अकबर के बाद राजपूत-मुगल संबंध कैसे थे
राजपूत-मुगल संबंध – मेवाङ के प्रतिरोध का अंत – 1597 ई. में राणा प्रताप की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अमरसिंह मेवाङ की गद्दी पर बैठा। अकबर ने 1599 ई. में शाहजादा सलीम को मेवाङ के विरुद्ध भेजा, परंतु आरामपसंद सलीम ने इस अभियान में कोई रुचि नहीं दिखाई । लाख प्रयत्नों के बाद भी अकबर अपने जीवन काल में मेवाङ को अपनी अधीनता में न ला सका और 1605 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद सलीम (जहाँगीर) के नाम से मुगल सिंहासन पर बैठा। सम्राट बनते ही जहाँगीर ने 1605 ई. में अपने दूसरे पुत्र परवेज को ससैन्य मेवाङ की तरफ भेजा। देवारी के निकट दोनों पक्षों में अनिर्णायक युद्ध लङा गया। इसी समय जहाँगीर के बङे पुत्र खुसरो ने विद्रोह कर दिया। अतः परवेज को वापस बुला लिया गया। 1608 ई. में महावतखाँ को मेवाङ पर आक्रमण करने के लिये भेजा गया लेकिन उसे कोई उल्लेखनीय सफलता न मिली। तत्पश्चात अब्दुल्लाखाँ को भेजा गया लेकिन रणपुर के युद्ध में उसे राजपूतों के हाथों पराजित होना पङा। 1611 ई. में राजा बसू को मेवाङ में नियुक्त किया गया लेकिन अमरसिंह की सुदृढ व्यवस्था के विरुद्ध वह कुछ भी हासिल नहीं कर पाया। अंत में 8 नवम्बर, 1613 ई. को स्वयं जहाँगीर अजमेर पहुँचा और यहाँ से शाहजादे खुर्रम (शाहजहाँ) के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना मेवाङ भेजी गई। खुर्रम ने सैन्य संचालन में अपूर्व योग्यता एवं शक्ति का प्रदर्शन किया। उसने न केवल राणा की राजधानी चावण्ड पर अधिकार किया बल्कि आसपास के गाँवों और नगर को जलाकर राख कर दिया।
पहाङों में छिपे सिसोदिया राजपूतों को भूखा मारकर विवश करने के लिये उसने खाद्य सामग्री का आयात-निर्यात भी बंद कर दिया। फिर भी, राजपूतों ने असीम साहस का परिचय देते हुये शाही सेना पर बार-बार आक्रमण किये। निरंतर युद्धों के कारण मेवाङ को काफी क्षति उठानी पङ रही थी और सिसोदिया सरदार पूर्णतः थक चुके थे। अतः मेवाङी सरदारों ने राणा को शांति एवं समझौते का परामर्श दिया, क्योंकि साधन सम्पन्न मुगल साम्राज्य से टक्कर लेना साधन क्षीण मेवाङ के लिये नितान्त दुष्कर कार्य था। अतः राणा अमरसिंह ने शुभकरण एवं हरिदास को खुर्रम के पास संधि वार्ता के लिए भेजा। खुर्रम ने इस दूत मंडल का स्वागत किया और उन्हें सम्राट के पास अजमेर भेज दिया। जहाँगीर ने राणा की संधि शर्तें स्वीकार कर फरमान द्वारा खुर्रम को संधि करने का अधिकार दे दिया। इस प्रकार, 1615 ई. में संधि हो गयी जिसके अनुसार राणा ने मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली। सम्राट ने चित्तौङ सहित मुगल अधिकृत क्षेत्र राणा को लौटा दिये परंतु यह शर्त रखी गयी कि राणा चित्तौङ दुर्ग की मरम्मत तथा दुर्गबंदी नहीं करेगा। राणा को शाही दरबार में उपस्थित होने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा लेकिन युवराज को दरबार में उपस्थित होकर साम्राज्य की सेवा करनी होगी। अन्य राजपूत नरेशों की भांति राणा को मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। इस संधि द्वारा मुगल-मेवाङ संघर्ष का अंत हो गया।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References wikipedia : राजपूत-मुगल संबंध