भारतीय राज्यों में प्रजातंत्रीय व्यवस्था (Democratic system in Indian states)-
भारतीय राज्यों में प्रजातंत्रीय व्यवस्था – भारतीय नरेशों के राज्यों का भारत में सम्मिलित होना एक बङी समस्या का एक पहलू था। उनका पुनर्गठन जिससे वे शासन की उपयोगी इकाइयाँ बन सकें और वहाँ प्रजातंत्रीय शासन की स्थापना हो सके, इस समस्या के अन्य पहलू थे।
भारतीय संघ में सम्मिलित हो जाने के बाद सरदार पटेल इन राज्यों में प्रजातंत्रीय प्रणाली की स्थापना को प्रोत्साहन देना चाहते थे। जब तक अंग्रेजों का शासन रहा, भारतीय नरेशों को अपने निरंकुश शसान के लिए केन्द्रीय सरकार से समर्थन मिलता रहा। परंतु स्वाधीन भारत की केन्द्रीय सरकार राजाओं की निरंकुशता का समर्थन करने को तैयार नहीं थी। सरदार पटेल ने भारतीय नरेशों को समझाया कि अंग्रेजी साम्राज्य को केवल जन आंदोलन के माध्यम से ही समाप्त किया गया था। इसलिए राजसत्ता का प्रयोग जनता द्वारा ही होना चाहिए। सरकार ने उन्हें यह चेतावनी भी दी कि वह किसी भी राज्य में अशांति एवं अव्यवस्था फैलने नहीं देगी। ऐसी स्थिति में भारतीय नरेशों की अपनी विवशता स्पष्ट दिखाई दी।
देशी राज्यों का भारतीय संध में विलय
दूसरी तरफ सरदार पटेल ने दुविधाग्रस्त नरेशों को यह आश्वासन भी दिया कि उनकी व्यक्तिगत संपत्ति और अधिकारों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया जायेगा। इस आश्वासन ने स्थिति को बदलने में सहयोग दिया और सभी नरेशों ने सरदार पटेल के सुझाव को स्वीकार करते हुए अपने-अपने राज्यों में प्रजातांत्रिक व्यवस्था को लागू करने तथा सुधारों को कार्यान्वित करने का आश्वासन दिया। परिणामस्वरूप इन राज्यों में एक रक्तहीन क्रांति हो गयी। देशी रियासतें राष्ट्र की मुख्य धारा से जुङ गई।
देशी रियासतों में प्रजातंत्रीय व्यवस्था का आश्वासन तो मिल गया, परंतु भारत सरकार के लिए एक अन्य समस्या आ खङी हुई। सरदार पटेल चाहते थे कि देशी रियासतों के लोगों को भी आर्थिक, शैक्षणिक एवं अन्य क्षेत्रों में समान अवसर एवं सुविधाएँ मिले। परंतु इसमें सबसे बङी बाधा आर्थिक संसाधनों की थी। अधिकांश देशी रियासतें आर्थिक दृष्टि से इतनी कमजोर एवं सीमित थी कि वे अपने ही बलबूते पर विकास की दिशा में कदम उठाने में असमर्थ थी। जनकल्याण की दृष्टि से उनके स्वतंत्र एवं पृथक अस्तित्व का औचित्य ही नहीं था। अतः काफी विचार-विमर्श के बाद सरदार पटेल ने दो प्रकार की पद्धतियों को प्रोत्साहन दिया – एक बाह्य विलय और दूसरी आंतरिक संगठन।
बाह्य विलय में छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर अथवा पङौसी प्रांतों में विलय करके एक बङा राज्य बनाया गया। आंतरिक संगठन के अन्तर्गत इन राज्यों में प्रजातंत्रीय शासन व्यवस्था लागू की गयी जिससे आम आदमी भी दैनिक प्रशासन से जुङकर उसका सहयोगी एवं समर्थक बन गया। दूसरे शब्दों में राज्यों में नरेशों के निरंकुश शासन के स्थान पर अब जनता का शासन स्थापित हो गया।
दिसंबर, 1947 ई. में उङीसा और छतीसगढ के 39 राज्यों का उङीसा और मध्य प्रांत में विलय हुआ। फरवरी, 1948 ई. में 17 दक्षिणी राज्यों को बंबई प्रांत के साथ मिला दिया गया। जून, 1948 ई. में गुजरात तथा काठियावाङ के सभी राज्यों को भी बंबई प्रदेश के साथ सम्मिलित कर दिया गया। पूर्वी पंजाब, पटियाला तथा पहाङी क्षेत्र के राज्यों को मिलाकर एक नया संघ बनाया गया जिसे पेप्सू कहा गया। इसी आधार पर मत्स्य, विन्ध्य प्रदेश और राजस्थान का निर्माण किया गया।
एकीकृत राजस्थान का निर्माण
स्वतंत्रता के समय राजस्थान में 19 राज्य ऐसे थे जिनके शासकों के सम्मान में तोपों की सलामी दी जाती थी। 3 छोटे राज्य ऐसे थे जिनके राजाओं को यह सम्मान प्राप्त नहीं था। इन सभी राज्यों के अलावा अजमेर-मेरवाङा का छोटा सा इलाका भी था जो सीधे अंग्रेजी शासन के नियंत्रण में था। ये सभी मिलकर एक विशाल संगठित क्षेत्र का निर्माण करते थे। अतः भारत सरकार के रियासती विभाग (राज्य मंत्रालय) ने इन सभी को मिलाकर एकीकृत राजस्थान का निर्माण करने का निश्चय किया। परंतु यह काम बहुत ही सीवधानी, संयम और धीरे-धीरे सम्पन्न किया गया।
एकीकृत राजस्थान का निर्माण पाँच चरणों में पूरा हो गया।
स्वतंत्रता और देश के विभाजन के साथ ही समूचे भारत में साम्प्रदायिक दंगे-फसाद शुरू हो गये। अलवर और भरतपुर में इसका प्रभाव कुछ ज्यादा ही रहा और जब इन राज्यों के नरेश शांति एवं व्यवस्था को कायम रखने में विफल रहे तो भारत सरकार ने यहाँ के नरेशों को अपने-अपने राज्यों की शासन व्यवस्था भारत सरकार को सौंप देने की सलाह दी जो कि मान ली गयी। चूँकि भारत सरकार की नीति विलीनीकरण अथवा समूहीकरण की थी, अतः यह सोचा गया कि अलवर, भरतपुर, करौली और धौलपुर इन चारों राज्यों को मिलाकर एक संघ बना दिया जाय।
27 फरवरी, 1948 को भारत सरकार ने इन चारों राज्यों के नरेशों को दिल्ली बुलाया तथा उनके सामने संघ का प्रस्ताव रखा, जिसे सभी ने स्वीकार कर लिया। इस संघ का नाम मत्स्य संघ रखा गया और 18 मार्च, 1948 को इसका विधिवत उद्घाटन हुआ। इस प्रकार, एकीकृत राजस्थान के निर्माण का प्रथम चरण पूरा हुआ।
जिस समय मत्स्य संघ के निर्माण की वार्ता चल रही थी, उसी दौरान भारत सरकार राजस्थान के छोटे राज्यों – बांसवाङा, बून्दी, डूंगरपुर, झालावाङ, किशनगढ, कोटा, प्रतापगढ, शाहपुरा और टोंक के नरेशों के साथ भी वृहद संघ के निर्माण हेतु बातचीत कर रही थी। सभी की स्वीकृति मिल जाने के बाद इन राज्यों को मिलाकर संयुक्त राजस्थान का निर्माण किया गया। इसका उद्घाटन 25 मार्च, 1948 को किया गया। इसके साथ ही दूसरा चरण पूरा हुआ।
संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के तीन दिन बाद ही उदयपुर के महाराणा ने भी इसमें सम्मिलित होने की इच्छा व्यक्त की। अतः संयुक्त राजस्थान राज्य के पुनर्गठन की आवश्यकता हुई। अंत में 18 अप्रैल, 1948 को नये संयुक्त राजस्थान के निर्माण की घोषणा की गयी और पं.जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं इसका उद्घाटन किया। एकीकृत राजस्थान के निर्माण का यह तीसरा महत्त्वपूर्ण चरण था।
अब केवल जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर के राज्य शेष रह गये। उनके विलीनीकरण अथवा सामूहीकरण में विलंब का एकमात्र कारण यही रहा कि भारत सरकार इस उधेङबुन में फँसी रही कि उन्हें संयुक्त राजस्थान में सम्मिलित किया जाय अथवा तीनों सीमांत राज्यों – जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर को मिलाकर एक केन्द्रीय शासन क्षेत्र के रूप में रखा जाय। क्योंकि इन तीनों की सीमाएँ पाकिस्तान से सटी हुई थी और सुरक्षा की दृष्टि से इस लंबे सीमांत की रक्षा एक कठिन समस्या थी। परंतु स्थानीय जनता की भावना शेष राजस्थान के साथ संयुक्त होने की थी।
अतः भारत सरकार को अपना विचार बदलना पङा और 14 जनवरी, 1949 को सरदार पटेल ने वृहत्तर राजस्थान के निर्माण की घोषणा कर दी। 30 मार्च, 1949 को इसका विधिवत उद्घाटन भी सरदार पटेल के हाथों ही हुआ। 15 मई, 1949 को मत्स्य संघ का शासन दायित्व भी वृहत्तर राजस्थान को हस्तांतरित कर दिया गया और यह राजस्थान राज्य का एक अंग बन गया। एकीकरण का चौथा चरण पूरा हुआ।
अब केवल सिरोही तथा अजमेर-मेरवाङा बाकी रह गये। काफी समय बाद सिरोही को भी राजस्थान में मिला दिया गया और अंत में केन्द्र शासित अजमेर-मेरवाङा के क्षेत्र को भी राजस्थान में शामिल कर दिया गया। इस प्रकार, एकीकृत राजस्थान अस्तित्व में आया।
निष्कर्ष
नरेश राज्यों का शांतिपूर्वक भारतीय संघ में विलय भारत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की अभूतपूर्व सफलता थी। केवल हैदराबाद के मामले में पुलिस कार्यवाही का सहारा लेना पङा। इस संपूर्ण प्रक्रिया में स्थानीय नेताओं तथा अनेक नरेशों ने भी आपसी मतभेदों को भुलाकर सरकार को पूरा-पूरा सहयोग दिया। इससे भारतीय गणराज्य के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण सहायता मिली। राजनैतिक दृष्टि से भारत की एकता सुदृढ हो गयी।
