इतिहासप्राचीन भारतराजपूत काल

उङीसा के मंदिरों का इतिहास

गुप्तकाल के बाद संपूर्ण भारत में मंदिर निर्माण की परंपरा आरंभ हो गयी थी। राजपूत शासक बङे उत्साही निर्माता थे। अतः इस काल में अनेक भव्य मंदिर, मूर्तियों एवं सुदृढ दुर्गों का निर्माण किया गया। राजपूतकालीन मंदिरों के भव्य नमूने भुवनेश्वर, खजुराहो, आबू पर्वत (राजस्थान) तथा गुजरात से प्राप्त होते हैं।

यहाँ हम केवल उङीसा के मंदिरों के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।

उङीसा के मंदिर

नागर शैली का विकास अधिकतम निखरे रूप में उङिसा के मंदिरों में दिखाई देता है। यहाँ 8 वीं शता. से 13वीं शता. तक अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। पहाङियों से घिरा होने के कारण यह प्रदेश अधिकांशतः विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा और यही कारण है, कि यहाँ पर निर्मित कुछ श्रेष्ठ मंदिर आज भी सुरक्षित हैं।

उङीसा के मंदिर मुख्यतः भुवनेश्वर, पुरी तथा कोणार्क में हैं, जिनका निर्माण 8 वीं से 13वीं शता. के बीच हुआ। भुवनेश्वर के मंदिरों के मुख्य भाग के सम्मुख चौकोर कक्ष बनाया गया है। इसे जगमोहन (मुखमंडप अथवा सभामंडप) कहा जाता है। यहां उपासक एकत्रित होकर पूजा-अर्जना करते थे। जगमोहन का शीर्ष भाग पिरामिडाकार होता था। इनके भीतरी भाग सादे हैं, किन्तु बाहरी भाग को अनेक प्रकार की प्रतिमाओं तथा अलंकरणों से सजाया गया है । गर्भगृह की संज्ञा देउल थी। बङे मंदिरों में जगमोहन के आगे एक या दो मंडप और बनाये जाते थे, जिन्हें नटमंदिर तथा भोगमंदिर कहते थे।

शैली की दृष्टि से उङीसा के मंदिर तीन श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं-

  1. रेखा देउल- इसमें शिखर ऊँचे बनाये गये हैं।
  2. पीढा देउल- इसमें शिखर क्षितिजाकार पिरामिड प्रकार के हैं।
  3. खाखर (खाखह) – इसमें गर्भगृह दीर्घाकार आयतनुमा होता है तथा छत गजपृष्ठाकार बनती है।

मंदिरों में स्तंभों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। इनके स्थान पर लोहे की शहतीरों का प्रयोग मिलता है। यह एक आश्चर्यजनक तथा प्राविधिक आविष्कार था। मंदिरों की भीतरी दीवारों पर खजुराहो के मंदिरों जैसा अलंकरण प्राप्त नहीं होता है।

परशुरामेश्वर मंदिर

उङीसा के प्रारंभिक मंदिरों में भुवनेश्वर के परशुरामेश्वर मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है, जिसका निर्माण ईसा की सातवी-आठवीं शता. के लगभग हुआ। यह बहुत बङा नहीं है तथा इसकी कुल ऊँचाई 44 फुट है। गर्भगृह 20 फुट के धरातल पर बना है। बङी-2 पाषाण शिलाओं को एक दूसरे पर रखकर बिना किसी जुङाई के इसे बनाया गया है। गर्भगृह के सामने लंबा आयताकार मुखमंडप है। इसके ऊपर ढालुआँ छत है। मुखमंडप में तीन द्वार बने हैं। गर्भगृह तथा मुखमंडप में भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं।

मुक्तेश्वर का मंदिर

परशुरामेश्वर मंदिर के पास ही मुक्तेश्वर नामक एक छोटा सा मंदिर है। मंदिर एक नीची कुर्सी पर बना है। गर्भगृह के ऊपर शिखर बङी सावधानी के साथ गोलाई में ढाला गया है।मंदिर के बाहरी भाग को व्यापक रूप से अलंकृत किया गया है। मुखमंडप के ऊपर कलश है तथा छत के सामने के कोणों पर सिंह की सुंदर मूर्तियाँ बैठाई गयी हैं। प्रवेश द्वार पर एक भव्य तोरण है, जो उङीसा के किसी अन्य मंदिर में देखने को नहीं मिलता। अर्धगोलाकार इस तोरण का निर्माण क्रमशः ऊपर उठते हुये कई खंडों में किया गया है। शीर्ष पर दो नारी मूर्तियाँ हैं।

ये दोनों (परशुरामेश्वर तथा मुक्तेश्वर)प्रारंभिक स्तर के मंदिर हैं।

इनके बाद निर्मित मंदिर अपेक्षाकृत विशाल आकार-प्रकार के हैं। इनमें भुवनेश्वर के तीन मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. सिद्धेश्वर,
  2. केदारेश्वर,
  3. ब्रह्मेश्वर,

लिंगराज का मंदिर

भुवनेश्वर के मंदिरों में लिंगराज मंदिर उङीसा शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसका निर्माण 10-11वी. शती. में हुआ था। मंदिर ऊँची दीवारों से घिरे एक विशाल प्रांगण के बीच स्थित है। पूर्वी दीवार के बीच एक विशाल प्रवेश द्वार है, जिसके चारों ओर कई छोटे-छोटे मंदिर बने हुए हैं। इन सबमें लिंगराज का विशाल मंदिर उत्कृष्ट है। इसमें चार विशाल कक्ष हैं – देउल,जगमोहन, नटमंडप तथा भोगमंडप। इन्हें एक ही सीध एवं पंक्ति में बनाया गया है। मुख्य कक्ष (देउल या गर्भगृह) के ऊपर अत्यंत ऊँचा शिखर बनाया गया है। इसकी गोलाकार चोटी के ऊपर पत्थर का आमलक तथा कलश रखा गया है। इस मंदिर का शिखर अपने पूर्ण रूप में सुरक्षित है। यह लगभग 160 फुट ऊँचा है तथा इसके चारों कोनों पर दो पिच्छासिंह हैं। शिखर के बीच में ऐसी कटान है, जो बाहरी दीवार में ताख बना देती है। उसमें सुंदर आकृतियाँ बनी हुई हैं। सबसे ऊपर त्रिशूल स्थापित किया गया है। मंदिर का मुखमंडप (जगमोहन) भी काफी सुंदर है। इसकी ऊँचाई सौ फुट के लगभग है। अलंकरण योजना गर्भगृह के ही समान है। नटमंडप तथा भोगमंडप को कालांतर में निर्मित कर जगमोहन से जोङ दिया गया है. यह जुङाई इतनी बारीकी से की गयी है, कि ये जगमोहन की बनावट से अलग नहीं लगते। उङीसा शैली के मंदिरों की भीतरी दीवार सादी एवं अलंकरण रहित हैं। प्रत्येक मंडप में चार स्तंभ ऊपरी भार को संभाले हुये हैं। किन्तु मंदिर की बाहरी दीवारों पर श्रृंगारिक दृश्यों का अंकन है, जिनमें कुछ अत्यंत अश्लीलता की कोटि में आते हैं । लिंगराज मंदिरउङीसा शैली के प्रोढ मंदिरों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

लिंगराज मंदिर के ही अनुकरण पर बना भुवनेश्वर का अनंतवासुदेव मंदिर है, जो यहाँ का एकमात्र वैष्णव मंदिर है।

भुवनेश्वर में कुल आठ हजार मंदिर थे, जिनमें पाँच सौ की संख्या अब भी है। सभी में लिंगराज, गौरव तथा विशिष्टता की दृष्टि से अनुपम हैं।

जगन्नाथ मंदिर

लिंगराज मंदिर के अतिरिक्त पुरी का जगन्नाथ मंदिर तथा कोणार्क स्थित सूर्य-मंदिर भी उङीसा शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। जगन्नाथ मंदिर दोहरी दीवारों वाले प्रांगण में स्थित है। चारों दिशाओं में चार विशाल द्वार बने हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर स्थित है तथा उसके सामने स्तंभ हैं। चारों दिशाओं में चार विशाल द्वार बने हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर स्थित है तथा उसके सामने स्तंभ हैं। मंदिर की परिधि में छोटे-छोटे कई मंदिर बनाये गये हैं। पुरी का जगन्नाथ मंदिर हिन्दू धर्म के पवित्रतम तीर्थ स्थलों में गिना जाता है।

कोणार्क का मंदिर

पूरी से लगभग बीस मील की दूरी पर स्थित कोणार्क का सूर्य मंदिर वास्तु कला की एक अनुपम रचना है। इसका निर्माण गंगवंशी शासक नरसिंह प्रथम (1238-64 ईस्वी) ने करवाया था। एक आयताकार प्रांगण में यह मंदिर रथ के आकार पर बनाया गया है।

गर्भगृह तथा मुखमंडप को इस तरह नियोजित किया गया है, कि वे सूर्यरथ प्रतीत होते हैं। नीचे एक बहुत ऊँची कुर्सी है, जिस पर सुंदर अलंकरण मिलते हैं। उसके नीचे चारों ओर गज पंक्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं। यह उकेरी अत्यंत सूक्ष्मता एवं कुशलता के साथ हुई हैं। हाथियों की पंक्ति के ऊपर कुर्सी की चौङी पट्टी है, जिसके अगल-बगल पहिये बनाये गये हैं। इन पर भी सूक्ष्म ढंग से अलंकरण मिलते हैं। इसी के ऊपर गर्भगृह तथा मुखमंडप अवस्थित हैं। गर्भगृह के उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दीवारों में बने हुये ताखों में सूर्य की मूर्तियाँ हैं। मुखमंडप तीन तल्लों वाला है तथा इसकी छतें तिरछी तिकोने आकार की हैं। प्रत्येक तल के मध्य भाग को मूर्तियों से अलंकृत किया गया है। मंदिर का शिखर 225 ऊँचा था, जो कुछ समय पूर्व गिर गया, किन्तु इसका बङा सभाभवन आज भी सुरक्षित है। सभाभवन तथा शिखर का निर्माण एक चौङी तथा ऊंची चौकी पर हुआ है, जिसके चारों ओर 12 पहिये बनाये गये हैं। प्रवेशद्वार पर जाने के लिये सीढियाँ बनायी गयी हैं। इसके दोनों ओर उछलती हुयी अश्व प्रतिमायें उस रथ का आभास करती हैं, जिन पर चढकर भगवान सूर्य आकाश में विचरण करते हैं। मंदिर के बाहरी भाग पर विविध प्रकार की प्रतिमायें उत्कीर्ण की गयी हैं। प्रतिमायें रथ के पहियों पर भी उत्कीर्ण हैं। कुछ मूर्तियाँ अत्यन्त अश्लील हैं, जिन पर तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव माना जा सकता है। संभोग तथा सौंदार्य का मुक्त प्रदर्शन यहाँ दिखाई देता है। अनेक मूर्तियों के सुस्पष्ट श्रृंगारिक चित्रण के कारण इस मंदिर कोकाला पगोडाकहा गया है।

बारह राशियों के प्रतीक इस मंदिर के आधारभूत बारह महाचक्र हैं तथा सूर्य के सात अश्वों के प्रतीक रूप में यहाँ सात अश्व प्रतिमायें बनाई गयी थी।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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