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उपनिषद किसे कहते हैं

वैदिक साहित्य के अंतिम भाग उपनिषद हैं, जिन्हें वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषद् मुख्यतः ज्ञानमार्गी रचनायें हैं, जिनमें हम वैदिक चिन्तन की चरम परिणति पाते हैं। इनका मुख्य विषय ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन है। उपनिषद का शाब्दिक अर्थ है उप = समीप + नि = निष्ठापूर्वक + सद् बैठना।अर्थात् गुरु के निकट निष्ठापूर्वक (रहस्य ज्ञान के लिये) बैठना। इस प्रकार उपनिषद् वह साहित्य है, जिनमें रहस्यात्मक ज्ञान एवं सिद्धांत का संकलन है।

उपनिषदों की संख्या के विषय में मतभेद है। मुक्तिकोपनिषद में 108 उपनिषदों का उल्लेख मिलता है। शंकराचार्य ने केवल दस उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा था। वे ही प्राचीनतम तथा प्रमाणिक माने जाते हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं –

  • ईश,
  • केन,
  • कठ,
  • प्रश्न,
  • मुण्डक,
  • माण्डूक्य,
  • तैत्तिरीय,
  • ऐतरेय,
  • छान्दोग्य,
  • वृहदारण्यक

इनके अलावा कौषीतकि, श्वेताश्वर, मैत्रायणी उपनिषद भी प्राचीन हैं। इनका काल भिन्न-भिन्न हैं। इन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. प्रथम वर्ग के उपनिषद-ऐतरेय, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, छान्दोग्य तथा केन हैं। इनकी रचना बुद्ध के पूर्व की गयी थी। ये ब्राह्मणों के ही अंश हैं।
  2. द्वितीय वर्ग के उपनिषद-इस वर्ग में कठ, श्वेताश्वतर, ईश, मुण्डक तथा प्रश्न उपनिषद हैं। इनका समय प्रथम वर्ग के बाद किन्तु बुद्ध के पूर्व का ही है। इनके स्वतंत्र ग्रंथ मिलते हैं तथा अधिकतर पद्य में हैं।
  3. तृतीय वर्ग के उपनिषद-इस वर्ग के उपनिषद बुद्ध के बाद के हैं। इनमें मैत्रायणी तथा माण्डूक्य के नाम उल्लेखनीय हैं।

इन सभी उपनिषदों के अलावा कुछ उपनिषद ऐसे भी हैं, जिनका संबंध वेदों की अपेक्षा पुराणों तथा तंत्रों से अधिक हैं। कुछ में विष्णु तथा शिव को परम देवता माना गया है, जबकि कुछ शाक्तादि संप्रदायों से संबंधित हैं।

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उपनिषद पूर्णतया दार्शनिक ग्रंथ हैं, जिनका मुख्य ध्येय ज्ञान की खोज है। ये बहुदेववाद के स्थान पर परब्रह्म की प्रतिष्ठा करते हैं। यज्ञीय कर्मकाण्डों तथा पशुबलि की निन्दा इनमें मिलती है तथा उनके स्थान पर ज्ञानयज्ञ का प्रतिपादन हुआ है। छन्दोग्योपनिषद में सर्व खल्विदं ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म ही सब कुछ है कहकर अद्वैतवाद की प्रतिष्ठा की गयी है।

सृष्टि का सारभूत तत्व ब्रह्मन तथा व्यक्ति के शरीर का सारभूत तत्व आत्मन् है। उपनिषदों में इन दोनों का तादात्म्य स्थापित किया गया है। आत्मा ही ब्रह्म है, वह (ब्रह्म) तुम्हीं हो (तत त्वम् असि) आदि कुछ प्रसिद्ध औपनिषदिक उक्तियाँ हैं। जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आत्म या ब्रह्म साक्षात्कार है। इसे प्राप्त करने के माध्यम उपनिषदों में बताया गया है। सांसारिक सुखों को महत्त्वहीन बताया गया है। उपनिषदों में सर्वत्र सच्चे को खोजने की उत्कण्ठा दिखाई देती है।

उपनिषदों के निर्माण में ब्राह्मण पुरोहित वर्ग के स्थान पर क्षत्रिय वर्ग का विशेष योगदान दिखाई देता है। ब्राह्मण ग्रंथों में ही हमें कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनसे पता चलता है, कि इस युग में क्षत्रिय वर्ग के लोग यज्ञों के वास्तविक महत्त्व को ढूँढने के लिये अधिक उत्सुक तथा प्रयत्नशील थे। उपनिषद दर्शन का विकास इन्हीं प्रयासों का फल था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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