इतिहासराजस्थान का इतिहास

अफीम व्यापार पर ब्रिटिश एकाधिकार

अफीम व्यापार – पोस्त के रस से अफीम तैयार की जाती थी। इसकी खेती मुख्यतः दक्षिण-पूर्व राजस्थान के राज्यों में होती थी। राजस्थान से अफीम निर्यात करने वाले राज्य – उदयपुर, प्रतापगढ, डूँगरपुर, झालावाङ, कोटा, बून्दी और टोंक थे। व्यावसायिक क्षेत्र में राजस्थान तथा मध्य भारत में तैयार की जाने वाली अफीम को मालवा अफीम कहा जाता था। बंगाल और बिहार में तैयार की जाने वाली अफीम को बंगाली अफीम कहा जाता था।

कंपनी के लिये अफीम व्यापार का महत्त्व

चीन के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार-वाणिज्य में अफीम का सर्वाधिक महत्त्व था, क्योंकि चीन में अफीम की भारी माँग थी। इसलिए कंपनी सरकार ने अपने अधिकृत भारतीय प्रदेशों – बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में अफीम पैदावार और उसके व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर रखा था। यहाँ की अफीम, कंपनी द्वारा चीन को निर्यात की जाती थी। आरंभ में बंगाल व बिहार में इसकी खेती का ठेका दिया जाता था, किन्तु इस पद्धति से अनुकूल लाभ न होने के कारण 1797 ई. में कंपनी ने स्वयं अपने नियंत्रण में अफीम की खेती करवाई। तब कंपनी को पता चला कि चीन के बाजारों में तुर्की और मालवा की अफीम अधिक अच्छी मानी जाती थी और उसके भाव भी अच्छे थे। बंगाल की अफीम इतनी घटिया होती थी कि कंपनी को इस बात का भय उत्पन्न हो गया कि कहीं चीन का अफीम बाजार उसके हाथ से निकल न जाय। अतः कंपनी ने अफीम के व्यापार पर अपनी जकङ बढाने और बनाये रखने के लिये बंबई सरकार को आदेश दिया कि मालवा की अफीम अधिक से अधिक खरीद ली जाय, ताकि वह अफीम केवल कंपनी द्वारा ही चीन में बेचकर भारी मुनाफा कमाया जा सके। परंतु इस नीति का परिणाम भी कंपनी के लिये लाभप्रद नहीं रहा। क्योंकि निजी व्यापारी मालवा की अफीम को चीन के बाजारों में पहुँचाने तथा उस अफीम को बंगाली अफीम से सस्ते दामों में बेचने में सफल हो रहे थे। इससे कंपनी की चिन्ता बढने लगी।

कंपनी द्वारा अफीम-व्यापार पर नियंत्रण

1818 ई. की संधियों के बाद मध्य भारत और राजस्थान पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित हो गया। अब कंपनी प्रशासन ने मालवा अफीम के उत्पादन एवं व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की नीति अपनाने का निश्चय किया। प्रारंभ में कम्पनी की इस नीति का उद्देश्य मालवा अफीम की खेती को सीमित करके उसकी अधिक उपज को रोकना तथा नियंत्रित सामान्य उत्पादित अफीम की मात्रा (400 पेटियाँ) को खरीद लेना, ताकि चीन के बाजार में बंगाल की अफीम बिकती रहे। किन्तु निजी व्यापारियों ने अफीम की तस्करी शुरू कर दी। राजस्थान के अफीम व्यापार का एक प्रमुख तस्कर मार्ग हाङौती से करांची बंदरगाह होते हुए दमन और मद्रास से चीन था। दूसरा मार्ग झालरापाटन से इंदौर था और वहाँ से अफीम को दमन व दीव तक पहुँचा दिया जाता था। अतः कंपनी ने दमन, दीव के व्यापार मार्ग पर पङने वाले राज्यों से संधियाँ करके अफीम के आवागमन को नियंत्रित करने का प्रयास किया।

कंपनी की इस नीति के परिणाम बङे हानिकारक सिद्ध हुए। कंपनी के अफीम एजेण्टों ने 1821 ई. के बाद उपलब्ध समस्त अफीम को खरीदना आरंभ कर दिया। परिणाम यह हुआ कि अफीम की खेती और अधिक होने लगी तथा निजी व्यापारी अधिक से अधिक अफीम का निर्यात करने लगे। बङे-बङे अँग्रेज व्यापारियों ने इस व्यापार में अधिक पूँजी लगाकर अधिक अफीम चीन के बाजारों में भेजी, जिससे चीन के बाजारों में अफीम का इतना अधइक स्टॉक जमा हो गया कि 1823 ई. में अफीम की कीमतों में भारी गिरवाट आ गयी। फलस्वरूप अँग्रेज व्यापारियों और कंपनी को भारी घाटा उठाना पङा।

1823 ई. के बाद कंपनी की नीति में कुछ परिवर्तन आया। अब उसे राजस्थान की राज्य सरकारों को प्रलोभन देकर अफीम के उत्पादन और उसके व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने का निश्चय किया। कंपनी ने अनधिकृत अफीम व्यापार को रोकने और अफीम की खेती को कम करवाने के लिये राजस्थानी राज्यों को अधिक लालच देकर अपने पक्ष में करने के प्रयास आरंभ कर दिये। इस दिशा में पहला कदम 1824 ई. में उठाया गया, जबकि कंपनी ने उदयपुर के महाराणा को राजी कर लिया। अक्टूबर, 1824 ई. में उदयपुर के महाराणा से संधि कर ली गयी। अफीम के तस्कर व्यापार से चुँगी के रूप में मेवाङ राज्य को लगभग 40 हजार रुपये वार्षिक आय होती थी। संधि के अनुसार कंपनी ने मेवाङ राज्य को यह राशि देना स्वीकार कर लिया तथा आंतरिक खपत के लिए आवश्यकतानुसार अफीम की खेती करने की स्वीकृति भी दे दी। राज्य में अफीम की खेती नियंत्रित कर दी गयी। तस्करी में पकङी जाने वाली अफीम, सूचना देने वाले मुखविर और राज्य सरकार में बराबर बाँटने की बात तय की गयी। फलस्वरूप काफी मात्रा में अफीम की पेटियाँ जब्त की गयी। इस नीति के परिणामों से प्रोत्साहित होकर कंपनी सरकार ने अप्रैल 1825 ई. में बून्दी राज्य से भी इस प्रकार का समझौता किया, जिसके अनुसार बून्दी को सीमा-शुल्क के मुआवजे के लिये 10,000 रुपये वार्षिक देकर वहाँ के अफीम व्यापार को बंद करवा दिया। किन्तु कोटा के साथ थोङी भिन्न नीति अपनाई गयी, क्योंकि कोटा की समस्या थोङी जटिल थी। कोटा में अफीम की खेती अधिक होती थी तथा स्थानीय व्यापारी भी इसमें लगे हुए थे। अगस्त, 1825 ई. में कोटा के साथ एक अस्थायी समझौता किया गया, जिसके अनुसार कंपनी सरकार ने कोटा की समस्त अच्छी किस्म की अफीम को खरीदने का वादा किया, बशर्ते कि कोटा राज्य अफीम का निर्यात बंद कर दे। निर्यात बंद करने से कोटा राज्य को जो घाटा होगा उसे क्षतिपूर्ति द्वारा कंपनी सरकार पूरा करेगी। दिसंबर, 1825 में कोटा राज्य के साथ स्थायी समझौता हो गया, जिसके अनुसार कंपनी ने कोटा में उत्पादित 4,000 मन अफीम खरीदने तथा 5 रुपये प्रति सेर की क्षतिपूर्ति देने का वादा किया।

कंपनी के अधिकारियों के दबाव में आकर उदयपुर, बून्दी व कोटा के राज्यों ने संधियाँ तो कर ली, किन्तु इन राज्यों के शासकों ने सामान्य किसानों अथवा नागरिकों के हितों का ध्यान नहीं रखा। इन संधियों से किसानों और व्यापारियों में घोर असंतोष उत्पन्न हो गया। किसानों को उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता था, क्योंकि उसका मूल्य संधि के द्वारा पहले ही निर्धारित कर दिया गया था। व्यापारियों को असंतोष इस कारण था कि एक लाभदायक व्यापार उनके हाथ से छीन लिया गया था। अँग्रेजों ने जो धनराशि, राज्यों को देना तय किया था, वह करों की संभावित आय से बहुत कम थी। ब्रिटिश रेजीडेण्ट मेटकॉफ भी इस नीति से संतुष्ट नहीं था। अतः उसने अपनी सरकार को लिखा कि थोङे से आर्थिक लाभ के लिये ऐसी नीति नहीं अपनानी चाहिये, जिससे असंतोष को बढावा मिले। मेटकॉफ के विरोध से प्रोत्साहित होकर कोटा के महाराव ने भी इस नीति के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार के पास एक ज्ञापन भेजा था। फलस्वरूप गवर्नर-जनरल ने मामले की जाँच का आदेश दे दिया। लेकिन सभी जाँच प्रश्नों का उत्तर मालवा में सरकारी अफीम एजेण्ट को देने के लिये कहा गया, जिसका उत्तर पूर्व निश्चित था। इस जाँच से इतना अवश्य हुआ कि 1827 ई. में कोटा को दी जाने वाली क्षतिपूर्ति की राशि बढाकर 75,000 रुपये वार्षिक कर दी और इसके बदले में कोटा ने अफीम की खेती का क्षेत्रफल कम कर दिया।

1827 ई. में मेवाङ के प्रशासन में ब्रिटिश हस्तक्षेप समाप्त हो गया, जिससे कंपनी सरकार की अफीम नीति को वहाँ सफलतापूर्वक लागू करना प्रायः असंभव हो गया। इधर मेटकॉफ गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी समिति का सदस्य बन गया। 1828 ई. में कोटा में अफीम एजेण्ट ने कोटा की अफीम को निम्न स्तर की कहकर उसने खरीदने से इन्कार कर दिया तथा कोटा को भी उस अफीम के निर्यात की अनुमति नहीं दी। मेटकॉफ ने अफीम एजेण्ट के अन्यायपूर्ण कार्यों को स्वीकृति नहीं दी। कोटा को अफीम निर्यात की अनुमति मिल गई।

इस समय अफीम का तस्कर व्यापार भी बहुत बढ गया था, क्योंकि व्यापारियों ने दुर्गम मार्गों से जन जातियों की सहायता से अफीम का तस्कर व्यापार आरंभ कर दिया था। ब्रिटिश सरकार ने राजस्थानी शासकों पर, इस तस्कर व्यापार को रोकने हेतु दबाव डाला। बून्दी के शासक का निकट संबंधी बख्तावर सिंह इस तस्कर व्यापार को रोकने के अभियान में मीणों द्वारा मारा गया। फलस्वरूप मेटकॉफ ने अँग्रेजों की अफीम नीति को बदलने का एक और प्रयत्न किया। उसने अँग्रेज अफीम अधिकारियों को इस बात के लिये फटकारा कि उन्होंने सरकार को वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं दी। इस बार अँग्रेज अफीम अधिकारी सरकार को धोखा नहीं दे सके और यह स्पष्ट हो गया कि कोटा व बून्दी के शासकों ने दबाव में आकर अँग्रेजों के कथनानुसार अफीम संधियों पर हस्ताक्षर कर दिये थे, जिससे किसानों और व्यापारियों में व्यापक असंतोष उत्पन्न हो गया था। अतः 1829-30 ई. में अफीम-संधियों को समाप्त कर दिया गया।

1830 ई. में ब्रिटिश सरकार ने अफीम व्यापार से एक अन्य तरीके से लाभ कमाने की योजना बनाई। राजस्थानी राज्यों से अफीम को सीधा बंबई ले जाने वाले व्यापारियों को निश्चित फीस पर आवश्यक आज्ञा-पत्र (लाइसेंस) देने का तरीका अपनाया गया। अफीम की खेती और व्यापार पर लगे सभी प्रतिबंधों को हटा दिया गया और अफीम की पेटियों पर एक निश्चित दर से कर लगाने की नीति घोषित कर दी। इससे बहुत कुछ नियंत्रण के साथ अँग्रेजों को पर्याप्त आमदनी भी होने लगी। आरंभ में 140 पौंड वजन वाली अफीम की एक पेटी पर 175 रुपये पारगमन कर लगाया गया, जो बाद में 125 रुपये प्रति पेटी कर दिया गया, क्योंकि बंबई द्वारा पेटियाँ भेजना बहुत कम हो गया तथा दमन व दीव से अधिक माल भेजा जाने लगा। अँग्रेजों द्वारा सिन्ध विज के बाद, वह मार्ग जो अन्य व्यापारियों को उपलब्ध था, बंद हो गया और अब अफीम की समस्त पेटियाँ बंबई बंदरगाह से जाने लगी। फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार समय-समय पर पारगमन कर को बढाती गयी। अक्टूबर, 1843 ई. में प्रति पेटी 200 रुपये पारगमन कर वसूल किया जाता था वह अक्टूबर, 1861 ई. में 700 रुपये प्रति पेटी के हिसाब से वसूल किया जाने लगा। 1989 – 90 ई. में इस पाकगमन कर से सरकार को 1,86,825 रुपये की आय हुई। इससे स्पष्ट है कि नमक उत्पादन पर एकाधिकार की भाँति अफीम व्यापार भी ब्रिटिश सरकार की आय का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया।

1833 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, लेकिन चीन के साथ उसके अफीम-व्यापार के एकाधिकार को कायम रखा गया। इसलिए कंपनी सरकार ने अफीम के व्यापार पर पहले से अधिक कठोर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। क्योंकि उसके द्वारा अफीम पर भारी पारगमन कर लगाने से चीन के कैण्टन स्थित अफीम के व्यापारियों ने राजस्थान के व्यापारियों के साथ मिलकर पुर्तगाली बंदरगाह दमन से मालवा अफीम का तस्कर व्यापार शुरू कर दिया। इससे कोटा और उदयपुर राज्यों में अफीम की सट्टेबाजी को काफी प्रोत्साहन मिला। अफीम के इस तस्कर व्यापार को नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने राजस्थानी राज्यों के साथ समझौते किये और महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अफीम की खरीद के लिये सरकारी कोठियाँ और काँटे (तौलने की चौकी) स्थापित किये गये। मेवाङ दरबार इस समय ब्रिटिश सरकार का इतना आज्ञाकारी था कि उसने उदयपुर में काँटा स्थापित करने के लिये अपने राज्य कोष से धन दिया। मेवाङ के महाराणा ने अपने सभी सामंतों को, उस अफीम पर किसी भी प्रकार का राहदारी शुल्क लेने से मना कर दिया, जिस पर अँगेजी कर ले लिया गया हो। बाद में इस काँटे को चित्तौङ स्थानान्तरित कर दिया गया। 19 वीं शताब्दी के अंत में चीन सरकार को यह बात समझ में आ गयी कि उसने अफीम की खेती की मनाही करके तस्कर व्यापार को प्रोत्साहन दिया है। इसलिए उसने अफीम की खेती की स्वीकृति दे दी तथा अफीम पर आयात-कर लगाकर अफीम के आयात की भी अनुमति दे दी । फलस्वरूप चीन में आयातित अफीम का भाव गिरने लगा और भारत सरकार को पारगमन कर में कटौती करनी पङी।

अफीम व्यापार पर नियंत्रण के परिणाम

अफीम की खेती को प्रोत्साहित कर उससे मुनाफा कमाने की नीति, साम्राज्यवादी आर्थिक शोषण का ही एक अंग थी। इससे अफीम की खेती करने वाले किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ । किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य कभी नहीं मिला, जबकि बाजार में अफीम की कीमत प्रतिवर्ष बढती जा रही थी। इसका मुख्य कारण यह था कि अफीम की खेती करने वाले किसान को स्थानीय व्यापारी अथवा साहूकार द्वारा नकद पेशगी दे दी जाती थी और फसल तैयार होने पर समस्त अफीम उससे ले ली जाती थी तथा बाजार भाव से हिसाब कर दिया जाता था। इसी समय उस किसान को अगली फसल के लिये भी नगद पेशगी दे दी जाती थी। इस प्रकार किसान पेशगी लेकर अफीम देने के लिये बँध जाता था। अफीम का बाजार भाव व्यापारी ही तय करता था। अतः व्यापारी द्वारा तय बाजार भाव से ही किसान को अपनी फसल बेचनी पङती थी। व्यापारी, किसान को कभी फसल का उचित मूल्य नहीं देता था।

अफीम की खेती को प्रोत्साहित करने का एक बुरा परिणाम यह हुआ कि अन्न उत्पादन के क्षेत्र कम होते गये। इससे राज्यों के अन्न भंडार कम होते गये और अकाल के दिनों में हजारों लोग और मवेशी मारे गये। अफीम की खेती के कारण मवेशियों के लिये चारे की भी कमी हो गई। किन्तु राज्य सरकारों तथा ब्रिटिश सरकार ने अपने आर्थिक हितों के लिये किसानों के हितों की बलि चढा दी। यूनाइटेड प्रेसबीडेरियन चर्च के डॉ. मेकगिल ने भारत के सचिव के नाम एक पत्र में लिखा कि राजपूताना में अन्नाभाव का एक मुख्य कारण यह है कि दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के जो उपजाऊ मैदान कुछ वर्षों तक अन्न उत्पादन के प्रमुख केन्द्र थे, अब अफीम की खेती के केन्द्र बन गये हैं, और लोगों की यह मान्यता है कि इसके उत्पादन को सरकार प्रोत्साहन देती है।

19 वीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों में ब्रिटिश सरकार की अफीम नीति की कङी आलोचना शुरू हो चुकी थी। उदारवादी ब्रिटिश नेताओं के अतिरिक्त भारत के दादा भाई नौरोजी ने भी ब्रिटिश सरकार की अफीम नीति की कटु आलोचना करते हुए उसे एक अमानवीय कृत्य बताया। दादा भाई नौरोजी ने 1880 ई. में भारत सचिव को लिखा कि इंग्लैण्ड में सरकार ने अफीम के प्रत्येक उत्पादन पर जहर का लेबल लगाने के आदेश दे रखे हैं और वही सरकार मानव जाति के एक बङे भाग को इस जहर से भ्रष्ट तथा चरित्रहीन बना रही है। भारत को गरीब और चीन को भ्रष्ट इसलिए बनाया जा रहा है कि ब्रिटिश सरकार कुछ कर वसूल करके लाभ कमा सके। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने 1893 ई. में एक रॉयल कमीशन की नियुक्ति की ताकि अफीम नीति के सभी पक्षों का अध्ययन किया जा सके। भारत सरकार चाहती थी कि रॉयल कमीशन के समक्ष ऐसे तथ्य उजागर नहीं होने चाहियें कि अफीम की खेती में आर्थिक हानि होती है। अतः अँग्रेज सरकार ने अफीम की खेती को लाभप्रद बताने के लिये झूठे आँकङे प्रस्तुत किये। राजस्थान के राज दरबारों को अच्छी तरह लिखा पढाकर राज्य सरकारों की ओर से 100 से अधिक गवाह कमीशन के समक्ष प्रस्तुत किये गये। इन गवाहों ने कमीशन के समक्ष कहा कि यदि अफीम की खेती बंद कर दी गई तो समाज के प्रत्येक वर्ग को भारी नुकसान उठाना पङेगा। इन गवाहों ने यह भी बताया कि उस जमीन पर अफीम के अतिरिक्त अन्य कोई फसल उपयोगी है ही नहीं तथा अन्य नकद जिन्सों के लिये पानी की कमी है। इन गवाहों ने अफीम की खेती को अत्यधिक लाभदायक बताया तथा आँकङों को तोङ-मरोङ कर प्रस्तुत किया। उन्होंने कृषि उत्पादन का खर्च कम बताया और उपज की मात्रा तथा लाभ अधिक बताया। ऐसी गवाहियों के कारण रॉयल कमीशन भी कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाया। राज्यों द्वारा प्रस्तुत गवाहों से यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि शासकों के मस्तिष्क में अँग्रेजों की अधीनता किस सीमा तक घुसी हुई थी। वे ब्रिटिश हितों को अपना हित बताकर वकालत कर रहे थे। यह बात तो समझ में आती है कि वे धन के निष्कासन की जटिल प्रक्रिया को न समझ पाये हों, लिकिन वे तो किसानों की बढती हुई निर्धनता तथा अकाल में अधिक जन एवं पशुधन की हानि की ओर भी ध्यान नहीं दे सके। किसानों की विवशता यह थी कि नकद फसलों का उत्पादन करके उनके पास न धन बचता था और न खाद्यान्न। लेकिन इसी समय चीन सरकार संभल गई और उसने अपने देश में अफीम की खेती पर लगे प्रतिबंध समाप्त कर दिये तथा अफीम के आयात पर कर लगाकर अफीम के आयात की अनुमति दे दी, जिससे चीन में आयातित अफीम की कीमतें गिर गई और अफीम का व्यापार पहले की भाँति लाभप्रद नहीं रहा। 20 वीं शताब्दी में तो धीरे-धीरे अफीम का व्यापार लगभग समाप्त ही हो गया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

Related Articles

error: Content is protected !!