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चोल शासक राजेन्द्र प्रथम

राजेन्द्र प्रथम राजराज प्रथम का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था और उसकी मृत्यु के बाद 1014-15 ई. में चोल राज्य की गद्दी पर बैठा। वह अपने पिता के समान एक महत्वाकांक्षी एवं साम्राज्यवादी शासक था। उसकी सैनिक उपलब्धियों की सूचना हमें उसके विभिन्न लेखों से मिल जाती हैं।

सिंहल की विजय

राजराज प्रथम ने सिंहल पर आक्रमण कर वहाँ के कुछ प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया था। लेकिन संपूर्ण सिंहल पर उसका अधिकार नहीं हो पाया था। इस काम को पूरा करने के लिये राजराज प्रथम के पुत्र राजेन्द्र प्रथम ने सिंहल पर आक्रमण किया। सिंहल के राजा महिन्द पंचम को बंदी बनाकर चोल राज्य भेज दिया गया, जहाँ पर बारह वर्षों के बाद उसकी मृत्यु हो गयी। इसके साथ ही संपूर्ण सिंहल पर राजेन्द्र का अधिकार हो गया।

करन्दै ताम्रपत्रों में उसकी इस विजय का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार राजेन्द्र ने लंका के राजा के मुकुट, रानी, पुत्री, वाहन, इन्द्र का निर्मलहार (जो पाण्ड्य राजा द्वारा वहाँ धरोहर रखा गया था।) तथा संपूर्ण संपत्ति के ऊपर अपना अधिकार कर लिया। महावंश से भी इस विजय की पुष्टि होती है, जिसके अनुसार राजेन्द्र ने लंका पर पूर्ण अधिकार करने के बाद वहां के बौद्ध विहार को नष्ट कर दिया तथा संपूर्ण कोष अपने साथ उठा ले गया। महावंश से पता चलता है, कि महिन्द के पुत्र कस्सप ने छः माह के कङे प्रतिरोध के बाद सिंहल के दक्षिणी भागों को पुनः अपने अधिकार में कर लिया।

केरल तथा पाण्ड्य राज्यों की विजय

राजेन्द्र प्रथम ने पाण्ड्य तथा केरल राज्यों को जीतकर उन्हें एक अलग राज्य में परिणत कर दिया। तिरुवालंगाडु के ताम्रपत्र केरल तथा पाण्ड्य राज्यों के विरुद्ध राजेन्द्र की सफलताओं का उल्लेख करते हैं। ऐसा बताया गया है, कि उसके सेनापति दंडनाथ ने एक विशाल सेना के साथ पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण कर वहां के शासक को बुरी तरह पराजित कर दिया। उसने अपने एक पुत्र को दोनों स्थानों का वायसराय बनाया तथा उसे चोलपाण्ड्य की उपाधि प्रदान की। इस राज्य का मुख्यालय मदुरा में था।

पश्चिमी चालुक्यों से संघर्ष

1020-21 ई. में राजेन्द्र ने वेंगी के चालुक्य राज्य की ओर ध्यान दिया। वहाँ विमलादित्य के दो पुत्रों-विजयादित्य सप्तम तथा राजराज में राजसिंहासन के लिये संघर्ष चल रहा था। विजयादित्य का समर्थन कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य शासक जयसिंह द्वितीय तथा कलिंग के पूर्वी गंग शासक कर रहे थे। राजेन्द्र ने उनके विरुद्ध राजराज के पक्ष में समर्थन किया। जयसिंहर द्वितीय ने वेंगी पर आक्रमण कर विजयवाङा पर अधिकार कर लिया। इससे राजराज की स्थिति संकटग्रस्त हो गयी। फलस्वरूप राजेन्द्र चोल ने जयसिंह पर दोतरफा हमला किया। पश्चिम में जयसिंह की सेना मास्की में पराजित हुई तथा तुंगभद्रा दोनों के राज्यों की सीमा मान ली गयी। वेंगी में भी चोल सेना को सफलता मिली। जयसिंह का उम्मीदवार कई युद्धों में बुरी तरह परास्त किया गया।

कलिंग की विजय

चोल सेना वेंगी को जीतने के बाद कलिंग में घुस गयी, जहाँ उसने विजयादित्य के मित्र कलिंग के पूर्वी गंग शासक मधुकामानव (1019-38ई.) को दंडित किया। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार राजेन्द्र की कलिंग विजय का उद्देश्य गंगा घाटी की ओर अभियान करके अपनी विशाल शक्ति का प्रदर्शन करना था।

गंगाघाटी में अभियान

कलिंग से चोल सैनिकों ने गंगा घाटी के मैदानों में व्यापक अभियान किया। राजेन्द्र चोल के इस पूर्वी अभियान का विवरण भी तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों में मिलता है। इससे पता चलता है, कि उसने अपने पुत्र विक्रमचोल के नेतृत्व में एक विशाल सेना उत्तरी-पूर्वी भारत की विजय करने के लिये भेजी। विक्रम चोल ने उङीसा, बस्तर, इन्द्ररथ तथा दक्षिण कोशल राज्यों को जीता। इसके बाद उङीसा तथा बंगाल के बीच स्थित दंड-भुक्ति पर आक्रमण कर वहां के शासक धर्मपाल को उसने पराजित किया। यह बंगाल का कोई स्थानीय शासक था, जो पाल नरेश महीपाल का संबंधी रहा होगा। उसके बाद विक्रमचोल ने दक्षिणी राठ के राजा रणशूर तथा पूर्वी बंगाल के गोविन्दचंद्र को भी जीत लिया।ये दोनों भी सामंत शासक थे। गोविन्दचंद्र को जीतने के बाद उसने बंगाल के पाल शासक महीपाल के ऊपर आक्रमण कर उसे भी पराजित कर दिया। पराजित पाल नरेश युद्ध क्षेत्र से भाग गया। इस अभियान का उद्देश्य गंगा नदी का पवित्र जल लाना था। कहा जाता है, कि बंगाल के पराजित शासकों ने अपने सिर पर लाद कर गंगाजल चोल राज्य में पुहँचाया था। गंगाघाटी के अभियान की सफलता पर राजेन्द्र ने गंगैकोण्ड की उपाधि धारण की थी तथा इसके उपलक्ष्य में उसने गंगैकोण्डचोलपुरम् (त्रिचनापल्ली जिले में ) नामक एक नयी राजधानी की स्थापना की। उत्तरी-पूर्वी भारत के इस सफल सैन्य अभियान द्वारा राजेन्द्र ने उत्तर भारत के राजाों के बीच अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर दिया तथा चोलों की धाक संपूर्ण देश में जम गयी।

दक्षिण-पूर्व एशिया की विजय

राजेन्द्र चोल केवल भारतीय भूभाग में दिग्विजय करने से ही संतुष्ट नहीं हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी विजय पताका फैहराने के बाद उसने दक्षिणी-पूर्वी एशिया में सैन्य अभियान किया। उसने श्रीविजय (शैलेन्द्र) राज्य को जीतने के लिये एक शक्तिशाली नौसेना भेजी। इस राज्य के अंतर्गत मलय प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा तथा अन्य द्वीप भी सामिल थे। उसका यह अभियान सफल रहा था। शैलेन्द3 शासक संग्राम विजयोतुंगवर्मन पराजित हुआ तथा बंदी बना लिया गया। चोल सेना ने कडारम् तथा श्रीविजय को जीत लिया। शैलेन्द्र नरेस ने चोल शासक की अधीनता में रहने का वचन दिया तथा इस आश्वासन पर उसका राज्य वापस लौटा दिया गया। इस सैन्य अभियान का विवरण तिरुवालंगाडु ताम्रपत्र में मिलता है, जिसके अनुसार राजेन्द्र ने शक्तिशाली नौसेना के साथ समुद्र पार करके कटाह को जीत लिया था। राजेन्द्र चोल के शासन काल के आठवें वर्ष में उत्कीर्ण करन्डै ताम्रपत्रों में भी इस विजय का उल्लेख मिलता है। इससे यह भी पता चलता है, कि कम्बुज के शासक ने उसके साथ संधि स्थापित करने के लिये प्रार्थना की थी। राजेन्द्र चोल द्वारा श्रीविजय राज्य पर आक्रमण किये जाने तथा उसे जीतने का क्या उद्देश्य था- इस विषय में विद्वान एक मत नहीं हैं।

के.आर.हाल के अनुसार चोल राज्य तथा चीन के बीच व्यापारिक संबंध में यह राज्य एक कङी का कार्य करता था। अतः राजेन्द्र ने श्रीविजय को जीतना आवश्यक समझा।

नीलकंठ शास्त्री तथा रमेशचंद्र मजूमदार जैसे विद्वानों का विचार है, कि उसे समय चोलों का दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों के साथ व्यापार के संबंध बढते जा रहे थे। इस संबंध में श्रीविजय का राज्य बाधा उत्पन्न कर रहा था। अतः राजेन्द्र चोल ने इस राज्य पर आक्रमण कर दक्षिणी-पूर्वीू द्वीपों के साथ अपने राज्य के व्यापारिक संबंध को निर्विघ्न बना लिया। श्रीविज के साथ-साथ चोल सेना ने अंडमान निकोबार, अराकान तथा पेगू (बर्मा में स्थित) के राज्यों को भी जीत लिया था।

विद्रोहों का दमन

राजेन्द्र चोल को अपने शासन के अंतिम दिनों में पाण्ड्य तथा केरल राज्यों के विद्रोह का सामना करना पङा। ऐसा लगता है, कि जिस समय राजेन्द्र अपने राज्य से दूर दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों की विजय में लगा हुआ था, उसी समय उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुये इन राज्यों ने विद्रोह का झंडा खङा कर दिया।

उन्हें अनेक सामंतोंचेर, वेनाड, कूपक आदि से भी सहायता मिली। इन विद्रोहियों का नेतृत्व पाण्ड्य नरेश सुन्दर पाण्ड्य ने किया। किन्तु राजेन्द्र विचलित होने वाला नहीं था। उसने कठोर रुख अपनाते हुये अपने पुत्र युवराज राजाधिराज को इन्हें दबाने के लिये भेजा। राजाधिराज ने कई राजाओं एवं सामंतों की हत्या कर दी तथा विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया। 1041 ई. में सिंहल नरेश विक्रमाबाहु के नेतृत्व में सिंहल ने स्वतंत्र होने की चेष्टा की। राजेन्द्र ने राजाधिराज को एक सेना के साथ सिंहल पर आक्रमण करने को भेजा। ऐसा पता चलता है, कि राजाधिराज ने युद्ध में सिंहल नरेश का सिर काट दिया तथा वहां के विद्रोह का अत्यन्त बर्बरतापूर्वक दमन कर दिया।

पश्चिमी चालुक्यों से पुनः संघर्ष

राजेन्द्र को अपने शासन के अंत में वेंगी के प्रश्न पर पश्चिमी चालुक्यों से पुनः संघर्ष करना पङा। चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने वेंगी पर आक्रमण कर चोल सत्ता को चुनौती दी। उसने राजेन्द्र द्वारा संरक्षित वेंगी नरेश राजराज के विरुद्ध उसके सौतेले भाी विजयादित्य को वेंगी की गद्दी पर आसीन करने का प्रयास किया। राजेन्द्र इस समय तक काफी वृद्ध हो चुका था। अतः उसने अपने तीन सेनापतियों को चालुक्यों के विरुद्ध भेजा। चोलों तथा चालुक्यों की सेनाओं के बीच कालिदिदि में एक युद्ध हुआ, जो निर्णायक नहीं रहा। इसी बीच राजेन्द्र की मृत्यु हो गयी। कालांतर में उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी राजाधिराज ने कई युद्धों में चालुक्य सेनाओं को पराजित कर वेंगी में अपनी स्थिति पुनः सुदृढ कर ली थी।

इस प्रकार राजेन्द्र चोल की सेना ने अपनी विजय पताका गंगा से सिंहल द्वीप तक तथा बंगाल की खाङी के पार जावा, सुमात्रा एवं मलय प्रायद्वीप पर फहरा दी। यह उसकी अद्भुत सैनिक सफलता का प्रतीक है।

राजेन्द्र चोल महान शासक होने के साथ-साथ महान विजेता तथा निर्माता भी था. उसने सिंचाई के लिये सोलह मील लंबा एक भव्य तालाब खुदवाया था। वह शिक्षा एवं साहित्य का महान संरक्षक था। उसने वैदिक साहित्य के अध्ययन के लिये एक विशाल विद्यालय की स्थापना करवायी थी। वह युद्ध क्षेत्र में जितना महान था, शांति-काल में उतना ही कर्मठ था। राजेन्द्र चोल की मृत्यु 1044ई. में हुई थी।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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