जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

जैन धर्म के सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
निवृतिमार्गी-
- जैन धर्म भी बौद्ध धर्म की भाँति निवृतिमार्गी धर्म है।
- जैन धर्म एक भिक्षु धर्म है।
- इस धर्म का मानना है कि मानव शरीर क्षणभंगुर है।जैन धर्म मनुष्यों को दुःखों से छुटकारा दिलाने हेतु तृष्णाओं के त्याग पर बल देता है।
- जैन धर्म कहता है कि मनुष्य को धन, परिवार, संसार आदि को त्याग कर भिक्षु बन कर भ्रमण करके जीवन यापन करना चाहिए।
पंचमहाव्रत–
- अहिंसा– जैन साधु – साध्वी किसी भी जीव की हिंसा नहीं करते हैं। छोटे से छोटे जीव को भी पीङा नहीं देने की प्रतिज्ञा के साथ ही जीवन जीते हैं।
2. सत्य– जैन साधु तथा साध्वी कभी भी झूठ नहीं बोलते चाहे कितनी भी कठिनाई उनके जीवन में आ जाये।
3. अपरिग्रह– जैन साधु अपने पास पैसा नहीं रखते। वे किसी भी प्रकार की चल या अचल संपत्ति नहीं रखते तथा न ही किसी चीज का संग्रह करते हैं।
4. अस्तेय-जैन धर्म में चोरी नहीं कर सकते तथा किसी ने चोरी कर भी ली तो वह पापी कहलाता है।
5. ब्रह्मचर्य– जैन साधुओं को पूरी तरह से ब्रह्मचर्य का पालन करना पङता है। उनके नियम काफि सतर्कता भरे होते हैं। साधुओं के लिए स्री चाहे वह किसी भी उम्र की हो तथा साध्वी के लिए पुरुष चाहे वह किसी भी उम्र का हो उसके लिए विजातीय स्पर्श निषिद्ध हैं।
पंचअणुव्रत –
जैन धर्म में गृहस्थों के लिए पंच अणुव्रतों की व्यवस्था है। इनके पालन करने में ज्यादा कठिनाई नहीं होती।
- अहिंसा अणुव्रत
- सत्य अणुव्रत
- अस्तेय अणुव्रत
- अपरिग्रह अणुव्रत
- ब्रह्मचर्य अणुव्रत
सृष्टि-
- जैन धर्म संसार को शाश्वत, नित्य, अनिश्वर तथा वास्तविक और अस्तित्व वाला मानता है।
ईश्वर-
- जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। संसार का सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है। जैन धर्म कहता है कि संसार पहले भी था, अब भी है, तथा आगे भी रहेगा।
नग्नता-
- 23 वें तीर्थंकर पाशर्वनाथने अपने अनुयायियों को वस्र धारण करने की अनुमति दी थी लेकिन महावीर स्वामी ने पूर्ण नग्नता का आदेश दिया।
कर्म-
- जैन धर्म मनुष्य को स्वयं अपने भाग्य का निर्धारक मानता है। मनुष्य अपने जीवन का खुद ही उत्तरदायी होता है। उसके सभी सुख व दुःख उसके कर्मों पर निर्भर करते हैं। मनुष्य जैसे कर्म करेगा वैसे ही फल पायेगा तथा उसे वैसा ही पुनर्जन्म मिलेगा।
- मनुष्य के 8 प्रकार के कर्म होते हैं-
- ज्ञानवरणीय
- दर्शनावरणीय
- वेदनीय
- मोहनीय
- आयुकर्म
- नामकर्म
- गोत्रकर्म
- अंतराम कर्म
त्रिरत्न–
- मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्मफल का नाश करे और इस जन्म में किसी भी प्रकार का कर्मफल संग्रहीत न करे। यह लक्ष्य त्रिरत्नों का पालन तथा अभ्यास करने से प्राप्त होता है।
- जैन धर्म के त्रिरत्न – सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक आचरण।
- सम्यक ज्ञान – सत्य तथा असत्य का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है।
- सम्यक दर्शन – यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा ही सम्यक दर्शन है।
- सम्यक चरित्र (आचरण) – अहितकर कार्यों का निषेध तथा हितकारी कार्यों का आचरण ही सम्यक चरित्र है।
पांच प्रकार का ज्ञान-
- मतिज्ञान
- श्रुतिज्ञान
- अवधिज्ञान
- मनःपर्याय ज्ञान
- कैवल्य ज्ञान
स्यादवाद–
किसी वस्तु के संदर्भ में स्याद् पूर्वक 7 प्रकार के निर्णय लिये जा सकते हैं-
- स्याद् है।
- स्याद् नहीं है।
- स्याद् है और नहीं है।
- स्याद् अव्यक्त है।
- स्याद् है और स्याद अव्यक्त है।
- स्याद् नहीं है और अव्यक्त है।
- स्याद् है और नहीं है तथा अव्यक्त है।
18 पाप-
- जैन धर्म में 18 तरह के पापों का वर्णन किया गया है।
- हिंसा
- अस्तेय
- चोरी
- असंयम में रति तथा संयम में अरति
- मैथुन
- राग
- द्वेष
- परिग्रह
- मिथ्यादर्शन रूपी शल्य
- दोषारोपण
- चुगली
- माया
- लोभ
- कलह
- क्रोध
- मान
- परनिंदा
- मिथ्या
Reference : https://www.indiaolddays.com/