इतिहासराजस्थान का इतिहास

पद्मिनी की कहानी की ऐतिहासिकता

पद्मिनी – अलाउद्दीन के चित्तौङ-आक्रमण का एक मुख्य कारण रावल रत्नसिंह की रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की लालसा भी बतलाया जाता है। इसलिए पद्मिनी की कथा से संबंधित व्यक्तियों रत्नसिंह, राघव चेन, गोरा-बादल आदि की ऐतिहासिकता का विश्लेषण करना उचित ही होगा।

16 वीं सदी में मलिक मुहम्मद जायसी नामक एक कवि ने 1540 ई. के आसपास पद्मावत महाकाव्य की रचना की जिसमें अलाउद्दीन के चित्तौङ-आक्रमण का प्रमुख कारण रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की आकांक्षा बतलाया गया है। जायसी की इस कहानी को कई परवर्ती मुस्लिम इतिहासकारों ने तथा राजपूतों के चारण-भाटों ने भी मूल रूप से स्वीकार कर लिया।

कर्नल जेम्स टॉड ने भी इसे सत्य घटना मान लिया। पद्मावत में रानी पद्मिनी की कहानी का वर्णन, संक्षेप में इस प्रकार किया गया है-

पद्मिनी

पद्मिनी, सिंहलद्वीप (लंका) के राजा गोवर्धन की पुत्री थी और रत्नसिंह चित्तौङ का राजा था। राजा रत्नसिंह ने हीरामन नामक तोते के द्वारा पद्मिनी के सौन्दर्य और यौवन के बारे में सुना और वह पद्मिनी को प्राप्त करने के लिये सिंहलद्वीप जाने का निश्चय करता है।

तदनुसार वह एक योगी का भेष धारण कर सिंहलद्वीप पहुँचता है और 12 वर्ष की तपस्या के बाद पद्मिनी को प्राप्त करने में सफल हो जाता है। गोवर्धन ने उन दोनों का विवाह कर दिया। कुछ दिनों बाद वह पद्मिनी के साथ चित्तौङ लौट आता है। पद्मिनी प्रतिदिन भिखारिनों तथा निर्धनों को भिक्षा देती है।

एक दिन राघव चेतन नामक एक ब्राह्मण तांत्रिक, जो रत्नसिंह की सेवा में था और जिसे रत्नसिंह ने किसी कारणवश अपने राज्य से निष्कासित कर दिाय था, ने पद्मिनी को देख लिया और उसके अद्वितीय सौन्दर्य को देखकर मूर्छित हो गा। संभवतः इसी कारण से रत्नसिंह ने उसे अपने राज्य से निष्कासित किया हो।

जो भी कारण रहा हो, राघव चेतन ने रत्नसिंह का सर्वनाश करने का संकल्प किया और वह दिल्ली चला आया। कुछ दिनों बाद उसे सुल्तान अलाउद्दीन के संपर्क में आने का अवसर मिला। और उसने सुल्तान के सामने पद्मिनी के दिव्य सौन्दर्य का यशोगान किया।

पद्मिनी के सौन्दर्य के यशोगान को सुनकर कामुक सुल्तान ने चित्तौङ पर आक्रमण करने तथा पद्मिनी को प्राप्त करने का निश्चय किया। सुल्तान ने रत्नसिंह के पास संदोश भिजवाया कि यदि वह सर्वनाश से बचना चाहता है तो अपनी रानी पद्मिनी को शाही हरम में भिजवा दे। राजपूत नरेश रत्नसिंह इस प्रकार के प्रस्ताव को कभी स्वीकार नहीं कर सकता था। अतः उसने सुल्तान के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

इससे सुल्तान क्रोधित हो उठा और एक विशाल सेना के साथ चित्तौङ पर आक्रमण करने के लिये चल पङा। सुल्तान की सेना ने चित्तौङ का घेरा डाल दिया। आठ वर्ष की घेराबंदी के बाद भी जब सुल्तान को सफलता न मिली तो उसने अपनी माँग में कमी करते हुए रत्नसिंह को संदेश भिजावाया कि यदि वह दर्पण में ही पद्मिनी का प्रतिबिम्ब दिखला दे तो वह सेना सहित वापस दिल्ली लौट जायेगा। रत्नसिंह ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

पद्मिनी का प्रतिबिम्ब देखने के बाद जब सुल्तान दुर्ग से वापस अपने शिविर को लौटने लगा तो शिष्टाचारवश रत्नसिंह उसे विदा करने के लिये दुर्ग के द्वार तक गया। इस संबंध में रत्नसिंह के दो सेनानायकों – गोरा और बादल – ने सुल्तान द्वारा किसी भी प्रकार के विश्वासघात किये जाने की आशंका व्यक्त की थी, परंतु रत्नसिंह ने उनकी आशंका को गंभीरता से नहीं लिया और वह सुल्तान को विदा करने के लिये दुर्ग के आखिरी फाटक तक चले गये।

दुर्ग के फाटक पर सुल्तान को विदा कर रत्नसिंरह ने ज्योंही पीठ मोङी सुल्तान के सैनिकों ने उसे धर दबोचा और बंदी बनाकर शाही शिविर में ले आये। यहाँ से रत्नसिंह को दिल्ली ले जाया गया। इसके बाद सुल्तान की ओर से चित्तौङ के दुर्गाधिकारियों को संदेश भिजवाया गया कि यदि पद्मिनी को शाही हरम भिजवा दिया जाय तो रत्नसिंह को मुक्त कर दिया जायेगा।

रानी पद्मिनी को अपने विश्वस्त सेवकों के द्वारा यह समाचार भी मिला कि दिल्ली में उसके पति को शारीरिक यातनाएं भी दी जा रही हैं।

ऐसी स्थिति में पद्मिनी ने गोरा और बादल के साथ मिलकर एक योजना बनाई और तुरंत दिल्ली जाने की तैयारी हो गई। उसके साथ 1600 पालकियों में सशस्र वीर राजपूत भी चले। उसने चारों तरफ यह अफवाह फैला दी कि पद्मिनी अपनी सखियों तथा दासियों के साथ शाही हरम को जा रही है। इन समाचारों को सुनकर सुल्तान की खुशी बढ गयी।

दिल्ली के समीप पहुँचने पर पद्मिनी ने सुल्तान को संदेश भिजवाया कि चूँकि अब वह अपने पति से हमेशा के लिये अलग होने वाली है, अतः शाही महल में प्रवेश करने से पूर्व उसे एक बार अपने पति से मिलने दिया जाय। सुल्तान ने पद्मिनी को अपने पति से मिलने की स्वीकृति दे दी। 1600 पालकियों सहित पद्मिनी का काफिला शाही महलों के उस हिस्से की तरफ बढा जहाँ रत्नसिंह को कैद करके रखा गया था।

पालकियों में सवार राजपूत सैनिकों ने अपने राजा को मुक्त कराने में अधिक समय नहीं लगाया और तत्काल पद्मिनी तथा रत्नसिंह तेजगति वाले अश्वों पर सवार होकर चित्तौङ के मार्ग पर निकल पङे। उन दोनों की रक्षा के लिये सेनानायक बादल चुने हुए अश्वारोहियों के साथ चला। सेनानायक गोरा को शेष राजपूत सैनिकों के साथ पीछा करने वाली शाही सेना को रोकने का दायित्व सौंपा गया।

गोरा और उसके सैनिकों के साथ पीछा करने वाली शाही सेना को रोकने का दायित्व सौंपा गया।गोरा और उसके सैनिकों के साथ पीछा करने वाली शाही सेना को रोकने का दायित्व सौंपा गया। गोरा और उसके सैनिकों ने अपने अद्भुत साहस एवं पराक्रम के द्वारा शाही सेना को काफी समय तक रोके रखा। यद्यपि इस प्रयास में गोरा अपने अधिकांश साथियों सहित वीरगति को प्राप्त हुआ, परंतु रत्नसिंह और पद्मिनी सकुशल चित्तौङ पहुँच गये।

चित्तौङ पहुँचने के बाद रत्नसिंह को कुम्भलमेर के सरदार देवपाल के विश्वासघात का पता चला। रत्नसिंह ने कुम्भलमेर के रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई उसकी दो रानियाँ – पद्मिनी और नागमति उसके साथ ही सती हो गयी। इस घटना के कुछ दिनों बाद अलाउद्दीन ने फिर एक बार आक्रमण किया। सेनानायक बादल लङता हुआ मारा गया। चित्तौङ दुर्ग पर सुल्तान का अधिकार हो गया। यह है जायसी के महाकाव्य का सारांश।

मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत की रचना के लगभग 70 वर्ष बाद फरिश्ता ने तारीखे-फरिश्ता लिखी। उसने प्रचलित पद्मिनी की कहानी में मामूली हेर-फेर करके अलाउद्दीन के चित्तौङ अभियान के वृत्तांत के साथ जोङ दिया। परंतु उससे थोङी भूल हो गया।

उसने पद्मिनी को रत्नसिंह की पत्नी के स्थान पर पुत्री बतलाया और उसे दिल्ली भेजने की बात लिख दी। एक अन्य मुस्लिम इतिहासकार हाजी उदवीर ने इस संपूर्ण कथा में पद्मिनी के नाम का उल्लेख न करके केवल एक गुणवती स्री का वर्णन किया है। राजस्थान के आधुनिक इतिहासकार टॉड ने तो इस कथा के वर्णन में बहुत सी भूलें कर दी। उन्होंने रत्नसिंह के स्थान पर भीमसिंह का संबंध पद्मिनी से जोङा है।

टॉड के अनुसार चित्तौङ का शासक लक्ष्मणसिंह और वह अल्पायु था। उसका चाचा भीमसिंह उसका अभिभावक था। उसी के समय में अलाउद्दीन ने चित्तौङ पर आक्रमण किया था। अतः टॉड की रचना का अध्ययन करते समय इन भूलों को ध्यान में रखना आवश्यक है।

डॉ.ओझा, डॉ.के.एस.लाल एवं अन्य बहुत से इतिहासकार पद्मिनी की कथा को अविश्वसनीय मानते हैं। डॉ.ओझा के मतानुसार पद्मावत में बहुत सी बातें कथा को रोचक बनाने के लिये कल्पित खङी की गयी है, क्योंकि राज्याभिषेक के एक वर्ष बाद ही रत्नसिंह का योगी बनकर सिंहलद्वीप जाना और बाहर बर्ष के बाद पद्मिनी से शादी करके लौटना, विवेकपूर्ण प्रतीत नहीं होता।

इसके अलावा उस समय सिंहलद्वीप का राजा गोवर्धन नहीं बल्कि कीर्तिनिश्शंकदेव पराक्रमबाहु या भुवनेकबाहु होना चाहिये। गोवर्धन नाम का तो कोई राजा सिंहलद्वीप के सिंहासन पर कभी नहीं बैठा। इस प्रकार चित्तौङ दुर्ग की आठ वर्ष तक चलने वाली घेराबंदी भी ऐतिहासिक सत्य नहीं है। अलाउद्दीन ने केवल 6-7 महीनें में ही चित्तौङ को जीत लिया था।

डॉ.के.एस.लाल ने जायसी की कथा को अविश्वसनीय मानने के निम्नलिखित कारणों का उल्लेख किया है –

  • रत्नसिंह अलाउद्दीन के चित्तौङ आक्रमण के केवल एक वर्ष पूर्व ही सिंहासन पर बैठा था। तब उसके लिये लंका जाना और पद्मिनी को प्राप्त करने के लिये बारह वर्ष लंका में ही ठहरना और वापिस चित्तौङ आना कैसे संभव हो सकता है?
  • लंका के इतिहास से पता चलता है रत्नसिंह के समय लंका का राजा पराक्रमबाहु चतुर्थ था न कि जायसी का गोवर्धन या कर्नल टॉड का हमीर संक
  • जायसी के अनुसार चित्तौङ की घेराबंदी आठ वर्ष तक जारी रही। कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य इसकी पुष्टि नहीं करता।
  • आठ साल तक संघर्ष करने वाला रत्नसिंह सुल्तान के इस घृणित प्रस्ताव को कि यदि पद्मिनी का प्रतिबिम्ब दिखा दिया जाय तो वह वापस लौट जायेगा, कदापि स्वीकार नहीं कर सकता था।
  • जायसी ने अलाउद्दीन के आक्रमण का उद्देश्य पद्मिनी को प्राप्त करना बतलाया है जबकि फरिश्ता और हाजी उदवीर जिन्होंने यह कथा जायसी से ली है, पद्मिनी की प्राप्ति को आक्रमण का कारण नहीं बतलाते हैं।
  • इसमें संदेह है कि पद्मावत लिखते समय जायसी का तात्पर्य चित्तौङ की रानी की जीवन गाथा लिखने का था। अपनी पुस्तक के अंत में वह कहता है, इस कथा में चित्तौङ देह का, राजा रत्नसिंह मस्तिष्क का, सिंहलद्वीप ह्रदय का, पद्मिनी चातुर्य का – और सुल्तान अलाउद्दीन माया का प्रतिरूप है। बुद्धिमानजन समझ सकते हैं कि इस प्रेम कथा का क्या तात्पर्य है। जायसी की इस टीका से यह स्पष्ट है कि वह एक दृष्टांत लिख रहा था, कोई ऐतिहासिक घटना नहीं। शायद जायसी को इस कथानक विशेष की प्रेरणा 1534 ई. के दुःख जौहर से मिली हो।
  • जायसी ने अलाउद्दीन की मृत्यु के 224 वर्ष बाद पद्मावत लिखा और इसके पूर्व किसी भी फारसी अथवा राजस्थानी वृत्तान्तकार ने पद्मिनी के संबंध में कुछ नहीं लिखा। बरनी, इसामी, अमीर खुसरो, इब्नबतूता, तारीख-ए-मुहम्मदी और तारीख-ए-मुबारकशाही जैसे ग्रन्थों के लेखकों पर चित्तौङ की घटना पर चुप्पी साधने का षड्यंत्र करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। अमीर खुसरो तो स्वयं इस अभियान में सुल्तान के साथ था। यदि वास्तव में इस प्रकार की घटना घटित हुई होती तो उसकी लेखनी से इस घटना का छूट जाना असंभव सा लगता है।
  • पद्मिनी की कथा को अविश्वसनीय मानने के कुछ अन्य कारण भी हैं। आलोचकों ने तत्कालीन राजनीतिक स्थिति और अलाउद्दीन की शासन व्यवस्था पर विशेष ध्यान नहीं दिया है। चित्तौङ अभियान के समय तक अलाउद्दीन ने लगभग संपूर्ण उत्तरी भारत को जीत लिया था। उसके पास विशाल सैन्य शक्ति और सुयोग्य सेनानायक थे। उसने बर्बरता के साथ अपने विरुद्ध उठने वाले विद्रोहों को कुचल दिया था।
  • ऐसी स्थिति में यह समझ में नहीं आता कि चित्तौङ में नियुक्त अपने पुत्र खिज्रखाँ को राजपूतों के धावों से घबराकर चित्तौङ से चले आने का आदेश कैसे दे देगा? दूसरी बात उसकी गुप्तचर व्यवस्था के संबंध में है। सभी इतिहासकार मानते हैं कि दिल्ली सुल्तानों में अलाउद्दीन खिलजी की गुप्तचर व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ थी। उसे अपने गुप्तचरों से सल्तनत के प्रत्येक हिस्से में घटने वाली घटनाओं की विस्तृत जानकारी मिलती रहती थी।
  • फिर यह कैसे संभव हो सकता था कि चित्तौङ से दिल्ली तक की दूसरी तय करने वाली 1600 पालकियों तथा उसमें छिपे बैठे सशस्र राजपूत सैनिकों के बारे में उसे तनिक भी जानकारी न मिल सकी, खासकर उस युग में जबकि दैनिक नित्यकर्म खुले में निपटाये जाते थे। तीसरी बात दिल्ली में कोई शाही महल इतना बङा न था कि उसके एक हिस्से में एक साथ 1600 पालकियाँ उतारी जा सकें और आखिरी बात यह कि जिस दिल्ली की चहारदीवारी में शक्तिशाली मंगोल प्रवेश न कर पाये, वहाँ से अलाउद्दीन जैसे सुल्तान की गिरफ्त से तीन-चार हजार लोगों का एक साथ बच निकलना संभव नहीं लगता विशेषकर तब जबकि उनके पास अश्वों की संख्या काफी कम रही होगी क्योंकि अधिकांश सैनिकों ने पालकियों से सफर किया था। डॉ.के.एस.लाल के अलावा डॉ.आशार्वादीलाल श्रीवास्तव, डॉ.कालिकारंजन कानूनगो, डॉ.एस.रे, प्रो.हबीब आदि अन्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार भी पद्मिनी की ऐतिहासिकता को नहीं मानते हैं।

परंतु डॉ. दशरथ शर्मा आदि कुछ अन्य विद्वान पद्मिनी की गाथा को विश्वसनीय मानते हैं। 1969 ई. में आयोजित राजस्थान इतिहास काँग्रेस के अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ. दशरथ शर्मा ने विरोधी पक्ष के इतिहासकारों के तर्कों का खंडन करते हुये पद्मिनी की ऐतिहासकिता को सिद्ध करने का प्रयास किया।

उन्होंने कहा, यदि उपर्युक्त तर्कों का संबंध सुप्रसिद्ध एवं सम्मानीय इतिहासकारों के साथ जुङा हुआ नहीं होता तो वे उनके सभी तर्कों को नजर अंदाज कर जाते। परंतु ऐसे सुप्रसिद्ध नामों के कारण ही उन्हें इस विषय पर विस्तृत प्रकाश डालने की आवश्यकता अनुभव हुई है।

पद्मिनी की गाथा जायसी की सूझ-बूझ अथवा साहित्यिक कल्पना मात्र नहीं है और जो लोग ऐसा सोचते हैं वे बहुत भूल करते हैं। क्योंकि जायसी के भी 14 वर्षों पूर्व तोमर शासक सल्हदी के एक दरब्री कवि ने सीता-चरित्र नामक ग्रन्थ में पद्मिनी की कथा का उल्लेख किया था। पद्मावत की जिन अंतिम चार पंक्तियों के आधार पर विद्वानों की कथा को साहित्यिक कल्पना माना है वे पंक्तियाँ जायसी की लिखी हुई नहीं हैं और बाद के लेखकों ने जोङ दी हैं।

क्योंकि स्व.डॉ.माताप्रसाद तथा वासुदेव शरण उपाध्याय ने वैज्ञानिक ढंग से पद्मावत की जिस पाण्डुलिपि का संपादन किया है, उसमें वे पंक्तियाँ सम्मिलित नही हैं। जो लोग यह तर्क देते हैं कि बरनी, इसामी और निजामुद्दीन जैसे इतिहासकारों ने पद्मिनी के बारे में कुछ नहीं लिखा, उन्हें यह भी ध्यान देना चाहिए कि इन इतिहासकारों ने संपूर्ण चित्तौङ अभियान का अतिसंक्षिप्त विवरण दिया है। बरनी ने केवल तीन पंक्तियों में ही चित्तौह अभियान का उल्लेख किया है। इसामी का विवरण तो इससे भी छोटा है और निजामुद्दीन ने केवल एक पंक्ति ही लिखी है।

ऐसी स्थिति में उनके विवरण में पद्मिनी का विवरण कैसे सम्मिलित हो पाता? आधुनिक लेखकों में से कर्नल जेम्स टॉड तथा वंश भास्कर के लेखक सूर्यमल्ल मिश्रण ने भ्रमपूर्ण ढंग से रत्नसिंह का वर्णन करके हमारे भ्रम को और अधिक बढा दिया। टॉड ने भूल से भीमसिंह को पद्मिनी का पति लखि है। डॉ.शर्मा ने प्रोफेसर कानूनगो के इस मत का कि पद्मिनी एक व्यक्तिवाचक संज्ञा है और इस नाम की कोई स्री नहीं थी, का खंडन करते हुये कहा कि राजस्थान में कई स्रियों के नाम पद्मिनी रखे जाते थे।

उन्होंने कई नाम भी गिनाये। डॉ.दशरथ शर्मा के अनुसार राघव भिखारी की कथा भी ऐतिहासिक सत्य है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रचनाओं में उसका उल्लेख मिलता है। डॉ.शर्मा ने यह मत भी प्रकट किया है कि चित्तौङ विजय के बाद अलाउद्दीन ने वहाँ का प्रबंध सिराज नामक एक धर्म परिवर्तित मुसलमान को सौंपा था।

उसने सिराज को खुसरोशाह की उपाधि भी प्रदान की। जायसी ने भी अलाउद्दीन के दूत के रूप में सिराज का उल्लेख किया है। इसी प्रकार, रत्नसिंह की गिरफ्तारी की पुष्टि राजपूत एवं मुस्लिम दोनों वृतान्तों से होती है। संक्षेप में डॉ.दशरथ शर्मा ने अपने भाषण में यही सिद्ध करने का प्रयास किया कि पद्मिनी की कथा ऐतिहासिक सत्य है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : पद्मिनी

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