इतिहासप्राचीन भारतवैदिक काल
ऋग्वैदिक शिल्प- उद्योग
शिल्प – उद्योगः ऋग्वैदिक काल में कपास का उत्पादन नहीं होता था। फिर भी महिलाएँ कपङे बुनने का कार्य करती थी। कपङे बुनने वाली महिलाएँ सीरी कहलाती थी। ऊनी कपङे मुख्यतः बने जाते थे। चमङे तथा सूती कपङे भी पहनते थे ।
- चमङे का कार्य करने वाला – चर्मन्न
- लकङी का कार्य करने वाला- बढई/ तक्षण कहलाता था।
- नाई का कार्य करने वाला-वाप्ता कहलाता था।
- बुनाई करने वाला-तंतुवाम (जुलाहा)।
धातुगिरी का कार्य – 3 धातुओं की जानकारी वैदिक काल के लोगों को थी-सोना, ताँबा, कांसा।
- अयस्– ताँबा तथा कांसे की वस्तुओं के लिए अयस् काम में लेते थे।
- सोना– निष्क नामक सोने का आभूषण।
ऋग्वेद में जाति व्यवस्था नहीं थी। अनस्य बलिकृता(एकमात्र कर देने वाला)-वैश्य ।
व्यापार वाणिज्य- वाणिज्य व्यापार से पणि नामक अनार्य जुङे हुए थे। जो अपनी स्मृद्धि के बावजूद कंजूसी के लिए प्रसिद्ध थे । इनका उल्लेख आर्यों के शत्रुओं के रूप में किया जाता था। क्योंकि ये लोग आर्यों की गायें चुराते थे।
- ऋग्वेद के अंतिम भाग में व्यापार वाणिज्य के लिए एक स्थाई वर्ण आ गया जो वैश्य कहलाया था।
- ऋग्वेद में वस्तुविनिमय प्रणाली प्रचलित थी। सामान्यतः इसके लिए गाय, निष्क(सोना), सोने के आभूषण ।
- इस समय मुद्रा प्रणाली का विकास नहीं हो पाया था।
- अष्टकर्णी, शतदाय जैसे शब्दों से जानकारी मिलती है कि आर्यों को अंकों का ज्ञान था।
- आर्य 5 ऋतुओं से परिचित थे (हेमंत से नहीं)। 5ऋतुयें-शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर,बसंत।
- सूद (ब्याज)पर लेने देने की प्रक्रिया प्रचलित थी ।
- दास व्यवस्था भी समाज में प्रचलित थी। लेकिन दासों का उपयोग आर्थिक गतिविधियों में न होकर घरेलू कार्यों में होता था।

बेकनाट (सूदखोर ) वे ऋणदाता थे जो बहुत अधिक ब्याज लेते थे।