आंग्ल-मराठा युद्ध

आंग्ल-मराठा युद्ध का वर्णन हमने इससे पहले वाली पोस्ट में कर दिया है,अतः कृपया वहाँ से आंग्ल-मराठा युद्ध के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि अंग्रेजों ने भारत का शासन मुगल सम्राट से नहीं,बल्कि मराठों से प्राप्त किया था। क्योंकि औरंगजेब की मृत्यु के बाद देश में राजनीतिक शून्यता उत्पन्न हो रही थी।
मराठों ने इस मान्यता को भरने का प्रयास किया। जिस समय अंग्रेज अपने अस्तित्व के लिए फ्रांसीसियों से संघर्ष कर रहे थे, उस समय मराठा शक्ति निर्णायक शक्ति के रूप में उभर चुके थे। किन्तु अंग्रेजों के प्रथम प्रहार से मराठा शक्ति लङखङाने लगी और उसकी दुर्बलताएँ स्पष्ट हो गयी। अतः वेलेजली व लार्ड हेस्टिंग्ज के आक्रमणों से मराठा संघ चूर-2 हो गया। मराठों ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली । मराठा राज्य और पेशवा का पद समाप्त हो गया। मराठों के इस दुर्भाग्यपूर्ण पतन के निम्नलिखित कारण थे-
मराठों के पतन के कारण
- आंतरिक दुर्बलताएँ- मराठों में एकता का अभाव था। मराठा राज्य एक राज्य नहीं था बल्कि एक संघ राज्य था, जिसमें प्रत्येक शक्तिशाली सरदार अपने राज्य में स्वतंत्र था। पानीपत के युद्ध के बाद मराठा संघ में विघटन की प्रक्रिया आरंभ हो गयी थी। पेशवा माधवराव प्रथम के समय तक नाममात्र की एकता बनी रही।
किन्तु उसकी मृत्यु के बाद वह एकता समाप्त हो गयी। मराठा सरदारों पर पेशवा का नियंत्रण शिथिल हो गया। सिंधिया,होल्कर,भोंसले और गायकवाङ न केवल स्वतंत्र शासकों की भाँति व्यवहार कर रहे थे, बल्कि उनमें पारस्परिक संघर्ष भी आरंभ हो गया।
बङौदा का शासक गायकवाङ बहुत पहले ही अंग्रेजों से मैत्री कर चुका था और इसलिए आंग्ल-मराठा युद्धों में वह तटस्थ रहा। भोंसले ने भी ह्रदय से कभी किसी से मिलकर कार्य नहीं किया । फलस्वरूप मराठा संघ छिन्न-भिन्न हो गया और अंग्रेजों को उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने तथा एक- एक करके उन्हें पराजित करने का अवसर मिल गया। इन आंतरिक दुर्बलताओं के कारण मराठों का पतन अवश्यंभावी बन गया। - प्रशासकीय दोष-मराठों ने कभी अपने राज्य की प्रशासकीय व्यवस्था को सुसंगठित करने का प्रयास नहीं किया। उन्होंने अपने नागरिकों की शिक्षा,रक्षा,विकास और नैतिक उन्नति के लिए कोई कार्य नहीं किया।
मराठों का एकमात्र लक्ष्य मुगल सम्राट पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके विभिन्न प्रांतों से केवल चौथ व सरदेशमुखी प्राप्त करना था।
मराठा अपने इस लक्ष्य से कभी ऊपर नहीं उठ सके तथा उन्होंने अपनी सारी शक्ति इसी में लगा दी। राज्य के नागरिकों का नैतिक विकास न होने के कारण राज्य को ईमानदार कर्मचारी और पदाधिकारी नहीं मिल सके।प्रशासन में सर्वत्र भ्रष्टाचार फैल गया। मराठा सरदार व मंत्री अपने स्वार्थों से ऊपर न उठ सके।
अतः जिस समय उनका अंग्रेजों से संघर्ष हुआ, उस समय तक मराठा अपने जातीय गुण खो चुके थे। सामंत प्रथा तथा ऊँच-नीच की भावना से मराठा समाज में दरार उत्पन्न हो गयी और वे अपने आदर्शों से भटक गये। उत्तरी भारत से लूटमार में प्राप्त हुई संपत्ति ने उन्हें विलासप्रिय बना दिया। भोग-विलासी जीवन से मराठा सरदारों का नैतिक पतन हो गया। इन परिस्थितियों में वे अपने साम्राज्य की रक्षा नहीं कर सके। - अयोग्य नेतृत्व-मराठा सरदारों में कूटनीतिक योग्यता का अभाव था। मुगल साम्राज्य के अस्तित्व को बनाये रखने के प्रयत्नों का परिणाम यह हुआ कि उन्हें व्यर्थ ही अहमदशाह अब्दाली से टक्कर लेनी पङी तथा राजपूत,जाट और सिक्ख जो मुगल सत्ता के क्षीण होने पर केन्द्रीय सत्ता से मुक्त होना चाहते थे, उनसे भी शत्रुता मोल लेनी पङी।
मराठा सरदार इस बात की तो कल्पना ही नहीं कर सके कि उन्हें राजपूतों,सिक्खों और जाटों के सहयोग की आवश्यकता पङेगी। अतः जब अफगानों से संघर्ष हुआ, तब वे अकेले पङ गये।
इसके अतिरिक्त 18 वीं शताब्दी के अंत तक सभी योग्य मराठा सरदारों की मृत्यु हो चुकी थी। महादजी सिंधिया की 1794 में, अहिल्याबाई होल्कर की 1795 में, तुकोजी होल्कर की 1797में और नाना फङनवीस की 1800 में मृत्यु हो गयी। उनके बाद जसवंतसिंह होल्कर का नेतृत्व प्राप्त हुआ। इनमें योग्यता और चरित्र दोनों की कमी थी। दूसरी ओर अंग्रेजों की योग्य राजनीतिज्ञों का नेतृत्व प्राप्त हुआ। फलस्वरूप मराठे कूटनीतिज्ञ अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर सके। - आर्थिक व्यवस्था के प्रति उदासीनता- मराठों ने अपने राज्य की आर्थिक व्यवस्था की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने राज्य में कृषि, उद्योग और व्यापार को उन्नत करने का प्रयास नहीं किया।
राज्य में उचित कर व्यवस्था के अभाव में राज्य को उचित आय प्राप्त नहीं हो रही थी। इसके अतिरिक्त उत्तरी भारत के जिन प्रदेशों पर उन्होंने अधिकार किया था, वहाँ भी उन्होंने आर्थिक ढाँचे में सुधार करने का प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने तो अपनी आय का प्रमुख साधन लूटमार बना लिया था।अतः वे न तो अपनी प्रजा को संपन्न बना सके और न अपने राज्य की आर्थिक नींव सुदृढ कर सके। ऐसा राज्य जो केवल लूट के धन पर ही निर्भर हो, स्थायी नहीं हो सकता। - दुर्बल सैन्य व्यवस्था- यदि मराठे गुरिल्ला युद्ध पद्धति तथा घुङसवार सेना तक अपने को सीमित रखते तो शायद अधिक सफल हो सकते थे। महादजी सिंधिया को छोङकर अन्य सभी मराठा सरदारों ने पुरानी पद्धति को ही अपनाये रखा। लेकिन गुरिल्ला पद्धति से वे अधिक सफल होते, इसमें संदेह है।
यदि इस पद्धति से समस्त भारत में मराठा राज्य फैल भी जाता तो भी वह सुरक्षित नहीं रह सकता था, विशेषकर जब किसी विदेशी सत्ता से संघर्ष करना हो । सरदेसाई ने लिखा है कि मराठों में वैज्ञानिक युद्ध-पद्धति का अभाव था। जिसके परिणामस्वरूप मराठा सेना में कुशलता की कमी आ गयी। थी। इतिहासकार केलकर के अनुसार मराठों की असफलता का मुख्य कारण प्रशिक्षित कौशल के विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया, क्योंकि मराठा सेना की ऐसी धाक जम गई थी कि मराठा सेनाओं को देखते ही भयभीत राज्य की सेनाएँ हतोत्साहित हो जाती थी। - सामाजिक दुर्बलताएँ- मराठों में सामंत प्रणाली तथा जाति प्रथा के कारण सामाजिक दुर्बलताएँ उत्पन्न हो गयी थी। सामंत प्रणाली मराठा राज्य के विस्तार में सहायक हुई थी। पहले केवल राजा ही सामंतों की नियुक्ति करता था, किन्तु आगे चलकर पेशवा भी अपने सामंत नियुक्त करने लगा।
इस प्रकार छत्रपति के सामंतों के साथ पेशवा के भी सामंत उत्पन्न हो गये। इन दोनों वर्गों के सामंत कभी मिलकर कार्य नहीं कर सके। - देशी शक्तियों से शत्रुता- मराठों ने अंग्रेजों के प्रभाव को रोकने के लिये भारत की देशी शक्तियों के सहयोग की उपेक्षा की। राजपूतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करके उन्हें अपना शत्रु बना लिया था। मुगल बादशाह की ओर से मराठों ने जाट राजा सूरजमल पर आक्रमण करके जाटों को भी नाराज कर दिया।
- मैसूर तथा हैदरबाद का पतन-दक्षिण भारत में प्रमुख तीन शक्तियाँ थी-मराठा,निजाम और मैसूर के शासक। तीनों शक्तियाँ अंग्रेजों से लोहा ले सकती थी। यदि ये तीनों अंग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बना लेती तो अंग्रेजों का अस्तित्व ही खतरे में पङ जाता ।
किन्तु ये शक्तियाँ अंग्रेजों की कूटनीति व आपसी फूट का शिकार हो गयी। निजाम व मराठों की शत्रुता तो हमेशा से ही थी। अतः निजाम ने मराठों के विरुद्ध सुरक्षा प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों से सहायक संधि कर ली। अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति से मैसूर को मराठों से अलग कर दिया। नाना फङनवीस ने तो मैसूर को शासक टीपू की शक्ति को कुचलने के लिए अंग्रेजों को सहयोग देने में भी संकोच नहीं किया। - नाना फङनवीस की नीतियाँ- मराठों के पतन के लिए सभी आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण हो चुका था। और नाना फङनवीस की नीतियों ने उन परिस्थितियों को आर बल प्रदान कर दिया। चूँकि नाना का कार्यक्षेत्र केवल दक्षिण भारत था, अतः उसके लिए निजाम और टीपू ही मुख्य शत्रु थे।
सालबाई की संधि के बाद,महादजी की इच्छा के विरुद्ध उसने टीपू की शक्ति को कुचलने के लिए अंग्रेजों को सहयोग दिया। जिसके परिणामस्वरूप टीपू के पतन के बाद दक्षिण भारत में शक्ति-संतुलन बिगङ गया और अब केवल अंग्रेज ही मराठों के एकमात्र प्रतिद्वंद्वी रह गये।
नाना अपनी सत्ता सुरक्षित रखने के लिए किसी अन्य मराठा सरदार के महत्त्व को बढने ही नहीं देना चाहते थे। उसने तो सर्वाधिक योगेय सरदार महादजी सिंधिया पर भी कभी विश्वास नहीं किया। नाना ने अपने प्रभुत्व को बनाये रखने के लिए पेशवा माधवराव द्वितीय को न तो उचित प्रशिक्षण दिया और न उसे जीवन का कोई अनुभव होने दिया। अतः नाना फङनवीस की नीतियों ने मराठा संघ को अत्यंत ही दुर्बल अवस्था में लाकर खङा कर दिया।
Reference : https://www.indiaolddays.com/