य प्राप्ते हेतु लेनिन द्वारा किए गए प्रमुख कार्य –

  • पूँजीवादी व्यवस्था का अंत करना।
  • रूस को प्रथम विश्वयुद्ध से अलग करना इस निमित उसने जर्मनी के साथ 15 दिसंबर, 1917 को संधि की।
  • विदेशी ऋणों को चुकाने से इंकार और पश्चिम देशों के साथ संबंध विच्छेद
  • पराधीन जातियों को स्वतंत्र कर दिया फलस्वरूप फिनलैण्ड, लैटिविया, स्टोनिया व लिथुआनिया नये राज्य बने।
  • थर्ड-इन्टरनेशनल मार्च, 1919 में साम्यवादियों का एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित
  • विश्व क्रांति को मूर्त रूप देने के लिये तृतीय कार्मिटर्न नामक संस्था की स्थापना की, जिसका मुख्यालय मास्को में रखा गया। 30 देशों के प्रतिनिधि सदस्य थे।

द्वितीय अवस्था (1921-1934)

यह संधि एवं समझौतों का काल था। आत्मसुरक्षा की दृष्टि से विभिन्न देशों के साथ अनाक्रमण संधियाँ व 1932 में संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ व्यापारिक संधि सम्पन्न की गयी तथा अमेरिका ने रूस की साम्यवादी सरकार को मान्यता प्रदान कर दी। इस काल में साम्यवादी क्रांति फैलाने का कार्यक्रम भी वहाँ रखा।

तृतीय अवस्था (1934-1938)

इस काल में यूरोप में अधिनायक वाद के प्रसार से भयभीत सोवियत संघ ने मित्र राष्ट्रों से अनाक्रमण व सहयोगात्मक समझौते किए, राष्ट्रसंघ का 1934 में सदस्य बना तथा अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। 1935 में अबीसीनिया पर आक्रमण तथा 1936 में स्पेन गृहयुद्ध में धुरी राष्ट्रों के हस्तक्षेप का रूस ने कङा विरोध किया।

चतुर्थ अवस्था (1938-1939)

इस काल में सोवियत संघ पश्चिमी देशों से पृथक ही रहा। 23 अगस्त 1939 को रूस व जर्मनी के बीच अनाक्रमण संधि हुई, जिसमें निश्चय किया कि दोनों में से कोई भी एक दूसरे पर अकेले अथवा सामूहिक रूप से आक्रमण नहीं करेगा। यह स्टालिन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। वर्ड इन्टरनेशनल या कोमिंग्टर्न में 60 से अधिक देशों में साम्यवादी दल संगठित हो चुके थे। संयुक्त राज्य अमेरिका में यह लाल आतंक के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

संयुक्त राज्य अमेरिका

1920 से 1939 के काल को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।

  • 1.) पृथकतावादी नीति को पुनः लागू करना।(1920-1932)
  • 2.) रूजवेल्ट द्वारा पृथकतावाद से अन्तर्राष्ट्रीयवाद की ओर (1933-1939)

संयुक्त राज्य अमेरिका में 1920-1932 तक बारह वर्ष रिपब्लिकन दल का शासन रहा, जिन्होंने विदेश नीति के क्षेत्र में पृथकतावाद को अपनाया। इस बात की पुष्टि 2 नवम्बर, 1920 को राष्ट्रपति हॉर्डिग के संसद को भेजे पत्र से होती है कि राष्ट्रसंघ से हमारा कोई संबंध नहीं है और हमारा उद्देश्य उलझनें का नहीं है परंतु मित्र राष्ट्रों से आत्मीयता बनी रही पंचराष्ट्रों में भाग लेता रहा।

रूजवेल्ट (1933-1945)

4 मार्च, 1933 को फ्रेंकलिन डिलानो रूजवेल्ट के राष्ट्रपति बनने के साथ ही विदेश नीति अंर्तराष्ट्रयतावाद की ओर अग्रसर होने लगी। रूडवेल्ट ने जनता से कहा लुटेरे राज्यों ने आतंक का राज्य स्थापित कर लिया है। इसके आक्रमणों को तटस्थता से रोका नहीं जा सकता है। अंततोगत्वा वे संयुक्त राज्य अमेरिका को चुनौती देगें।

आरंभ में पृथकतावादियों ने इस नीति का विरोध किया परंतु जब 7 दिसंबर, 1941 को जापान ने अमेरिका के हवाईद्वीप बंदरगाह पर्लहार्बर पर आक्रमण कर जबरदस्त क्षति पहुँचाई तो अमेरिका मित्र राष्ट्रों की ओर से द्वितीय विश्वयुद्ध में सम्मिलित हो गया। 8 दिसंबर, को सीनेट ने भी इसका अनुमोदन कर दिया।

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