उत्तर वैदिक कालीन राजनीतिक स्थिति – इस काल में पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार तक आर्यों का विस्तार (सदानीरा नदी से गंडक नदी तक था)। तथा दक्षिण में विदर्भ (महाराष्ट्र) तक आर्यों का विस्तार।
उत्तर वैदिक काल तक आर्यों के निवास वाला संपूर्ण क्षेत्र आर्यावर्त ही था।
राजनीतिक विस्तार में जितना योगदान उत्साही राजाओं का (लौहे के औजारों से) था , उतना ही योगदान ब्राह्मणों ( अग्नि के द्वारा जंगलों को साफ किया गया)का था ।
इस काल में जन जनपद बन गए। अर्थात क्षेत्रीय राज्य की स्थापना हुई। भरत जन + पुरु जन = कुरुजन पद बना। (गंगा-यमुना के ऊपरी दोआब में स्थिति)
आर्यों के अधीन क्षेत्र-
कुरु जनपद
कुरु जनपद की प्रारंभिक राजधानी सासंदीवाद थी।
कुरु जनपद में 950 ई.पू. में कौरव– पांडव के मध्य महाभारत का युद्ध हुआ था। कुरु जनपद के प्रमुख शासक- बाहलिक प्रतिपीय, परीक्षित(अथर्ववेद में नाम), जन्मजेय, निचक्षु। निचक्षु के समय हस्तिनापुर बाढ से नष्ट हो गया था, अतः कोशांबी को नई राजधानी बनाया गया था।
पांचाल जनपद
(क्रीवी + तुर्वस) यह जनपद बरेली, बदायूं , रुहेलखंड तक विस्तृत था। पांचाल जनपद के प्रमुख शासक- प्रवाहन (विद्वानों के संरक्षक शासक ),जैबाली, आरुणिश्वेतकेतु(उच्च कोटी के दार्शनिक ) । आरुणिश्वेतकेतु ने पांचाल में परिषद का आयोजन किया था जिसमें याज्ञवलक्य विजेता बने थे। शतपथ ब्राह्मण में कुरु,पांचाल जनपदों को वैदिक सभ्यता का प्रतिनिधि कहा गया है।आरुणिश्वेतकेतु ने अपने गुरु राहुल गण की सहायता से अग्नि के द्वारा नए क्षेत्र प्राप्त किये थे।यह एक दार्शनिक राजा था।
कोसल जनपद
सरयू नदी के तट पर स्थित (यू . पी.) । रामकथा से जुङा हुआ स्थल ।
काशी जनपद
वरणवती नदी(गंगा की धारा)के तट पर स्थित। वाराणसी इसकी राजधानी थी। काशी जनपद के प्रमुख राजा- अजातशत्रु (दार्शनिक राजा)।
मत्स्य जनपद
अलवर, भरतपुर, जयपुर तक का क्षेत्र मत्स्य जनपद कहलाता था। इसकी राजधानी विराटनगर थी।
विदेह
विदेह की राजधानी मिथिला थी। यह जनपद सदानीरा (गंडक) नदी के तट पर स्थित था। शासक– जनक, विदेह माधव (दार्शनिक शासक – जिन्हें वेदों का ज्ञान हो वह राजा।)
गांधार
यह जनपद सिंधु नदी के तट पर स्थित । यहाँ की राजधानी तक्षशिला थी।
मद्र जनपद
यह जनपद भी सिंधु नदी के तट पर स्थित था। यहाँ की राजधानी पंजाब-स्यालकोट के निकट स्थित थी।
कैकेय जनपद
यह जनपद (गांधार -व्यास के बीच स्थित था।) शासक- अश्वपति कैकेय(दार्शनिक राजा)
ऐसे क्षेत्र जो आर्यों के अधीन नहीं थे –
उत्तरवैदिक काल में राजा की शक्ति में वृद्धि हुई, क्योंकि अब लोहे का उपयोग युद्ध के रूप में होने लगा था। राजा की शक्ति में वृद्धि पता साहित्यों से भी चलता है। इस काल में राजा के साथ अनेक धार्मिक अनुष्ठान जुङ गए । उदा. के तौर पर – राजाभिषक संस्कार, अश्वमेघ यज्ञ, राजसूय यज्ञ।
राजा अनेक उपाधियाँ लेने लगा जैसे – सम्राट, स्वराट, प्रकराट आदि।
ऐतरेय ब्राह्मण में अलग-2 क्षेत्र के राजाओं द्वारा अलग-2 उपाधि
लिए जाने का उल्लेख मिलत है। ऐतरेय ब्राह्मण में राजत्व सिद्धांत का उल्लेख मिलता है और प्रतिष्ठा में वृद्धि को स्पष्ट करता है।
प्रमुख यज्ञ-उत्तरवैदिक काल में यज्ञ की प्रतिष्ठा बहुत उच्च स्थान तक पहुँच गई थी।
1.अश्वमेघ यज्ञ-
यह यज्ञ राज्य विस्तार हेतु किया जाता था।
इसमें 4 रानियाँ,4 रत्निन/वीर(अधिकारी), 400 सेवक । इन सबके अलावा 1हाथी, 1 श्वेत बैल, 1 श्वेत घोङा, 1श्वेत छत्र आवश्यक होता था।
3दिन तक यह यज्ञ चलता था।
साल भर बाद अभिषिक्त घोङे की यज्ञ में 600 बैलों (सांड) के साथ बलि दी जाती थी।
2.राजसूय यज्ञ
राजा की प्रतिष्ठा एवं सम्मान बढाने हेतु आयोजित होता था।
1 वर्ष से अधिक समय तक चलता था।
17 नदियों का जल आवश्यक था। (जिसमें सरस्वती नदी का जल प्रधान माना जाता था। )
12 अधिकारी , 1 रानी की उपस्थिती आवश्यक थी।
इस यज्ञ के दौरान अक्षक्रिडा (पासे का खेल),गोहरन(गाय को हांक कर लाना) आदि खेलों में राजा को विजेता बनाया जाता था।
3.वाजपेय यज्ञ
वाजपेय यज्ञ का उद्येश्य राजा की शारीरिक और आत्मिक शक्ति में वृद्धि करना और उसे नवयौवन प्रदान करना था।
रथ धावन (रथों की दौङ) का आयोजन होता था। जिसमें राजा को विजेता बनाया जाता था।
इस यज्ञ को वैदिक काल का ओलंपिक भी कहा जाता है।
अधिकारियों की संख्या में बढोतरी (20) हो गई थी । इनमें से 12 स्थायी अधिकारी थे जो इस प्रकार थे-
विदथ का उल्लेख बहुत कम बार मिलता है(अथर्ववेद में 22 बार)
सभा और समिति का पहले की तुलना में महत्त्व बढा। यह राजा पर नियंत्रण का कार्य करती थी। अथर्ववेद में सभा का 7 बार तथा समिति का 13 बार प्रयोग किया गया है।
इस काल में कर प्रणाली नियमित हुई।(स्थायी कर व्यवस्था)
बलि(दैनिक उपयोग की वस्तुएँ) नामक कर प्रणाली भी स्थाई हो गयी थी।
भाग, भोग, शुल्क नामक कर भी उत्पन्न हुये।
भाग– भूराजस्व कर
भोग– हमेशा दैनिक उपभोग की वस्तुएँ
शुल्क – व्यापारिक कर (चुंगी) ये सभी कर अनिवार्य थे।
राजकोष कुछ समृद्ध हुआ। फिर भी राजा की स्थायी सेना और रक्त संबंध से पृथक नौकरशाही का विकास इस काल में भी नहीं हो पाया था। कारण- इस काल में भी अर्थव्यवस्था निर्वाह रूप में बनी हुई थी। अधिशेष– उत्पादन सिमित था। क्योंकि कृषि के प्रमुख पेशा बनने पर भी अब भी कृषि कर्म मुख्यतः काँसे एवं ताँबे के उपकरणों से होता था। लोहे के कृषि उपकरण बहुत कम मिले हैं। अतः कृषि उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पायी थी।