किसान आंदोलन क्या है

भारतीय इतिहास में किसानों द्वारा अपने ऊपर किए जा रहे अत्याचार या शोषण का प्रतिरोध करना कोई नई बात नहीं रही है। अपना प्रतिरोध दर्ज करने के लिए उन्होंने जो तरीके अपनाए वो आमतौर पर दो तरह के थे – एक, अत्याचारी शासक या स्थानीय जमींदार के अधिकार क्षेत्र से दूर जाकर किसी और इलाके में खेती करना तथा दूसरा, सीधे तौर पर उन अत्याचारियों का विरोध करना। यह विरोध अक्सर आक्रामक या हिंसक रूप भी अख्तियार कर लेता था।
पहले किस्म के विरोध प्रदर्शन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात हमें याद रखनी चाहिए कि आज से करीब 100 साल पहले तक शासक वर्ग के लिए भूमिकर आय का सबसे बड़ा व महत्वपूर्ण स्रोत था। ऐसे में किसी शासक के इलाके के किसान शासक से तंग आकर उसका इलाका छोड़ किसी और इलाके में चले जाएं तो इसका सीधा असर उस शासक की आय पर पड़ता था। इसलिए शासक वर्ग यह कभी नहीं चाहता था कि किसान उसका इलाका छोड़कर जाएं।
स्वतंत्रता से पहले किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में जो आंदोलन किए वे गांधीजी के प्रभाव के कारण हिंसा और बरबादी से भरे नहीं होते थे, लेकिन अब स्वतंत्रता के बाद जो किसानों के नाम पर आंदोलन या उनके आंदोलन हुए वे हिंसक और राजनीति से ज्यादा प्रेरित थे।
देश में नील पैदा करने वाले किसानों का आंदोलन, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली में जो आंदोलन हुए थे, इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी, वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं ने किया। आमतौर पर किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी, लेकिन चूंकि अंग्रेजों की नीतियों पर सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली। सन् 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। वास्तव में जितने भी ‘किसान आंदोलन’ हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। उस समय के समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया।
…अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिंक करे