चोलकालीन शासन प्रबंध
चोल संस्कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष उसकी शासन-व्यवस्था है। चोल सम्राटों ने एक विशिष्ट शासन व्यवस्था का निर्माण किया,जिसमें प्रबल केन्द्रीय नियंत्रण के साथ ही साथ बहुत अधिक मात्रा में स्थानीय स्वायत्तता भी थी। चोल प्रशासन के अध्ययन के लिये हमें मुख्यतः लेखों पर निर्भर रहना पङता है। साथ ही साथ इस काल के साहित्य तथा विदेशी यात्रियों के विवरण से भी न्यूनाधिक जानकारी मिल जाती है।
चोल कालीन इतिहास को जानने के साधन
सम्राट
चोल साम्राज्य अपने उत्कर्ष काल में संपूर्ण दक्षिण भारत में फैला हुआ था। अन्य युगों की भाँति इस समय भी शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक ही था, किन्तु राजा के अधिकारों, आचरण एवं उसकी शान-शौकत में पहले से अधिक वृद्धि हो गयी। उसका अभिषेक एक भव्य राजप्रासाद में होता था और यह एक प्रभावशाली उत्सव हुआ करता था। चोल शासक अपना राज्याभिषेक तंजोर, गंगैकोण्डचोलपुरम्, चिदंबरम्, काञ्चीपुरम् आदि स्थानों में किया करते थे। वे चक्रवर्तिगल, त्रिलोक सम्राट जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियाँ ग्रहण करते थे। मंदिरों में सम्राट की प्रतिमा भी स्थापित की जाती थी तथा मृत्यु के बाद दैव रूप में उसकी पूजा होती थी। तंजोर के मंदिर में सुन्दर चोल (परांतक द्वितीय) तथा राजेन्द्र चोल की प्रतिमायें स्थापित की गयी थी। सम्राट बहुसंख्यक कर्मचारियों, सामंतों एवं परिचारकों से घिरा रहता था।
चीनी लेखक चाऊ-जू-कूआ सम्राट के भोज का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है – राजकीय भोजों के समय राजा तथा उसके दरबार के चार मंत्री राजसिंहासन के नीचे खङे होकर अभिवादन करते हैं। उसके बाद वहाँ उपस्थित सभी लोग संगीत, गीत और नृत्य प्रारंभ कर देते हैं। राजा शराब नहीं पीता है, किन्तु वह मांस खाता है। देशी प्रथा के अनुसार वह सूती वस्त्र पहनता है। अपनी मेज के लिये तथा रक्षक के रूप में करा्य करने के लिये उसने हजारों नर्तकी लङकियों को नियुक्त कर रखा है। प्रतिदिन तीन हजार लङकियां बारी-बारी से उसकी सेवा में लगी रहती हैं। इससे स्पष्ट है, कि सम्राट की दिनचर्या काफी शान-शौकत से परिपूर्ण थी।
अधिकारी तंत्र
चोल प्रशासन में एक सुविस्तृत अधिकारी तंत्र था, जिसमें विभिन्न दर्जे के पदाधिकारी होते थे। केन्द्रीय अधिकारियों की कई श्रेणियाँ होती थी। सबसे ऊपर की श्रेणी को पेरुन्दनम् तथा नीचे की श्रेणी को शिरुदनम् कहा जाता था। लेखों में कुछ उच्चाधिकारियों को उडनकूट्टम् कहा गया है, जिसका अर्थ है – सदा राजा के पास रहने वाला अधिकारी। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार ये राजा निजी सहायक थे, जो राजा तता नियमित कर्मचारी तंत्र के बीच संपर्क का कार्य करते थे। उनका कार्य संबंधित विभागों के कर्मचारियों को राज्य की नीति बताना तथा राजा को प्रांतों की आवश्यकताओं से अवगत कराना था। राज्य के प्रबंध में भी इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी।समाज में अधिकारियों का अलग वर्ग होता था।अधिकारियों के पद वंशानुगत होने लगे थे। अब नागरिकों तथा सैनिक अधिकारियों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं था। उनकी नियुक्ति तथा पदोन्नति के नियमों के विषय में कोई खास जानकारी प्राप्त नहीं होती है। पदाधिकारियों को नकद वेतन के स्थान पर भूमिखंड दिये जाते थे। चोल लेखों से पदाधिकारियों की कार्य प्रणाली पर प्रकाश पङता है। सर्वप्रथम ओलै नामक पदाधिकारी राजा के आदेशों का कच्चा मसौदा तैयार करता था। इसकी जाँच ओलैनायगम् नामक वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा की जाती थी। उसके बाद इन आदेशों को स्थायी पंजियों में लिपिबद्ध कर संबंधित विभागों तक पहुँचा दिया जता था।
स्थानीय प्रशासन
प्रशासन की सुविधा के लिये विशाल चोल साम्राज् छः प्रांतों में विभाजित किया गया था। प्रांत को मंडलम् कहा जाता था, जिसका शासन एक वायसराय के हाथ में होता था। जिस पद पर प्रायः राजकुमारों की ही नियुक्ति की जाती थी, किन्तु कभी-कभी इस पद पर वरिष्ठ अधिकारियों अथवा पराजित किये गये राजाओं की भी नियुक्ति हो जाती थी। मंडलम् के शासकों के पास अपनी सेना तथा न्यायालय होते थे। कालांतर में यह पद आनुवंशिक हो गया। प्रत्येक मंडलम् में केन्द्रीय सरकार का एक प्रतिनिधि रहता था, जो मंडलीक शासक की गतिविधियों पर दृष्टि रखता था। मंडलम् का विभाजन कई कोट्टम् अथवा वलनाडु में हुआ था, जो आजकल की कमिश्नरियों के बराबर होते थे। प्रत्येक कोट्टम में कई जिले होते थे। जिले की संज्ञा नाडु थी। नाडु की सभा को नाट्टार कहा जाता था, जिसमें सभी गाँवों तथा नगरों के प्रतिनिधि होते थे। इसका मुख्य कार्य भू-राजस्व का प्रबंध करना था। इसे किसी भू-राजस्व में छूट दिला देने का भी अधिकार था। नाडु अपने नाम से दान देते तथा अक्षयनिधियाँ प्राप्त करते थे। नाट्टार को भूमि का वर्गीकरण करने तथा उसके अनुसार राजस्व निर्धारित करने का भी काम सौंपा गया था।इसे किसी भू-राजस्व में छूट दिलवाने का भी अधिकार था। कभी-कभी यह मंदिर का प्रबंध भी करती थी। कुलोत्तुंग के शासन काल के दसवें वर्ष पुरमलैनाडु के नाट्टार ने तीर्थमलै मंदिर (सेलम जिला) का प्रबंध देखने के लिये पुजारी की नियुक्ति की जाती थी। करिकाल के समय के जंबै लेख से पता चलता है, कि वाणगप्पाडि के नाडु को वालैयूरनक्कर योगवाणर के मंदिर का प्रबंध सौंपा गया था। कुछ स्थानों में हम नाट्टार को अन्य संघटनों तथा राजकीय पदाधिकारियों के साथ मिलकर न्याय प्रशासन एवं अन्य कार्यों में सहयोग करते हुये पाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, कि शांति व्यवस्था कायम करने अथवा भूमि का प्रबंध करने के उद्देश्य से विभिन्न नाडूओं को मिलाकर संगठन बनाये जाते थे। कुलोत्तुंग तृतीय के समय में तिरुवारंगलुम् मंदिर के एक लेख में संपूर्ण नाडु के एक संगठन का उल्लेख मिलता है। राजराज प्रथम के एक लेख में बारह नाडुओं की महासभा की चर्चा है। नाडु के निर्दोष पाँच सौ तथा मुखिया का भी उल्लेख हुआ है। नाडु के खर्च के लिये नाडुविनियोगम् नामक कर लिया जाता था। नाडु के अंदर अनेक ग्राम संघ थे, जिन्हें कुर्रम् कहा जाता था। व्यापारिक नगरों में नगरम् नामक व्यापारियों की एक सभा होती थी। व्यापारियों की संस्थाओं (श्रेणियों)को सरकार की ओर से मान्यता प्राप्त थी। उनके पास अपनी सेना भी थी, जिससे वे अपनी सुरक्षा करते थे।बङे नगरों में अलग कुर्रम गठित किये जाते थे, जिन्हें तनियूर अथवा तंकुर्रम् कहा जाता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम-सभा होती थी।
ग्राम-शासन
स्वायत्त शासन पूर्णतया ग्रामों में ही क्रियान्वित किया गया। उत्तमेरूर से प्राप्त 919 तथा 929 ई. के दो लेखों के आधार पर हम ग्राम की कार्यकारिणी समितियों की कार्य प्रणाली का विस्तृत विवरण प्राप्त करते हैं। प्रत्येक ग्राम में अपनी सभा होती थी, जो प्रायः केन्द्रीय नियंत्रण से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से ग्राम शासन का संचालन करती थी। इस उद्देश्य से उसे व्यापक अधिकार प्राप्त थे।
उर
सभा या महासभा…अधिक जानकारी
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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