हङप्पाई लिपि

सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि- हङप्पाई लिपि को अब तक पढने में सफलता प्राप्त नहीं हुई है, लेकिन निश्चित रूप से यह वर्णमालीय ( जहाँ प्रत्येक चिन्ह एक स्वर अथवा व्यंजन को दर्शाता है) नहीं थी क्योंकि इसमें चिन्हों की संख्या कहीं अधिक है – लगभग 375 से 400के बीच । सामान्यत: हङप्पाई मुहरों पर एक पंक्ति में कुछ लिखा है जो संभवत: मालिक के नाम और उसके पद को दर्शाता है। विद्वानों ने यह भी समझाने की कोशिश करी है कि इन मुहरों पर बना चित्र (एक जानवर का चित्र) अनपढ लोगों को सांकेतिक रूप से इसका अर्थ बताता है।हङप्पाई लिपि के अधिकांश लेख मुद्राओं पर पाए गए हैं। इन लेखों में से अधिकांश लेख बहुत ही छोटे हैं। हङप्पाई लिपि पर विभिन्न पशु (वृषभ, एक श्रृंगी बैल, धार्मिक रुपायन आदि ) मुहरों के अग्र/पश्च भाग से मिलते हैं।
इस लिपि को सिंधु लिपि, सरस्वती लिपि के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी क्योंकि कुछ मुहरों पर दाईं ओर चौङा अंतराल है और बाईं ओर यह संकुचित है जिससे लगता है कि उत्कीर्णक ने दाईं ओर से लिखना आरंभ किया और बाद में स्थान कम पङ गया ।
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सिंधु सभ्यता के स्थलों के उत्खनन से कई वस्तुएँ मिलि हैं जिन पर लिखावट मिलि है , वो वस्तुएं निम्नलिखित हैं –
- मुहरें
- ताँबे के औजार
- ताँबे तथा मिट्टी की लघुपट्टीकाएँ,आभूषण
- अस्थि छङें
- प्राचीन सूचना पट्ट
अलग – अलग विद्वानों ने इस लिपि के बारे में अलग – अलग विचार प्रस्तुत किए हैं–
- टी. एस बरो , फादर हेरास के अनुसार – यह लिपि द्रविङ लिपि के समान है।
- सामचंद्रन, एस.आर.राव के अनुसार – यह लिपि संस्कृत लिपि के समान है।
- लेंग्टन, हण्टर महोदय के अनुसार – यह लिपि ब्राह्मी लिपि से साम्यता रखती है।
- माधोस्वरूप वत्स ने इस लिपि को गोमूत्रीशैली( छोटे – छोटे अभिलेखों के रूप में लिपि का प्राप्त होना) भी कहा है।
महत्वपूर्ण तथ्य –
- सर्वमान्य मत -हङप्पाई लिपि को भावचित्रात्मक लिपि की संज्ञा दी गई है – इस लिपि में 250-400 अक्षर हैं तथा इसमें 64 मूल चिन्ह हैं।
- यह लिपि छोटे- छोटे समूहों में अभिलेख के रूप में मिलि है।
- सबसे बङा अभिलेख धौलावीरा से मिला है जिसमें 17 अक्षर हैं।तथा इस अभिलेख में लगभग 26 चिन्ह हैं। यह लिपि दायें से बायीं तथा बायीं से दायीं ओर लिखी गई है। अत: इसे बाउसट्रोफेण्डम लिपि की श्रेणी में रखा गया है।
- इस लिपि का अधिक प्रचलन नहीं था क्योंकि संपूर्ण हङपा सभ्यता के काल के दौरान लिपि के अक्षरों में परिवर्तन नगण्य है।
- लिपि का उपयोग छोटे से वर्ग का रहा होगा यह व्यापक रूप से प्रचलित नहीं थी।
- इस लिपि में मुहरों का अपना अलग ही स्थान रहा है। लगभग 3000 मुहरें विभिन्न स्थलों से मिलि हैं जिनमें से 1200 मुहरें मोहनजोदङो से मिलि हैं।
- मुहरों का निर्माण सेलखङी से हुआ था। कालीबंगा के उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के ठीकरों पर भी कुछ लिखा हुआ मिला है।
- इस लिपि का प्रथम साक्ष्य 1853 ई. में मिला लेकिन यह स्पष्ट रूप से 1923 तक प्रकाश में आई।
सिंधु लिपि का सुमेर के साथ संबंध –
- वैडल ने अपनी पुस्तक (दि इण्डो सुमेरियन सील्स डेसिफर्ड ) में यह बताया है कि 4 शता. ई.पू. में सुमेर निवासियों ने सिंधु घाटी में अपना उपनिवेश स्थापित किया और वहाँ उन्होंने अपनी भाषा और लिपि का भी प्रचलन किया । यहाँ पर वैडल ने इण्डो – आर्यों की सुमेर से उत्पत्ति सिद्ध करने की कोशिश की और मुहरों पर वैदिक साहित्य में दिए गए राजाओं और उनकी राजधानियों के नाम भी पढे ।
- डॉ प्राणनाथ का भी यही विचार है कि सिन्धु लिपि सुमेर की लिपि से ही उत्पन्न हुई।
- मिस्र , क्रीत , पश्चिमी एशिया और भारतवर्ष में पाई गई प्राचीनतम लिपियों की चिन्ह सांकेतिक प्रकृति के कारण उन लिपियों में पूरी तरह से एकरुपता है, किन्तु हमारे ज्ञान की कमी के कारण यह कहना कठिन है कि सुमेर वासियों ने अपनी लिपि सिंधु घाटी से प्राप्त की या फिर सिंधु घाटी के लोगों ने अपनी लिपि सुमेरवासियों से ली।
- एक अन्य विचारधारा के अनुसार सिंधु घाटी के लोग या तो आर्य थे या असुर थे जो बाद में मैसोपोटामिया और पश्चिमी एशिया की ओर चले गए। इस विचारधारा के अनुसार सिंधु लिपि का जन्म भारत में हुआ और यहीं से इसे सुमेर ले जाया गया ।
- अत: वैडल और डॉ. प्राणनाथ के विचारों को स्वीकार करना कठिन है।
सिंधु लिपि का मिस्र और मैसोपोटामिया से संबंध –
- जी.आर.हंटर ने सिंधु लिपि के बारे में लिखा है कि सिंधु लिपि के बहुत से चिन्ह प्राचीन मिस्र की सांकेतिक लिपि से मिलते जुलते हैं।
देवताओं को मानव रूप में प्रस्तुत करने वाले लगभग सभी चिन्हों के मिस्र लिपि में पर्याय मिल जाते हैं और वे सभी निश्चित हैं। यह मानना ही पङता है कि हमारे इस विचार का आधार सही है कि हमारी लिपि कुछ मिस्र की लिपि से और कुछ मैसोपोटामिया की लिपि से ली गई है। कई ऐसे चिन्ह हैं जो तीनों ( सिंधु लिपि, मिस्र लिपि, मैसोपोटामिया लिपि) लिपियों में पाए जाते हैं , जैसे – वृक्ष, मछली , पक्षी आदि के चिन्ह। हमारे पास यह सिद्ध करने के लिए मानव वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं कि सिंधु सभ्यता काल में नील, दजला, सिंधु की घाटियों की जातीयों में किसी प्रकार का जातीय संबंध विद्यमान था।
हङप्पाई लिपि (सिंधु लिपि) की समस्या-
- डेविड डिरिंगर ने सिंधु लिपि के विषय पर लिखा है कि इन दो समस्याओं का उल्लेख करना आवश्यक है- लिपि की उत्पत्ति और अन्य लिपियों के जन्म पर इसका प्रभाव । यह स्पष्ट दिखाई देता है कि प्राप्त शिलालेखों में प्रबंधानुकुल और रेखीय प्रतीत होने वाली सिंधु घाटी की लिपि वास्तव में साँकेतिक थी , किन्तु यह निर्णय कर पाना वास्तव में असंभव है कि यह देशी थी या बाहर से लाई गई थी। इस लिपि में और कीलाक्षर तथा प्राचीन एलमाइट लिपियों की पूर्वज लिपि में किसी प्रकार का संबंध शायद रहा होगा , किन्तु यह कह पाना असंभव है की यह संबंध क्या रहा होगा । इस वर्णन से स्पष्ट है कि सिंधु लिपि की उत्पत्ति के संबंध में निश्चयपूर्वक कुछ भी कह पाना संभव नहीं है।
सिंधु लिपि का पढना-
- सिंधु लिपि अभी तक पढी नहीं कई है और कई लोगों ने इस लिपि को पढने की कोशिश करी लेकिन वे सफल नहीं हो पाये । व्हीलर महोदय ने इस संबंध में ठीक ही कहा है कि – इस लिपि का अनुवाद करने के लिए आवश्यक साधन अभी तक प्राप्त नहीं हो सके हैं । हमें आवश्यकता है – एक द्विभाषी शिलालेख की जिसमें हमें एक भाषा का पूरा ज्ञान हो या एक लंबा शिलालेख जिसमें कुछ महत्वपूर्ण भाग बार-बार प्रयोग किये गये हों। वर्तमान शिलालेखों में से अधिकांश छोटे हैं सबसे लंबे शिलालेख(धौलावीरा) में भी केवल 17 अक्षर ही हैं । उनकी भिन्नता के कारण हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि उनका संबंध मुहरों पर पाए जाने वाले नमूनों से है। कभी-कभी इन शिलालेखों से पिता का नाम , उपाधि या व्यवसाय का पता भी चलता है। किन्तु हमें ठीक कुछ भी पता नहीं है। अत हम कह सकते हैं कि सिंधु लिपि को पढने के लिए किसी द्विभाषीय(जिसमें एक भाषा का हमें पूर्ण ज्ञान हो) शिलालेख को प्राप्त करना बहुत ही आवश्यक है अन्यथा सिंधु लिपि रहस्य का विषय बनी रहेगी।