इतिहासराजस्थान का इतिहास

कुम्भलगढ का दुर्ग

कुम्भलगढ का दुर्ग – उदयपुर से लगभग 60 मील दूर सादङी ग्राम के पास, मेवाङ और मारवाङ की सीमा पर कुम्भलगढ का दुर्ग स्थित है। इस दुर्ग को महाराणा कुम्भा ने सूत्रधार मंडन नामक शिल्पी के तत्त्वाधान में बनाया था। गिरि दुर्ग होने के कारण इसे कुम्भलमेरु या कुम्भलमेर भी कहते हैं।

चारों ओर से पहाङियों एवं घाटियों से घिरा होने तथा मेवाङ और मारवाङ की सीमा पर स्थित होने के कारण इसका सामरिक महत्त्व भी अधिक था। शत्रु के आक्रमण के समय मेवाङ का राजपरिवार, प्रजा तथा राजकीय संपत्ति ने इसी दुर्ग में सुरक्षा प्राप्त की थी। महाराणा कुम्भा ने इसका निर्माण कार्य वि.सं. 1495 से वि.सं. 1505 के मध्य कभी करवाया था और यह चैत्र शुक्ला 13, वि.सं. 1515 में पूरी तरह बनकर तैयार हुआ था।

कुम्भलगढ का दुर्ग

केलवाङा ग्राम के पश्चिम की ओर कुम्भलगढ जाने पर सबसे पहले ओरेटपोल आती है, जो दुर्ग का प्रथम द्वार है। इस पोल से लगभग एक मील हल्ला पोल है, जो सुरक्षित दुर्ग के लिये एक प्रकार से रुकावट का द्वार है। दूसरे द्वार से आगे बढने पर हनुमानपोल आती है, जो दुर्ग का मुख्य द्वार माना जाता है।

इससे आगे बढने पर विजयपोल और रामपोल आती है। यहाँ से दुर्ग का भीतरी भाग शुरू होता है। यहाँ से दुर्ग के चारों ओर सुदृढ प्राचीरें दिखाई देती हैं, जिसके फलस्वरूप दुर्ग में प्रविष्ट होने का मार्ग, इन द्वारों के अलावा और कहीं से भी संभव नहीं है। यहाँ से दुर्ग की ऊँची और मजबूत दीवार शुरू हो जाती है, जिस पर किसी साधन से चढना संभव नहीं है।

सुदृढ बुर्जों से युक्त दीवार की चौङाई इतनी है कि इस पर तीन चार घुङसवार और गणेशपोल आती है। गणेशपोल के आगे दुर्ग का चौरस भाग आता है, जहाँ हमें स्थापत्य कला के कुछ नमूने जीर्ण-शीर्ण अवस्था में दिखाई देते हैं।

दुर्ग के इस चौरस भाग में स्थित नीलकंठ महादेव का मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यह मंदिर नागर शैली का है। यह चारों ओर बरामदों से घिरा हुआ है। इस मंदिर में एक देव प्रतिमा स्थित है, जिसके बारह हाथ हैं। श्री रतनचंद्र अग्रवाल इसे विष्णु की प्रतिमा बताते हैं। दुर्ग की सबसे उल्लेखनीय यज्ञवेदी है। दुर्ग की प्रतिष्ठा का यज्ञ इसी वेदी पर हुआ था।

दूर से यह तीन मंजिल का भवन दिखाी देता है, किन्तु वास्तव में दुमंजली इमारत है। इसके ऊँचे गुम्बज के नीचे के भाग में धुआँ निकलने के लिये चारों भाग खुले हुए हैं। यज्ञवेदी के चारों ओर यज्ञ कराने वाले पंडितों तथा दर्शकों के बैठने की भी व्यवस्था की गयी है। आजकल सरकार ने इसका रूपान्तर डाक-बँगले के रूप में कर दिया है।

दुर्ग के नीचे वाले भाग में जलाशय, खेत और कुएँ बने हुए हैं ताकि युद्धकालीन स्थिति में दुर्ग में खाद्य सामग्री का अभाव न रहे। इसी भाग में मामादेव का कुण्ड भी बना हुआ है और कुण्ड के पास महाराणा कुम्भा ने कुम्भस्वामी का विष्णु मंदिर बनवाया था। मंदिर के स्तंभों एवं दीवारों पर किसी प्रकार की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण नहीं हैं।

मंदिर के मध्यवर्ती भाग में एक लघुवेदी है। इस मंदिर के पास ही कुँवर पृथ्वीराज का छतरीनुमा स्मारक बना हुआ है। छतरी के बीच में लगे शिलास्तंभ पर चारों तरफ 17 स्रियों की मूर्तियाँ तथा बीच में चारों तरफ पृथ्वीराज की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। पृथ्वीराज और स्रियों की वेशभूषा से 15 वीं शताब्दी की वेशभूषा की अच्छी जानकारी मिलती है।

गुम्बज के बनाने में ईंट व पत्थर के टुकङों का प्रयोग किया गया है और उस पर सजावट के लिये चूने का प्लास्टर किया गया है, जो लाल रंग का है।

कुम्भलगढ के दुर्ग की सबसे बङी विशेषता यह है कि इस दुर्ग के भीतर एक और दुर्ग, गढ के सबसे ऊँचे भाग पर स्थित है। सीधी ऊँचाई के कारण इसे कटारगढ कहा जाता है। कटारगढ में प्रवेश करने से पहले एक देवी का मंदिर है। कटारगढ के छः द्वारों को पार करने के बाद जो चौङा भाग आता है

उसके दायें-बायें राजप्रासाद बने हुए हैं। खाद्य व युद्ध सामग्री को एकत्रित करने के लिये बङे-बङे गोदाम, अशवशाला और पीलखाना (हाथियों का बाङा) भी राजप्रासादों की सीमा में बने हुए हैं। रहने के महल छोटी-छोटी कोठरियाँ हैं। बरामदे और चौक भी सँकरे हैं। महलों के द्वार इतने छोटे हैं कि काफी झुककर महलों में प्रवेश करना पङता है।

महलों को देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि महाराणा कुम्भा ने यद्यपि मंदिर, स्तंभ आदि बङे कलात्मक बनवाये थे, लेकिन स्वयं के रहने के महल बिल्कुल साधारण बनवाये थे।

कर्नल टॉड ने इस दुर्ग की तुलना सुदृढ प्राचीरों, बुर्जों एवं कंगूरों की दृष्टि से एट्रूस्कन से की है। श्री हरविलास शारदा ने इस दुर्ग को कुम्भा की सैनिक और रचनात्मक मेधा का प्रतीक बताया है जो सैनिक सुरक्षा व ऐतिहासिक ख्याति में अद्वितीय है। डॉ.गोपीनाथ शर्मा ने इसे कुम्भा की सामरिक और रचनात्मक गुणों की उपलब्धि कहा है। दुर्ग का स्थापत्य आज भी इसकी अभेद्य स्थिति को प्रमाणित कर रहा है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
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विकिपिडिया : कुम्भलगढ का दुर्ग

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