आधुनिक भारतइतिहासकिसान आन्दोलन

19 वी. शता. के प्रमुख किसान विद्रोह एवं आंदोलन

 प्रमुख किसान विद्रोह एवं आंदोलन

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में जिन लोगों ने शीर्ष स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उनमें आदिवासियों, जनजातियों और किसानों का अहम योगदान रहा है।

स्वतंत्रता से पहले किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में जो आंदोलन किए वे गांधीजी के प्रभाव के कारण हिंसा और बरबादी से भरे नहीं होते थे, लेकिन अब स्वतंत्रता के बाद जो किसानों के नाम पर आंदोलन या उनके आंदोलन हुए वे हिंसक और राजनीति से ज्यादा प्रेरित थे।

देश में नील पैदा करने वाले किसानों का आंदोलन, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली में जो आंदोलन हुए थे, इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी, वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं ने किया। आमतौर पर किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी, लेकिन चूंकि अंग्रेजों की नीतियों पर सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली।


सन् 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। वास्तव में जितने भी ‘किसान आंदोलन’ हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। उस समय के समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया।

महत्त्वपूर्ण किसान आंदोलन-

नील विद्रोह(1859-60)

नील विद्रोह(neel-rebellion) किसानों द्वारा किया गया एक आन्दोलन था जो बंगाल के किसानों द्वारा सन् 1859में किया गया था।यह विद्रोह 1857 की क्रांति के बाद किया गया सबसे पहला संगठित विद्रोह था।

अंग्रेज अधिकारी बंगाल व बिहार के रैय्यतों से भूमि लेकर बिना पैसे दिये ही रैय्यतों को नील की खेती करने को मजबूर करते थे, जबकि किसान अपनी उपजाऊ जमीन पर चावल की खेती करना चाहते थे।

इस विद्रोह के आरम्भ में नदिया जिले के किसानों ने 1859 के फरवरी-मार्च में नील का एक भी बीज बोने से मना कर दिया। यह आन्दोलन पूरी तरह से अहिंसक था तथा इसमें भारत के हिन्दू और मुसलमान दोनो ने बराबर का हिस्सा लिया।

नील की खेती करने से इंकार करने वाले किसानों को नील बागान मालिकों के दमनचक्र का सामना करना पङता था।

1859 में उत्पीङित किसानों ने अपने खेतों में नील न उगाने का निर्णय  लेकर बागान(नील) मालिकों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।

नील विद्रोह की पहली घटना बंगाल के नदिया जिला में स्थित गोविंदपुर गांव में सितंबर,1859 में हुई।स्थानीय नेता दिगंबर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने नील की खेती बंद कर दी।

1860 तक नील आंदोलन नदिया,पावना,खुलना,ढाका,मालदा,दीनाजपुर आदि क्षेत्रों में फैल गया।किसानों की एकजुटता के कारण बंगाल में 1860 तक सभी नील कारखाने बंद हो गये।

नील विद्रोह को बंगाल के बुद्धिजीवियो,प्रचार माध्यमों, धर्म प्रचारकों और कहीं-कहीं छोटे जमींदारों और महाजनों का भी सहयोग प्राप्त हुआ।

बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग ने अखबारों में अपने लेख द्वारा तथा जनसभाओं के माध्यम से विद्रोह के प्रति अपने समर्थन को व्यक्त किया। इसमें हिन्दू पैट्रियाट के संपादक हरिश्चंद्र मुखर्जी की विशेष भूमिका रही।

नील बागान मालिकों के अत्याचार का खुला चित्रण दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक नील दर्पण में किया है।

इस विद्रोह या आंदोलन के सफल होने के पीछे एक महत्त्वपूर्ण कारण था किसानों में अनुशासन, एकता,संगठन तथा सहयोग की भावना।

नील विद्रोह भारतीय किसानों का पहला सफल विद्रोह था, कालांतर में भारत के स्वाधीनता संघर्ष में यह सफलता प्रेरणा बन गई।

नील आयोग का गठन (31 मार्च, 1860 ई.)

1860 में नील आयोग के सुझाव पर जारी की गई सरकारी अधिसूचना जिसमें उल्लेख था  कि रैय्यतों को नील की खेती करने के लिए बाध्य नहीं किया जाये तथा यह सुनिश्चित किया जाये कि सभी प्रकार के विवादों का निपटारा कानूनी तरीके से किया जाये। इसका आंदोलन पर गहरा प्रभाव पङा, जिससे आंदोलनकारियों को एक बङी सफलता मिली। 

पाबना विद्रोह(1873-76)

1870 से 1880 के बीच का दशक बंगाल के लिए किसान आंदोलनों का दशक था।

पावना क्षेत्र जो पटसन की कृषि हेतु प्रसिद्ध है, के 50 प्रतिशत से अधिक किसानों को 1850 के अधिनियम दस के द्वारा जमीन पर कब्जे का अधिकार तथा कुछ सीमा तक लगान में वृद्धि के लिए संरक्षण प्राप्त था।पावना के किसानों को अधिनियम 10 के द्वारा मिली सुविधाओं के बावजूद भी जमींदारों को शोषण का शिकार होना पङता था। 1793 से 1882 के बीच लगान में करीब 7गुना वृद्धि  तथा भूमि की नाप-जोख हेतु छोटे मापों के प्रयोग जैसी ज्यादतियों का किसानों को समाना करना पङता था।

जमीदारों के अत्याचार के विरुद्ध 1873 में पावना जिले के यूसुफशाही परगने में एक  एक किसान संघ की स्थापना हुई। इस संघ ने किसानों को संगठित करने,लगान न देने,जमींदारों के विरुद्ध मुकदमें के खर्च के लिए चंदा एकत्र करने जैसे कार्य किये।

साहूकारों और महाजनों के चंगुल से बचने के लिए 1874 में सिरूर तालुका के करडाह गांव में विद्रोह प्रारंभ हुआ, जो देखते-2 छः तालुकों के 33 स्थानों तक फैल गया।आंदोलनकारियों का उद्देश्य था, साहूकारों के साथ व्यक्तिगत हिंसा का प्रयोग केवल तभी हुआ जब वे दस्तावेजों को बचाना चाहे।

12मई,1875 को भीमरथी तालुका के सूपा कस्बे में यह आंदोलन हिंसक हो गया, शेष स्थानों पर यह आंदोलन अहिंसक रहा।

दक्कन विद्रोह के समय महाजनों का सामाजिक बहिष्कार किया गया। जिसके अंतर्गत उनकी दुकानों से सामान खरीदने उनके खेत को जोतने आदि पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

बुलोटीदार जिसे गांव की प्रजा भी कहा जाता था में नाई,धोबी,बढई,मोची तथा लुहार शामिल थे को जमींदारों के कार्य करने से रोका गया।

दक्कन विद्रोह के समय सामाजिक बहिष्कार का आंदोलन पूना,अहमदाबाद,शोलापुर एवं सतारा जिले तक फैला था।

सरकार द्वारा इस विद्रोह के कारणों और प्रकृति को जांचने के लिए नियुक्त आयोग ने गरीबी और इसके परिणामस्वरूप किसानों की ऋणग्रस्तता को ही विद्रोह का एकमात्र कारण बताया।

आयोग की सिफारिश पर सरकार द्वारा पारित कृषक राहत अधिनियम 1873 व्यवस्था दी गई कि सिविल प्रोसीड्यर के क्रियान्वयन के अंतर्गत किसानों की जमीनों को जब्त नहीं किया जायेगा।

पावना के अलावा यह विद्रोह ढाका,मैमन सिंह,बिदुरा,बाकरगंज,फरीदपुर,बोगरा और राजशाही में भी फैल गया।

पावना विद्रोह की प्रमुख विशेषता थी,इसका कानून के दायरे में रहना।किसानों की यह लङाई केवल जमींदारों से थी।

आंदोलनकारियों का नारा था कि हम सिर्फ महारानी की रैय्यत होना चाहते हैं।

सरकार ने भारतीय दंड संहिता के दायरे में ही इस आंदोलन को दबाने का प्रयास किया। अंग्रेज लेफ्टिनेंट गवर्नर कैंपबेल ने पावना विद्रोह का समर्थन किया।

इस आंदोलन की एक विशेषता यह भी थी कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलनरत रहें, सांप्रदायिक सौहार्द का यह एक अनूठा उदाहरण था।

बंगाल के बुद्धिजीवी बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय तथा आर.सी.दत्त ने पावना आंदोलन का समर्थन किया।

इण्डियन एसोसिएशन के सदस्य सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस,द्वारकानाथ गांगुली आदि ने किसानों की रक्षा हेतु अभियान चलाया।

पावना आंदोलन के प्रमुख नेता ईशान चंद्र राय तथा शंभुपाल थे।

दक्कन विद्रोह(1874-75)

महाराष्ट्र के पुणे और अहमदनगर (दक्कन) जिलों में किसानों ने साहूकारों के खिलाफ विद्रोह किया।

1867 में सरकार द्वारा लगान की दर में 50 प्रतिशत वृद्धि कर देने तथा कई वर्ष से लगातार फसल के खराब होने के कारण किसानों को लगान की अदायगी हेतु साहूकारों पर नर्भर होना पङा।

दक्कनी साहूकारों में अधिकांश बाहरी मारवाङी तथा गुजराती थे जिनसे लगान अदायगी के लिए किसानों को कर्ज लेना होता था, कर्ज देने के बदले साहूकार किसानों के घर और जमीन को रेहन रखते थे, इस तरह किसान बिल्कुल महाजनों के चंगुल में होता था।

मोपला विद्रोह

मोपला लोग केरल के मालाबार क्षेत्र में रहने वाले इस्लाम धर्म में धर्मांतरित अरब एवं मलयाली मुसलमान थे।

अधिकांश मोपला छोटे किसान या छोटे व्यापारी थे, जो अपनी गरीबी और अशिक्षा के कारण थंगल कहे जाने वाले काजियों और मौलवियों के प्रभाव में थे।मोपला किसान मालाबार के हिन्दू नंबूदरी एवं नायर उच्च जाति,भूस्वामियों के बटाईदार या असामी काश्तकार थे।

नंबूदरी और नायर जैसे उच्च जाति के भूस्वामियों को शासन,पुलिस और न्यायालय सं संरक्षण प्राप्त था।

मोपला या मोप्पला विद्रोह इसलिए सांप्रदायिक हो गया क्योंकि अधिकांश जमींदार या भूस्वामी हिन्दू थे और काश्तकार मुसलमान थे।

मोपला विद्रोह 19वी.शता. में अत्यधिक आत्मघाती हो गया था क्योंकि इन मोपलाओं के मन में यह भावना घर कर गई थी कि जो मोपला लङते हुए हुए मारा जायेगा वह अहदियों की तरह सीधे स्वर्ग जायेगा।

19 वी. शता. में 1836 से 1854 के बीच मोपलाओं के 22 विद्रोह हुए जो मुख्यतःदक्षिणी मालाबार के इर्नाडु और वल्लनाडु तालुकों में हुआ।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार उन्नीसवीं सदी का मोपला विद्रोह ग्रामीण आतंकवाद का एक विशिष्ट उदाहरण था, जिसकी जङे स्पष्टः कृषि व्यवस्था में थी। यह मोपला विद्रोह का प्रथम चरण था।

1921 ई. में द्वितीय मोपला विद्रोह हुआ जिसके कारणों में कृषिजन्य असंतोष था, लेकिन कालांतर में असहयोग आंदोलन के स्थगित किये जाने पर इस आंदोलन ने सांप्रदायिक, राजनीतिक स्वरूप धारण कर लिया।

1921 में केरल के मालाबार जिले में काश्तकारों ने जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, 1920 में मंजेरी में हुए मालाबार कांग्रेस सम्मेलन ने इस आंदोलन को उकसाया।

खिलाफत आंदोलन के नेता शौकत अली, गांधी जी और मौलाना अबुल कलाम आजाद ने मोपला विद्रोहियों का समर्थन किया।

15फरवरी, 1921 को सरकार ने इस क्षेत्र में निषेधाज्ञा लागू कर खिलाफत तथा कांग्रेस के नेता यू. गोपाल मेनन,पी.मोईनुद्दीन कोया, याकूब हसन तथा के.माधव नायर को गिरफ्तार कर लिया।

मुसलमानों के धार्मिक गुरु तथा स्थानीय नेता अली मुसलियार को गिरफ्तार करने के प्रयास में मस्जिदों पर छापे मारे गये, परिणाम स्वरूप पुलिस को विद्रोहियों के आक्रामक तेवर का सामना करना पङा, कई विद्रोही मारे गये। मोपला विद्रोह की उग्रता को देकते हुए सरकार ने सैनिक शासन की घोषणा कर दी, परिणामस्वरूप मोपला विद्रोह को कुचल दिया गया।

फङके आंदोलन

1879 के करीब महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फङके का उदय हुआ जिन्होंने महाराष्ट्र में बुद्धिजीवियों के सचेत राष्ट्रवाद तथा जनसाधारणके जुझारु राष्ट्रीयता के बीच सामंजस्य स्थापित किया। फङके को आंदोलन के लिए प्रेरित करने वाले कारण थे, महादेव गोविंद रानाडे का धन के बहिर्गमन पर दिया गया व्याख्यान तथा 1876-77 में पश्चिमी भारत में पङने वाले भयंकर अकाल।

इन घटनाओं ने फङके को भावनात्मक रूप से प्रभावित किया। फङके ने रामोसी तथा महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले किसानों के सहयोग से एक संगठन बनाया, जिसके सहयोग से उसने डकैतियां डालकर धन एकत्र करना, संचार व्यवस्था को तहस-नहस करना, विद्रोह करना आदि को अपना लक्ष्य बनाया।

फङके ने हिन्दू राज्य की स्थापना का नारा दिया, इनके आंदोलन से स्पष्ट क्रांतिकारी आंतकवाद का पूर्वाभ्यास मिलता है।

1880 में फङके को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया जहां तीन वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई।फङके की मृत्यु के बाद रामोसियों का गिरोह 1887 तक दौलता रामोसी के नेतृत्व में सक्रिय रहा।

19 वी. सदी के उत्तरार्द्ध में हुए किसान आंदोलन का स्वरूप

  • 1858 के बाद के किसान आंदोलन की सबसे बङी शक्ति किसान थे, जिन्होंने अपनी मांगों के लिए सीधे लङाई शुरु की, इनके दुश्मन थे बागान मालिक, जमींदार तथा महाजन।
  • इस समय का किसान आंदोलन निश्चय ही किसानों के सामाजिक उत्पीङन के विरुद्ध क्रोध का प्रस्फुटन मात्र था। अपनी पारंपरिक जीवन शैली पर जोर तथा उसे सुरक्षित रखने की उत्कट इच्छा ने किसानों के विद्रोह के लिए मजबूर किया।
  • इस समय का किसान आंदोलन किसी बदलाव या परिवर्तन के लिए न होकर केवल यथास्थिति को बनाये रखने के लिए था।अधिकांश काश्तकार आंदोलन के पीछे बेदखली तथा लगान की अधिकता ही कारण था।
  • 1858 के बाद के किसान आंदोलन के प्रति सरकार का रवैया भी उदार था, 1858 से पूर्व हुए किसान आंदोलनों तथा आदिवासी विद्रोहों को सरकार ने प्रत्यक्ष चुनौती देकर कुचल दिया था लेकिन 1858 के बाद सरकार ने किसानों के प्रति समझौतावादी दृष्टिकोण अपना कर उनके आंदोलन की सफलता में आंशिक सहयोग दिया।
  • इस समय के किसान आंदोलनों के प्रति सरकार इस लिए समझौता वादी थी क्योंकि इन आंदोलनों ने सरकार को चुनौती नहीं दी थी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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