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महाराणा प्रताप का इतिहास

महाराणा प्रताप का इतिहास

महाराणा प्रताप – नैणसी की ख्यात के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया, वि.सं. 1597 अर्थात् 9 मई, 1540 ई. को हुआ था। महाराणा उदयसिंह के बीस रानियाँ थी और इनमें कुल मिलाकर 17 लङके पैदा हुए थे। महाराणा प्रताप उदयसिंह के सबसे बङे पुत्र थे। परंतु महाराणा उदयसिंह अपनी भटियाणी रानी से अधिक प्रेम करते थे और उसके प्रभाव में आकर अपनी मृत्यु के पूर्व उसके पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर गये। अतः अब महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के साथ उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर संघर्ष शुरू हो गया। कुछ सरदार जगमाल को सिंहासन पर बैठाना चाहते थे, जबकि अन्य सरदार महाराणा प्रताप को सिंहासन पर बैठाना चाहते थे। अंत में, महाराणा प्रताप के समर्थक सफल रहे और 28 फरवरी, 15 72 ई. को गोगुन्दा में महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक कार्य संपन्न हुआ। उस समय महाराणा प्रताप की आयु 32 वर्ष की थी।

महाराणा प्रताप

गोगुन्दा में राज्याभिषेक होने के बाद महाराणा प्रताप कुम्भलमेर गया और वहाँ से ही मेवाङ का शासन करने लगा। परंतु प्रताप के लिये मेवाङ की गद्दी काँटों की सेज प्रमाणित हुई। दीर्घकालीन युद्धों के कारण मेवाङ की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। चित्तौङ के दुर्ग सहित मांडलगढ, बदनौर, बागौर, जहाजपुर, रायला आदि परगनों पर मुगलों का अधिकार हो चुका था। 1567 ई. के मुगल आक्रमण के परिणामस्वरूप मेवाङ के अनेक सरदार तथा हजारों शूरवीर सैनिक समाप्त हो चुके थे। अतः सैन्यशक्ति की दृष्टि से भी मेवाङ काफी कमजोर हो चुका था। इसके अलावा, अकबर मेवाङ की स्वतंत्र सत्ता को अपने अधीन लाने के हरसंभव उपाय का सहारा ले रहा था।

ऐसी स्थिति में महाराणा प्रताप के सामने दो ही मार्ग थे। पहला था – अन्य राजपूत शासकों की भाँति अकबर की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुये उसके साम्राज्य की व्यवस्था का एक अंग बन जाना। ऐसा करने पर उसे मेवाङ का संपूर्ण राज्य मिल सकता था और समूचे राज्य में सुव्यवस्था कायम हो सकती थी। आर्थिक समृद्धि की ओर बढा जा सकता था और मुगल साम्राज्य के मनसबदारों को मिलने वाली अन्य सुविधाओं का भी लाभ उठाया जा सकता था। दूसरा मार्ग था – अपनी स्वतंत्रता तथा सर्वोच्चता को बनाये रखना। परंतु यह मार्ग सरल नहीं था और इसके परिणाम अधिक आशाजनक नहीं दिखाई पङ रहे थे। इस मार्ग को अपनाने का अर्थ था – मुगलों के साथ घातक और लंबे संघर्ष का सामना करना। इन दो मार्गों में से प्रताप ने दूसरा मार्ग चुना जो कि सिसोदिया वंश के गौरव एवं उसकी शानदार परंपरा के अनुकूल था।

इन सभी परिस्थितियों का निश्चयात्मक ढंग से मुकाबला करने का संकल्प करने के बाद महाराणा प्रताप ने बङे आत्मविश्वास के साथ भावी संघर्ष की तैयारी करनी शुरू कर दी। उसने मेवाङ के स्वामिभक्त सरदारों तथा आदिवासी भीलों की सहायता से एक शक्तिशाली सेना संगठित की। उसने अपनी सैन्य व्यवस्था में आदिवासी भीलों को महत्त्वपूर्ण पद प्रदान करके उनको सम्मानित किया मुगल आक्रमण से सुरक्षा की दृष्टि से वह अपनी राजधानी को गोगुन्दा से कैलवाङा ले गया। इसके बाद उसने मेवाङ की जनता में साहस और उत्साह का संचार किया ताकि वह भी मेवाङ राज्य की स्वतंत्रता की रक्षा के लिये एकजुट होकर तैयार हो सके।

अकबर द्वारा महाराणा प्रताप को समझाने के प्रयास

अकबर को महाराणा प्रताप के विचारों की जानकारी थी, फिर भी, उसने शस्र-बल का प्रयोग करने से पहले उसको समझाने का प्रयास किया ताकि बिना रक्तपात के वह संपूर्ण राजस्थान पर अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित कर सके। प्रताप के राज्याभिषेक के चार महीने बाद अकबर ने अपने विश्वस्त एवं राजनीतिक वार्ताओं में दक्ष अमीर जलालखाँ को प्रताप के पास भेजा परंतु जलालखाँ को अपने मिशन में सफलता न मिली। अप्रैल, 1573 ई. में उसने आमेर के राजकुमार मानसिंह को उदयपुर जाकर प्रताप को समझाने का दायित्व सौंपा। शायद अकबर ने सोचा होगा कि इस प्रकार की वार्ता के लिये राणा प्रताप की जाति एवं धर्म का प्रभावशाली व्यक्ति अधिक उपयुक्त सिद्ध होगा। मानसिंह डूंगरपुर को जीतने के बाद सलूम्बर होता हुआ उदयपुर पहुँचा और जून, 1537 ई. में उसने राणा प्रताप से भेंट की। दोनों की मुलाकात उदयसागर पाल पर हुई। प्रताप ने परंपरागत सम्मान के साथ मानसिंह का स्वागत किया। (डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार दोनों की भेंट गोगुन्दा में हुई थी, जबकि डॉ.आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव और कर्नल टॉड के अनुसार उदयसागर की पाल पर हुई थी।)। मानसिंह ने प्रताप को समझाया कि वह अकबर की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार कर उसके साथ मैत्रीपूर्ण समझौता करने के लिये उसके दरबार में उपस्थित होने के लिये चले। लेकिन प्रताप जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति को यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था।

राजस्थान के वीररस प्रधान साहित्य में दोनों की इस भेंट को अलग-अलग रंग देकर चित्रित किया गया। अमरकाव्य वंशावली, राजरत्नाकर और रावल राणाजी की बात आदि रचनाओँ में कहा गया है कि महाराणा प्रताप ने मानसिंह के सम्मान में उदयसागर पर एक भोज का आयोजन किया, परंतु वह स्वयं उसमें सम्मिलित नहीं हुआ और अपने बङे पुत्र अमरसिंह को भेज दिया। जब मानसिंह ने प्रताप की अनुपस्थिति का कारण पूछा तो उसे कह दिया गया कि राणा की तबियत ठीक नहीं है। बुद्धिमान मानसिंह को यह समझते देर न लगी कि आमेर राजघराने द्वारा अकबर के साथ वैवाहिक संबंध किये जाने के बाद से ही सिसोदियों ने उसे अछूत मानते हुए उनके साथ बैठकर भोजन न करने का निश्चय कर रखा है, अतः प्रताप द्वारा भोज में सम्मिलित होने का सवाल ही नहीं था। फिर भी, कुँवर मानसिंह ने राणा की अनुपस्थिति की ओर घोर अपमान समझा। वह बिना भोजन किये हुये उठ खङा हुआ और क्रोधित होकर युद्ध की धमकी दी। इस पर अमरिसंह ने प्रत्युत्तर में कहा कि वह अकेला आये अथवा अपने फूफा अकबर के साथ, युद्धभूमि में उनका उचित स्वागत किया जायेगा। मानसिंह के जाते ही सभी बर्तनों तथा भोजन स्थल को धोया गया, क्योंकि मानसिंह के स्पर्श से सभी अपवित्र हो गए थे।

कर्नल टॉड तथा श्यामलदास ने भले ही चारणों द्वारा लिखित इस घटना को सत्य माना हो, आधुनिक शोधकर्ताओं से पता चलता है कि चारणों ने महाराणा प्रताप और मानसिंह की भेंट को रोचक बनाने के लिये इस प्रकार की मनगढन्त कहानी का निर्माण कर लिया। ताकि प्रताप को मानसिंह की तुलना में अधिक प्रतिष्ठित एवं सम्मानित बतलाया जा सके। 17 वीं सदी के ग्रन्थों में भोजन के समय अनबन का उल्लेख मिलता है, परंतु किसी भी समकालीन रचना से भोज के अवसर पर घटित घटना की पुष्टि नहीं होती। वास्तव में यदि ऐसा हुआ होता तो राजपूतों में उसी समय तलवारें खिंच गयी होती। यह केवल मानसिंह के अपमान की बात नहीं थी, अपितु सम्राट अकबर के लिये भी अपमानजनक बात थी और इसलिए अकबर इस घटना के आगामी तीन वर्ष तक चुपाचाप बैठा रहने वाला शासक नहीं था और न ही कुछ महीनों बाद राजा भगवन्त दास को प्रताप को समझाने के लिये भेजता। अबुल फजल और बदायूँनी ने भी मानसिंह के अपमान का उल्लेख नहीं किया है। डॉ.गोपीनाथ शर्मा भी इसे सही नहीं मानते हैं। डॉ.रघुवीर सिंह के शब्दों में, अनेक युगों बाद प्रचलित होने वाली राणा प्रताप संबंधी अनेकानेक कल्पनापूर्ण कथाओं में ही इसकी भी गणना होनी चाहिए।

मानसिंह के बाद अकबर ने अपने राजदूत की हैसियत से राजा भगवन्त दास को सितंबर-अक्टूबर, 1753 ई. में महाराणा प्रताप के पास भेजा। लेकिन राजा भगवन्त दास को भी अपने राजनैतिक मिशन में सफलता नहीं मिल पाई।दिसंबर, 1573 ई. में टोडरमल ने प्रताप से मुलाकात की, परंतु प्रताप के निश्चय में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया। इसके साथ ही समझौते का द्वार बंद हो गया और युद्ध के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया। अकबर किसी भी कीमत पर स्वतंत्र मेवाङ के अस्तित्व को सहन करने के लिये तैयार न था तो प्रताप अपनी तथा अपने राज्य की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिये अंतिम क्षण तक संघर्ष करने के लिये कृत-संकल्प था। यह दो भिन्न आदर्शों की सर्वोच्चता के मध्य संघर्ष था।

हल्दीघाटी का युद्ध

राव चंद्रसेन की शक्ति के अंतिम केन्द्र सिवाणा के दुर्ग को जीतने के बाद अकबर ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान भेजने का निश्चय कर लिया और तदनुसार उसने अजमेर से कुँवर मानसिंह को एक शक्तिशाली सेना के साथ मेवाङ की ओर भेजा। 3 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह ने सेना सहित अजमेर से कूच किया। अजमेर से मानसिंह माण्डलगढ पहुँचा और दो महीने तक यहीं डेरा डाले रहा। सम्भवतः मानसिंह महाराणा प्रताप द्वारा खाली कराई गई भूमि और मुगल अधिकृत क्षेत्र के बीच संचार और यातायात की उचित व्यवस्था करने के लिये इतने समय तक माण्डलगढ में रुक गया था। अपने सरदारों की सलाह मानकर प्रताप ने गिर्वा की घाटियों में ही शत्रु से सामना करने का निश्चय किया और गोगुन्दा में आ डटा…अधिक जानकारी

कुम्भलगढ का युद्ध

खोये हुये प्रदेशों पर अधिकार करने के बाद राजा भगवंत दास ज्यों ही वापिस मुङा, महाराणा प्रताप ने उन क्षेत्रों में नियुक्त मुगल अधिकारियों पर धावे मारने शुरू कर दिये। मुगल सेनानायक मिजाहिद बेग ने प्रताप के सैनिकों का डटकर सामना किया, परंतु इस संघर्ष में वह पराजित हुआ और लङता हुआ मारा गया। इस घटना से क्रोधित होकर अकबर ने शाहबाजखाँ के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना प्रताप के विरुद्ध भेजी 15 अक्टूबर, 1577 ई. को शाहबाजखाँ ने कूच किया। उसने राणा प्रताप की मौजूदा राजधानी कुम्भलगढ को अधिकृत करने की योजना बनाई। सर्वप्रथम उसने कुम्भलगढ की तलहटी में आबाद केलवाङा कस्बे पर आक्रमण करके उस पर अधिकार जमाया। इसके बाद उसने कुम्भलगढ दुर्ग पर धावे मारने शुरू किये…अधिक जानकारी

दिवेर का युद्ध

मई, 1580 ई. के बाद कुछ वर्षों तक महाराणा प्रताप के विरुद्ध शाही सेनानायकों की आक्रामक कार्यवाहियाँ बंद रही। गोङवाङ क्षेत्र पर तब भी प्रताप का अधिकार था। उस समय सायरा से राणापुर होती सादङी की राह वाली घाटी ही प्रताप के लिये खुली थी। प्रताप के अधिकार से बहुत सा पहाङी क्षेत्र भी मुगलों के अधिकार में चला गया था तथा निरंतर अपनी स्वाधीनता हेतु संघर्ष करते रहने के कारण प्रताप की सैनिक शक्ति भी बहुत कुछ क्षीण हो गयी थी। अतः लगभग दो वर्ष तक प्रताप अपने रहे-सहे राज्य क्षेत्र की शासन व्यवस्था को संगठित करने और अपनी शक्ति बढाने में लगा रहा। इन वर्षों में अकबर भी मेवाङ की ओर कोई ध्यान नहीं दे सका था…अधिक जानकारी

महाराणा प्रताप के अंतिम दिन

जब जगन्नाथ कछवाहा को सफलता न मिली तो उसे वापिस बुला लिया गया। 1585 ई. के बाद अकबर ने किसी मुगल सेनानायक को प्रताप के विरुद्ध नहीं भेजा। इसका मुख्य कारण उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त की सुरक्षा-व्यवस्था में व्यस्त होना था। अतः इस विराम अवधि में महाराणा को अपने खोये हुये क्षेत्रों का बहुत सा भाग पुनः प्राप्त करने का अवसर मिल गया। उसके द्वारा अधिकृत भागों में माही, गोगुन्दा, माण्डल, उदयपुर, पिण्डवाङा आदि सम्मिलित थे। इसी अवधि में प्रताप ने चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया तथा कुछ निर्माण कार्य भी करवाये। इससे स्पष्ट है कि उसके जीवन के अंतिम 12 वर्ष शांतिपूर्ण व्यतीत हुए। फिर भी पिछले जीवन के निरंतर संघर्ष और धावों तथा भाग दौङ ने उसके शरीर को निर्बल बना दिया था। एक दिन चावण्ड में ही जब वह एक धनुष की प्रत्यंचा को जोर से खींचकर उसे आजमा रहा था, तभी प्रत्यंचा टूट जाने से वह बुरी तरह से घायल हो गया और कुछ दिनों बाद 19 जनवरी, 1597 ई. को उसका देहान्त हो गया। चावण्ड से लगभग डेढ मील दूर बाण्डोली गाँव में उसका अंतिम संस्कार किया गया। वहीं उसकी स्मृति में एक छत्री का निर्माण करवाया गया जो आज भी विद्यमान है। उसकी मृत्यु के संबंध में अबुल फजल का कथन, कि उसके पुत्र अमरसिंह ने उसको विष दिया था, सर्वथा अविश्वसनीय है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : प्रताप

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