चोल राजवंश के इतिहास के साधन
चोल राजवंश – कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों से लेकर कुमारी अंतरीप तक का विस्तृत भूभाग प्राचीन काल में तमिल प्रदेश का निर्माण करता था।
इस प्रदेश में तीन प्रमुख राज्य थे – चोल, चेर तथा पाण्ड्य। अति-प्राचीन काल में इन तीनों राज्यों का अस्तित्व रहा है। अशोक के तेरहवें शिलालेख में इन तीनों राज्यों का स्वतंत्र रूप से उल्लेख किया गया है, जो उसके साम्राज्य के सुदूर दक्षिण में स्थित हैं। कालांतर में चोलों ने अपने लिये एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया। उनके उत्कर्ष का केन्द्र तंजौर था और यही चोल साम्राज्य की राजधानी थी।
चोल इतिहास को जानने के साधन
साहित्य
चोल राजवंश का इतिहास जानने के लिये हम अनेक साहित्यिक ग्रंथों का उपयोग करते हैं। इनमें सर्वप्रथम संगम साहित्य (100-250ई.) का उल्लेख किया जा सकता है। इसके अध्ययन से हम आरंभिक चोल शासक करिकाल की उपलब्धियों का पता चलता है। पाण्ड्य तथा चेर राजाओं के साथ उसके संबंधों का भी पता चलता है। जयन्गोण्डार के कलिंगत्तुपराणि से कुलोत्तुंग प्रथम की वंश परंपरा तथा उसके समय में कलिंग पर किये जाने वाले आक्रमण का परिचय मिलता है। ओट्टकुक्कुट्टम की विक्रमचोल, कुलोत्तुंग द्वितीय तथा राजराज द्वितीय के संबंध में रची गयी उलायें उनके विषय में ऐतिहासिक बातें बताती हैं। शेक्किलार द्वारा रचित पेरियपुराणम् जो कुलोत्तुंग द्वितीय के काल में लिखा गया था, के अध्ययन से तत्कालीन धार्मिक दशा का पता चलता है। बुधमित्र के व्याकरण ग्रंथ वीरशोलियम् से वीर राजेन्द्र के समय की कुछ एतिहासिक घटनाओं का पता चलता है। बौद्धग्रंथ महावंश से परांतक की पाण्ड्य विजय तथा राजेन्द्र प्रथम की लंका विजय का विवरण ज्ञात होता है।
अभिलेख
चोल इतिहास के सर्वाधिक प्रामाणिक साधन अभिलेख हैं, जो बङी संख्या में प्राप्त होते हैं। इनमें संस्कृत, तमिल, तेलगू तथा कन्नङ भाषाओं का प्रयोग हुआ है। विजयालय (869-871 ई.) के बाद का चोल इतिहास मुख्यतः अभिलेखों से ही जाना जाता है। राजराज प्रथम ने अभिलेखों द्वारा अपने पूर्वजों के इतिहास को संकलित करने तथा अपने काल की घटनाओं और विजयों को लेखों में जोङने की प्रथा प्रारंभ की। इसका अनुकरण बाद के राजाओं ने किया। उसके समय के लेखों में लेडन दानपत्र तथा तंजोर मंदिर में उत्कीर्ण लेख उल्लेखनीय हैं। तंजोर के लेख उस मंदिर की व्यवस्था पर प्रकाश डालते हैं। राजेन्द्र प्रथम के समय के प्रमुख लेख तिरुवालंगाडु तथा करन्डै दानपत्र हैं, जो उसकी उपलब्धियों का विवरण देते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेख राजराज तृतीय के समय का तिरुवेन्दिपुरम् अभिलेख है। यह चोल वंश के उत्कर्ष का तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करता है। इसमें होयसल राजाओं के प्रति कृतज्ञता भी बतायी गयी है। राजाधिराज प्रथम के समय के मणिमंगलम् अभिलेख से उसकी लंका विजय तता चालुक्यों के साथ संघर्ष की सूचना मिलती है।यह वीर राजेन्द्र की उपलब्धियों पर भी प्रकाश डालता है।
सिक्के
लेखों के अलावा धवलेश्वरम् से चोलों के स्वर्ण सिक्कों का एक ढेर मिलता है। इनसे उसकी समृद्धि का पता चलता है।राजाधिराज प्रथम के कुछ सिक्के लंका से प्राप्त हुये हैं, जिनसे वहां उसके अधिकार की पुष्टि होती है। दक्षिणी कनारा से उसके कुछ सिक्के मिले हैं। सामान्यतः चोल सिक्कों से संपूर्ण दक्षिण भारत के ऊपर उनका आधिपत्य प्रकट होता है।
विदेशी विवरण
चीनी स्त्रोतों से चोल तथा चीनी राजाओं के बीच राजनयिक संबंधों की सूचना मिलती है।चीन की एक अनुश्रुति के अनुसार राजराज प्रथम तथा कुलोत्तुंग प्रथम के काल में एक दूत-मंडल चीन की यात्रा पर गया था। चीनी यात्री चाऊ-जू-कुआ (1225ई.)के विवरण से चोल देश तथा वहां की शासन व्यवस्था से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण बातों का पता चलता है। पेरीप्लस तथा टालमी के ग्रंथ में भी चोल देश का उल्लेख मिलता है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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