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गयासुद्दीन तुगलक के अभियान क्या थे?

गयासुद्दीन तुगलक के अभियान – तेलंगाना में रायप्रताप रुद्र देव ने भेंट देने से इन्कार कर दिया तथा अपने आप को दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र घोषित कर दिया। सुल्तान ने अपने लङके जौना खाँ को एक विशाल सेना देकर वारंगल की ओर भेजा। वारंगल दुर्ग को करीब 6 महीने तक घेरे रखा गया। तिलंगों की रसद पंक्ति काट दी गयी। किंतु इसी समय गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु की अफवाह फैल गयी। अफसरों ने साँठ-गाँठ शुरू कर दी। परिणामस्वरूप जौना खाँ विजय प्राप्त करने से पहले ही वापस देवगिरी लौट गया। अफवाहों को निराधार पाने पर दोषी लोगों को सजा दी गयी तथा एक बार फिर दक्षिण के विरुद्ध जौना खाँ के अधीन एक अभियान भेजा गया। वारंगल दुर्ग के साथ-साथ दूसरे किले भी जीते गए हिंदू अफसरों को नहीं हटाया गया और न ही धार्मिक स्थानों को हानि पहुँचाई गई। यह अवश्य हुआ कि सारे वारंगल क्षेत्र को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँट दिया गया।

तेलंगाना के बाद जाज नगर (उङीसा) में सैनिक अभियान भेजा गया क्योंकि यहाँ के राजा को वारंगल का साथ दिया था। राजामुंदरी के एक अभिलेख (रमजान 724, सितंबर 1324 ई.) में उलुग खाँ (जौना खाँ) की विजय का उल्लेख मिलता है जिसमें उसे दुनिया का खान कहा गया है। ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि इसके बाद गुजरात में विद्रोह को दबाया गया। सुल्तान गयासुद्दीन का अंतिम सैनिक अभियान बंगाल में गङबङी को समाप्त करना था। बलबन के लङके बुगरा खाँ ने बंगाल को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष होता रहा। बरनी के अनुसार बंगाल के कुछ अमीर सुल्तान के पास प्रार्थना लेकर आए कि वह बंगाल के शासक के अत्याचार को समाप्त करें जिसे गयासुद्दीन ने सहर्ष स्वीकार कर लिया तथा बंगाल को सल्तनत के कङे नियंत्रण में लाने के लिये दिल्ली में मजलिस-ए-हुक्मरान कायम करके पूर्व की ओर चल पङा। उसने तिरहुत के रास्ते लखनौती पहुँचकर बंगाल के शासक को पराजित किया। नसीरुद्दीन को लखनौती का पेशकशी (भेंटकर्ता) शासक बनाया गया जब कि सतगाँव व सोनार गाँव अमीर तातार खाँ के नियंत्रण में रखे गए। सिक्कों पर गयासुद्दीन तुगलक तथा नए सुल्तान नसीरुद्दीन के नाम लिखाए गये।

बंगाल से लौटने पर स्वयं उसके द्वारा निर्मित नई राजधानी तुगलकाबाद से आठ किलोमीटर की दूरी पर अफगानपुर में उसके लङके जौना खाँ ने स्वागत की तैयारी की थी। स्वागत समारोह के लिये निर्मित लकङी का एक भवन गिरने से फरवरी-मार्च 1325 में सुल्तान गयासुद्दीन की मृत्यु हो गयी। तुगलकाबाद में उसने अपने लिए जो कब्र बनवाई थी उसी में उसे दफना दिया गया।

सुल्तान की मृत्यु का कारण इतिहासकारों में एक विवादस्पद प्रश्न रहा है। समकालीन ऐतिहासिक सामग्री को पढकर यह संदेह किया जाने लगा कि हो सकता है, कि जौना खाँ ने जानबूझकर भवन का निर्माण अपने बाप को मारने के लिए किया हो। बरनी इस भवन के गिरने का कारण बिजली का गिरना बताता है जब कि यहया बिन अहमद सरहिंदी लिखता है कि भवन दैवी प्रकोप से गिर गया। मलफूजान (सूफी साहित्य) के अनुसार गयासुद्दीन की मृत्यु का कारण सुल्तान द्वारा शेष निजामुद्दीन औलिया को परेशान करना था। इब्न बतूता तथा इसामी इसे जौना खाँ का षङयंत्र मानते हैं तथा बाद में निजामुद्दीन, अबुलफजल तथा बदायूनी जैसे लेखकों ने इन्हीं का अनुकरण करके जौना खाँ को बाप का हत्यारा करार दे दिया है। यद्यपि जिन परिस्थितियों में मृत्यु हुई उससे संदेह होना स्वाभाविक है तथापि इसे हत्या कहने का कोई ठोस प्रमाण हमारे सामने नहीं है क्योंकि मुहम्मद तुगलक गद्दी पर बैठा तो उसके अपने परिवार में किसी प्रकार का विरोध नहीं हुआ। उसका अपनी माँ के प्रति प्यार तथा आदर बना रहा। मुहम्मद तुगलक का सदैव परिवार के प्रति स्नेह इस बात का प्रतीक है कि शायद ऐसे षङयंत्र में उसका हाथ न रहा हो।

मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के इतिहास के अध्ययन के लिये समकालीन फारसी ग्रंथों के अलावा दो नए स्त्रोत प्राप्त हुए हैं। अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता को, जो लगभग 1333 ई. में भारत आया था और जिसका सुल्तान ने खूब स्वागत किया, दिल्ली का काजी नियुक्त किया गया तथा 1342 ई. में वह सुल्तान के राजदूत की हैसियत से चीन भेजा गया। इस यात्री ने मुहम्मद तुगलुक के समय की घटनाओं का अपनी पुस्तक रेहला में उल्लेख किया है। अरबी, मूल ग्रंथ मसालिक-उल-अबसार फी ममालिक-उ-अमसार में उस समय भारत से होकर मिस्र में पहुँचे कुछ यात्रियों का विवरण है। फरवरी-मार्च 1325 ई. में सुल्तान गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका लङका शहजादा जौना खाँ मुहम्मद तुगलक की उपाधि से दिल्ली का सुल्तान बना। प्रत्येक नए सुल्तान की तरह उसने भी लोगों में सोने-चाँदी के सिक्के बाँटे। अमीरों में उपाधियों का वितरण किया तथा परंपरा के अनुसार ऊँचे पदों पर नियुक्तियाँ की गयी। अपने चचेरे भाई मलिक फिरोज को नायब बरबक, मलिक बयजाद खलजी को कादर खाँ की उपाधि और लखनौती को वली तथा मलिक अय्याज को ख्वाजा महान की उपाधि देकर उसे भवनों का निरीक्षक (शहना-ए-इमारत) बनाया गया। इसी प्रकार कमालुद्दीन को सदर-ए-जहाँ की उपाधि तथा पद दिया गया।

मुहम्मद तुगलक दिल्ली के सभी सुल्तानों से अधिक योग्य, तीक्ष्ण बुद्धि वाला, कलाप्रेमी तथा अनभवी सेनापति था। किंतु इन गुणों के होते हुए भी वह इतिहास में सबसे अधिक विवादास्पद व्यक्ति रहा है। उनका नाम कई संज्ञाओं से जोङा गया है। अंतर्विरोधों का विस्मयकारी मिश्रण अर्थात् क्या वह अपूर्व प्रतिभाशाली था अथवा पागल? आदर्शवादी अथवा स्वप्नशील? रक्त का प्यासा अथवा परोपकारी? धार्मिक मुसलमान अथवा अधर्मी एवं अविश्वासी ? समकालीन इतिहासकारों ने मुहम्मद तुगलक के असाधारण व्यक्तित्व की सराहना की है किंतु उसके कार्यों की निंदा। बरनी, सरहिंदी, निजामुद्दीन, बदायूनी और फरिश्ता ने सुल्तान को अधर्मी घोषित किया है। इन इतिहासकारों ने उस पर सूफियों तथा विद्वान पुरुषों को यातनाएँ देने के आरोप लगाए हैं। निस्संदेह सुल्तान ने अपनी विद्वत्ता से प्रेरित होकर प्रशासन, राजनीति तथा धार्मिक प्रश्न पर कुछ नए प्रयोग किए थे जिन्हें समझने में उसकी अफसरशाही तथा धार्मिक वर्ग असमर्थ रहे। कुछ योजनाएँ पूरी तरह कार्यान्वित न हो सकी तथा निराशा में त्याग दी गयी। धार्मिक तबका नाराज हो गया। अमीर उसके विरुद्ध हो गए। लगातार विद्रोह होते रहे और सुल्तान इन्हीं विद्रोहों में व्यस्त रहते हुए सन 1351 में मृत्यु को प्राप्त हो गया।

मुहम्मद तुगलक को राजगद्दी पर बैठते ही विशाल साम्राज्य तथा भरपूर खजाना मिला। इब्न बतूता के अनुसार गयासुद्दीन तुगलक ने तुगलाकाबाद के महल में असीम सोना-चाँदी छोङा था। कश्मीर तथा आधुनिक बलूचिस्तान को छोङकर लगभग सारा हिंदुस्तान दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में था। उत्तर पूर्व में हिमालय तक, उत्तर पश्चिम में सिंध तक, पूर्व तथा पश्चिम में दोनों समुद्रों तक तथा दक्षिण में मालाबार तथा माबर का प्रदेश सल्तनत के प्रभाव को मानता था। बरनी के अनुसार सारा साम्राज्य बारह मुख्य भागों में बँटा हुआ था। इब्न बतूता उस समय के कुछ शहरों के नाम का उल्लेख करता है जो दिल्ली सल्तनत में थे, जैसे मुल्तान, दिल्ली, बयाना, कोल (अलीगढ), दौलताबाद, कमलपुर, बदरकोट, कोंकण, थाना, लखनऊ, बहराइच, ग्वालियर, केंबे (खम्भायत), सागर, वारंगल इत्यादि। कुल मिलाकर तुगलक साम्राज्य तेईस मुक्तों (प्रांतों) में बँट गया था जिसमें दिल्ली, देवगिरी, लाहौर, मुल्तान, सरसुती (सिरासा), गुजरात, अवध, कन्नौज, लखनौती, बिहार, मालवा, जाजनगर (उङीसा), द्वारसमुद्र इत्यादि शामिल थे। आवागमन के साधनों की कमी में इतने विशाल साम्राज्य का नियंत्रण करना कोई सुगम कार्य नहीं था। यही कारण है कि मुहम्मद तुगलक का शासनकाल मध्ययुग के इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग माना जाता है। अपनी सुविधा के लिये हम इस शासनकाल को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं – 1.) 1325 से 1335 तक, जब मुहम्मद तुगलक नए-नए प्रयोग करता रहा तथा प्रायः शांति बनी रही। 2.) 1335 से 1351 तक, जब उसकी नई योजनाएँ तथा प्रयोग असफल दिखाी देने लगे, समस्याएँ बढने लगी और अमीर तथा धर्माचार्य उसके विरुद्ध हो गए।

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