राजपूत राज्यों के साथ कुम्भा के संबंध
राजपूत राज्यों के साथ कुम्भा के संबंध –
महाराणा लाखा का वृद्धावस्था में हंसाबाई के साथ विवाह करना और लाखा के बङे पुत्र चूण्डा द्वारा मेवाङ के सिंहासन पर अपने उत्तराधिकार का त्याग करना, राजस्थान के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इससे मारवाङ के राठौङों तथा मेवाङ के सिसोदिया के मध्य अनायास ही प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गयी जो बाद में खूनी संघर्ष में परिवर्तित हो गई। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप सिसोदियाओं को राघवदेव से और राठौङों को अपने नेता रणमल से हाथ छोना पङा।

1438 ई. में सिसोदिया सरदारों ने षडयंत्र रचकर रणमल की हत्या कर दी। उसकी मृत्यु के बाद कुम्भा का ताऊ चूण्डा महाराणा का मुख्य सलाहकार बन गया। चूण्डा राठौङों से प्रतिशोध लेना चाहता था। अतः मेवाङ राज्य की सत्ता हाथ में आते ही उसने राठौङों के राज्य मारवाङ को अधिकृत करने का निश्चय कर लिया क्योंकि इस समय अवसर अनुकूल था। राणा मोकल की मृत्यु के बाद कुम्भा की सहायता के लिये पिछले तीन वर्षों से रणमल अपनी श्रेष्ठ सेना तथा विश्वस्त सरदारों के साथ मेवाङ में ही ठहरा हुआ था और उसकी हत्या के समय बहुत से सरदारों एवं सैनिकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया था। इस समय मारवाङ नेताविहीन था और नेताविहीन राज्य पर अधिकार करना बहुत सरल काम था। अतः चूण्डा ने सेना सहित मारवाङ पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी मंडौर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद मारवाङ के अन्य प्रसिद्ध नगरों पर भी मेवाङ का अधिकार हो गया। विजयी चूण्डा मारवाङ का शासन प्रबंध अपने पुत्रों – कुन्तल, मांजा, सूवा तथा झाला विक्रमादित्य एवं हिंगलू आहङा आदि सरदारों को सौंपकर खुद मेवाङ वापस लौट आया।
रणमल की हत्या के समय उसका लङका जोधा अपने कुछ भाइयों एवं सरदारों के साथ प्राण बचाकर चित्तौङ से भागने में सफल रहा। चूण्डा जानता था कि यदि जोधा मारवाङ में बना रहा तो राठौङों को अपनी शक्ति संगठित करने का अवसर मिल जायेगा। अतः भागते हुये जोधा और उसके भाइयों का पीछा किया गया और उन्हें मारवाङ की सीमा से काफी दूर खदेङ दिया गया। जोधा ने बीकानेर से दस कोस दूर स्थित काहुनी गाँव में जाकर आश्रय लिया। यहाँ रहते हुए जोधा ने अपनी शक्ति को संगठित करने का प्रयास किया और कई बार मंडौर लेने का प्रयत्न किया परंतु उसे हर बार विफलता ही मिली। इसमें कोई संदेह नहीं कि मेवाङी अभियानों तथा महाराणा कुम्भा के प्रति निष्ठावान कुछ राठौङ सरदारों के कारण जोधा की स्थिति काफी संकटप्रद हो गयी थी, परंतु वह हिम्मत हारने वाला व्यक्ति नहीं था। लगभग 15 वर्षों तक इधर-उधर भटकने के बाद उसने कूटनीति का सहारा लिया और उसने राणा कुम्भा के सरदारों को फोङना आरंभ किया। ऐसे सरदारों में हरबू सांखला सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ। हरबू सांखला के सहयोग से जोधा की स्थिति में सुधार आता गया। उसने नये अश्व खरीदे और चौहान तथा भाटी सरदारों के सहयोग से एक नई सेना संगठित करके कुम्भा को चुनौती देने के लिये तैयार हो गया।
जिस समय कुम्भा मालवा और गुजरात के सुल्तानों के साथ संघर्ष में अत्यधिक व्यस्त था, जोधा ने मारवाङ के विभिन्न क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया। 1453-54ई. में उसने अपनी पैतृक राजधानी मंडौर पर अचानक धावा मारकर अपना अधिकार जमा लिया। जोधा के विरुद्ध दीर्घकालीन संघर्ष में मेवाङ के कई प्रमुख सरदार – भाटी बणवीर, राणा बीसलदेव, रावल दूदा आदि मारे गये। मंडौर में नियुक्त अधिकांश सिसोदिया सैनिकों को मौत के घाट उतार कर राठौहों ने अपना पुराना हिसाब चुकता कर दिया। थोङे ही दिनों में जोधा ने अपने पैतृक राज्य का अधिकांश भाग अपने अधिकार में ले लिया। कुम्भा ने उसके विरुद्ध बार-बार सैनिक अभियान भेजे परंतु उन्हें हर बार विफल होकर वापिस लौटना पङा। मेवाङी सेनानायक जोधा को पराजित करने अथवा उसके द्वारा अधिकृत क्षेत्रों को वापस लेने में असमर्थ रहे। उल्टे जोधा ने मेवाङ के गौडवार क्षेत्र में धावे मारने शुरू कर दिये थे जिससे मेवाङ को काफी क्षति उठानी पङ रही थी। मालवा और गुजरात का दबाव कम होते ही राणा कुम्भा ने पूरी तैयारी के साथ जोधा के विरुद्ध प्रस्थान किया। पाली नगर के निकट दोनों पक्ष आमने-सामने आ गये। मेवाङ और मारवाङ की ख्यातों के पक्षपातपूर्ण विवरणों को छोङते हुये हम कह सकते हैं कि इस अवसर पर कुम्भा और जोधा दोनों ने ही व्यावहारिक कूटनीति एवं बुद्धिमता का परिचय देते हुये पुरानी शत्रुता को समाप्त कर मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये। मेवाङ और मारवाङ की सीमाएँ निश्चित कर दी गयी। इस अवसर पर जोधा ने अपनी लङकी श्रृंगार देवी का विवाह कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमल के साथ करके मैत्रीपूर्ण संबंधों को और अधिक सुदृढ बना दिया।
सिसोदिया-राठौङ संघर्ष के संबंध में मेवाङी ख्यातकारों एवं मेवाङ के आधुनिक इतिहासकारों ने अत्यधिक पक्षपातपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया है, जो किसी भी दृष्टि से मान्य नहीं हो सकता। उनके अनुसार कुम्भा की दादी हंसाबाई ने कुम्भा से अनुरोध किया था कि मेवाङ में उनकी शादी होने के कारण जोधा को भयंकर कठिनाइयाँ उठानी पङ रही हैं, अन्यथा राठौङों ने उसको किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचाई है। अतः जोधा के संबंध में उसे अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिये। इस पर कुम्भा ने कहा कि यदि जोधा मंडौर लेने में सफल रहा तो वह जोधा के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करेगा। कुम्भा का यह आश्वासन हंसाबाई ने जोधा के पास भिजवा दिया और तब जोधा ने मंडौर पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार के विवरण सत्य से काफी दूर हैं। डॉ. दशरथ शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि विशुद्ध राजनीतिक मामलों में इस प्रकार के अनुरोधों का कोई महत्त्व नहीं होता। जोधा और कुम्भा की सेनाओं के मध्य लङे जाने वाले निरंतर युद्ध इस प्रकार की मान्यता का अपने आप खंडन करते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि जोधा द्वारा मंडौर पर अधिकार कर लेने के बाद स्वयं कुम्भा ने सेना सहित जोधा के विरुद्ध प्रस्थान किया था। वास्तविक सत्य यह है कि जोधा के प्रत्याक्रमणों तथा दूसरी तरफ मालवा और गुजरात के नियमित आक्रमणों ने कुम्भा को अनुभव करा दिया कि जोधा के समय समझौता कर लेने में ही राजपूतों का कल्याण है।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

Online References wikipedia : कुम्भा