इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन धार्मिक साहित्य वेद

भारत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त विशाल है। यह प्रधानतः संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध किया गया है। भारत की प्राचीनतम लिपि ब्राह्मी है। परंपरा के अनुसार इसकी उत्पत्ति स्वयं ब्रह्मा से हुई। नारद स्मृति में कहा गया है, कि ब्रह्मा यदि लिपि द्वारा उत्तम नेत्र का विकास नहीं करते तो लोगों की शुभ गति नहीं होती। संस्कृत भाषा हमारी राष्ट्रीय निधि तथा यह हमारी संस्कृति का मुख्य वाहन है।

अतः भारतीय संस्कृति के ज्ञान के लिये संस्कृत में लिखे गये साहित्य का अध्ययन करना आवश्यक है।

प्राचीन भारतीय साहित्य को अध्ययन की सविधा के लिये मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है-

  1. धार्मिक साहित्य
  2. लौकिक साहित्य

यहां हम धार्मिक साहित्य के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे

धार्मिक साहित्य पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है-

  • ब्राह्मण अथवा वैदिक साहित्य।
  • ब्राह्मणेतर अथवा अवैदिक साहित्य।

ब्राह्मण अथवा वैदिक साहित्य

इसके अंतर्गत वेद तथा उससे संबंधित ग्रंथ, महाकाव्य, स्मृति आदि हैं, जो भारतीय मनीषियों के ज्ञान की अक्षयनिधि है। इनके बारे में निम्नलिखित जानकारी है-

वेद

वेद शब्द का अर्थ ज्ञान होता है। इस प्रकार इसमें भारत का प्राचीन ज्ञान सुरक्षित है। वेद भारतीय संस्कृति के आधार हैं तथा भारत के प्राचीनतम धर्म ग्रंथ हैं। भारतीय परंपरा वेदों को अपौरुषेय अथवा ईश्वर निर्मित मानती है। इसके अनुसार सृष्टि के आदि में ब्रह्मा ने कुछ ऋषियों को मंत्रों का प्रकाश दिया। ऋषियों ने उन्हें अपने शिष्यों को बताया। यह क्रम चलता रहा तथा यह ज्ञान श्रवण-परंपरा से सुरक्षित रहा। कालांतर में वेदव्यास ने इस ज्ञान को संकलित कर दिया। इसी कारण वेदों को श्रुति भी कहा जाता है।
वेदों की संख्या चार है – ऋग्वेद, यजुवर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। इनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण रचना है।

ऋग्वेद की तिथि

ऋग्वेद की तिथि निर्धारित करना एक जटिल समस्या है। ऋग्वेद अथवा पुरातत्व से इस विषय पर कोई प्रकाश नहीं पङता। भारतीय मान्यता इसे अपौरुषेय मानती है, जिसके अनुसार वैदिक मंत्रों में जिन ऋषियों का उल्लेख मिलता है, वे उनके रचयिता नहीं, अपितु द्रष्टिमात्र हैं। इसके विपरीत पाश्चात्य विद्वान वेदों के अपौरुषेयता की बात स्वीकार नहीं करते। उनका मत है, कि मंत्रों में संबद्ध ऋषि ही उनके कर्त्ता हैं। विभिन्न विद्वानों ने ऋग्वेद की तिथि के संबंध में भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं।

कुछ मत इस प्रकार हैं-

जर्मन विद्वान जैकोबी ने ज्योतिष विज्ञान के आधार पर ऋग्वेद की तिथि 4520 ई.पू.निकली है। पं.बालगंगाधर तिलक का भी यही निष्कर्ष है।

  • मैक्समूलर का विचार है, कि ऋग्वेद की रचना ई.पू.1200 से 1000 के बीच हुई थी। उनका विचार है, कि ईसा पूर्व छठीं शती के पूर्व वेदों की रचना पूरी हो चुकी थी। उन्होंने संपूर्ण वैदिक साहित्य का विभाजन छंदकाल, मंत्रकाल, ब्राह्मणकाल तथा सूत्रकाल में किया है तथा प्रत्येक के लिये दो-दो शताब्दियों का समय निर्धारित किया है। ऋग्वेद के अलावा मैक्समूलर अन्य संहिताओं का काल 1000-800ई.पू., ब्राह्मण ग्रंथों का 800-600ई.पू. तथा सूत्र साहित्य 600-200ई.पू. निर्धारित करते हैं।
  • विन्टरनित्स का विचार है, कि वैदिक साहित्य का प्रारंभिक काल ई.पू.2500 तक रहा होगा।
  • इस प्रकार हम देखते हैं, कि ऋग्वेद की निश्चित तिथि के विषय के बारे में विद्वानों में एक मत नहीं है। सभी मत-मतांतरों का अवलोकन करने के बाद इसकी तिथि ई.पू.1000 के लगभग रखना अधिक सही लगता है। मध्य एशिया के बोगजकोई से इंडो-ईरानी भाषा का लेख मिलता है, जिसकी तिथि ई.पू.1400 है। इसी समय की एल अमर्ना(मिस्त्र) से मिट्टी की पट्टियों पर अंकित कुछ लेख मिलते हैं। इनकी भाषायें ऋग्वेद की भाषा से अधिक प्राचीन तथा अविकसित हैं। इससे निष्कर्ष निकलता है, कि ऋग्वेद की रचना इस तिथि (1400ई.पू.) के बाद ही हुयी होगी। इस संबंध में एक अन्य विचारणीय बात यह है, कि ऋग्वेद तथा ईरानी ग्रंथ अवेस्ता की भाषाओं में काफी समानता है। अवेस्ता की भाषा का विकसित रूप हमें छठीं – पाँचवीं शता. ई.पू. के साखामनीष सम्राटों के लेखों में मिलता है। इससे सूचित होता है, कि अवेस्ता की रचना 1000 ई.पू. के लगभग हुई थी। यही तिथि ऋग्वेद की रचना भी मानी जा सकती है।

साहित्य

ऋग्वेद मंत्रों का एक संकलन (संहिता) है, जिन्हें यज्ञों के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिये ऋषियों द्वारा संग्रहीत किया गया है। यह कोई ऐतिहासिक अथवा वीर काव्य नहीं है। ऋक् का अर्थ छंदों तथा चरणों से युक्त मंत्र होता है। इस प्रकार ऋग्वेद से तात्पर्य ऐसे संग्रह से है, जो छंदों अथवा ऋचाओं में आबद्ध हो।

ऋग्वेद की अनेक संहितायें बतायी गयी हैं, जिनमें केवल शाकल संहिता ही संप्रति उपलब्ध है। संपूर्ण संहिता में दस मंडल तता 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद की पाँच शाखायें हैं – शाकल, वाष्कल, आश्वलायन, शंखायन तथा माण्डूक्य। इनका नामकरण विभिन्न ऋषि-आश्रमों में विभक्त अनेक शिष्य संप्रदायों के आधार पर हुआ है। जिस शिष्य संप्रदाय ने वेद के जिस अंग का अध्ययन किया उस अंग का नाम भी उसी शिष्य संप्रदाय के नाम पर रख दिया गया। ऋग्वेद के कुल मंत्रों की संख्या लगभग 10600 है। कई मंत्रों में उच्चकोटि की काव्यात्मक प्रतिभा के दर्शन होते हैं।
ऋग्वेद से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

यजुर्वेद

यजुष का अर्थ यज्ञ होता है। अतः यजुर्वेद संहिता में यज्ञों को सम्पन्न कराने के लिये उपयोगी मंत्रों का संग्रह किया गया है, जिनका उच्चारण यज्ञ के अवसर पर अध्वर्यु पुरोहित द्वारा किया जाता था। यजुर्वेद कर्मकाण्ड प्रधान है। इसमें यज्ञ करने की विजयों का विवरण मिलता है।

यजुर्वेद के दो भाग हैं

  1. कृष्ण यजुर्वेद
  2. शुक्ल यजुर्वेद

कृष्ण यजुर्वेद में छंदोबद्ध मंत्र तथा गद्यात्मक वाक्यों का विनियोग है, जबकि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्र ही हैं। इन दोनों की कई शाखायें हैं। कृष्ण यजुर्वेद की मुख्य शाखायें हैं – तैत्तिरीय, काठक, मैत्रायणी तथा कपिष्ठल। शुक्ल यजुर्वेद की प्रधान साखायें माध्यन्दिन तथा काण्व हैं। शुक्ल यजुर्वेद की संहिताओं को वाजसनेय भी कहा गया है, क्योंकि वाजसेनी के पुत्र याज्ञवल्क्य इनके द्रष्टा थे। इसमें कुल चालीस अध्याय हैं।

यजुर्वेद की रचना ऋग्वेद के बाद हुयी होगी। इसके विभिन्न अध्यायों में विभिन्न यज्ञों, उनके विधि-विधानों तथा अन्य कर्मकाण्डों का विस्तारपूर्वक विवेचन मिलता है।

सामवेद

साम का अर्थ संगीत अथवा गान होता है। इसमें यज्ञों के अवसर पर गाये जाने वाले मंत्रों का संग्रह है। जो व्यक्ति इन मंत्रों को गाता था उसे उद्गाता कहा जाता था।

सामवेद के दो प्रधान भाग हैं। प्रथम में छः तथा द्वितीय में नौ प्रपाठक या अध्याय हैं। सामवेद का प्रथम द्रष्टा वेदव्यास के शिष्य जैमिनि को माना जाता है। कालांतर में इसका विस्तार आचार्य सुकर्मा ने किया।सामवेद की प्रमुख शाखायें हैं – कोथुमी, जैमिनीय तथा रामायणीय।

सामवेद में कुल 1875 ऋचायें हैं। इनमें मात्र 75 ही नयी हैं, अन्य ऋग्वेद से ली गयी हैं। प्राचीन ग्रंथों में सामवेद के गौरव की गाथा मिलती है। बताया गया है, कि जो साम को जानता है, वही वेदों के रहस्य को जानता है। गीता में भगवान कृष्ण ने अपने को वेदों में सामवेद कहा है। ऋग्वेद तथा अर्थवेद में भी साम की प्रशंसा मिलती है। सामवेद को भारतीय संगीत शास्त्र का मूल कहा जा सकता है।

अथर्ववेद

वैदिक संहिताओं में अथर्ववेद संहिता का अपना एक विशिष्ट स्थान एवं महत्त्व है। जहाँ ऋग्वेद आदि तीन संहितायें परलोक संबंधी विषयों का प्रतिपादन करती हैं, वहीं अथर्ववेद संहिता लौकिक फल देने वाली भी है. इसमें मानव जीवन को सुखी तथा दुःख रहित बनाने के लिये किये जाने वाले अनुष्ठानों का उल्लेख मिलता है। अथर्वा नामक ऋषि इसके प्रथम द्रष्टा हैं, अतः उन्हीं के नाम पर इस वेद का नाम अथर्ववेद पङा। इसके दूसरे द्रष्टा अंगिरस ऋषि हैं। इस कारण इस वेद को अथर्वाङ्गिरस वेद भी कहा जाता है।

अथर्ववेद की दो शाखायें उपलब्ध हैं – पिप्पलाद तथा शौनक। इस संहिता में कुल बीस काण्ड, 731 सूक्त तथा 5987 मंत्रों का संग्रह है। इसके लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद से लिये गये हैं। इसकी कुछ ऋचायें यज्ञ-संबंधी तथा ब्रह्मविद्या विषय हैं। इसी कारण ऋग्वेद भी कहा जाता है। किन्तु इसके अधिकांश मंत्र लौकिक जीवन से संबंधित हैं। सामान्य मनुष्यों के विचारों, विश्वासों तथा अंध-विश्वासों आदि का विवरण इसमें प्राप्त होता है। रोग निवारण, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, शाप वशीकरण, आशीर्वाद, स्तुति, दीर्घायु, सुन्दर वृष्टि, प्रायश्चित, विवाह, प्रेम, राजकर्म, मातृभूमि माहात्म्य आदि विविध विषयों से संबंधित मंत्र अथर्ववेद में मिलते हैं। आयुर्वेद के सिद्धांत तथा व्यवहार की अनेक बातें भी इसमें भरी पङी हैं। इस प्रकार यह ग्रंथ लौकिक आचार-व्यवहार का एक विश्वकोश ही है। काव्य की दृष्टि से भी यह उच्चकोटि का संकलन है, जिसमें अत्यन्त सुन्दर एवं ह्रदयस्पर्शी गीति-काव्यों का समावेश हुआ है।

अथर्ववेद भाषा तथा छंद की दृष्टि से ऋग्वेद के बहुत बाद की रचना प्रतीत होता है। इसकी भाषा अनेक रूपों में ऋग्वेद से अर्वाचीन है। इसमें वर्णित सभ्यता का स्तर भी निरंतर है। कुछ विद्वान इसमें आर्य तथा आर्येतर तत्वों का समन्वय देखते हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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