महावीर स्वामी के जीवन काल में ही उनके मत का मगध तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में व्यापक प्रचार हो गया। मगध नरेश अजातशत्रु तथा उसके उत्तराधिकारी उदायिन ने इसके प्रचार में योगदान दिया। महावीर ने अपने जीवन काल में एक संघ की स्थापना की, जिसमें 11 प्रमुख अनुयायी सम्मिलित थे। ये गणधर कहे गये। इन्हें अलग-अलग समूहों का अध्यक्ष बनाया गया। महावीर की मृत्यु के बाद केवल एक गणधर सुधर्मन् जीवित बचा जो जैनसंघ का उनके बाद प्रथम अध्यक्ष बना।
नंद राजाओं के काल में भी जैन धर्म की उन्नति हुई, क्योंकि वे भी जैनमत के विरुद्ध नहीं लगते। हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है, कि नंद राजा कलिंग से प्रथम जिन् की एक प्रतिमा उठा ले गया था। चंद्रगुप्त मौर्य के समय में भी इस धर्म का विकास हुआ होगा, क्योंकि जैन परंपरा के अनुसार उसने जैन आचार्य भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली थी। उनके साथ वह अपने जीवन के उत्तरकाल में राज्य त्याग कर दक्षिण में तपस्या करने चला गया था।
भद्रबाहु जैनकल्पसूत्र से पता चलता है, कि महावीर के 20 वर्षों बाद सुधर्मन् की मृत्यु हुई तथा उसके बाद जम्बू 44 वर्षों तक संघ का अध्यक्ष रहा। अंतिम नंद राजा के समय में संभूतविजय तथा भद्रबाहू संघ के अध्यक्ष थो। ये दोनों महावीर द्वारा प्रदत्त 14 पूव्वो (प्राचीनतम जैन ग्रंथों) के विषय में जानने वाले अंतिम व्यक्ति थे। सम्भूतविजय की मृत्यु चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण के समय ही हुई। उनके शिष्य स्थूलभद्र हुए। इसी समय मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पङा, जिसके फलतः भद्रबाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक में चले गये।
किन्तु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रुक गये। भद्रबाहु के वापस लौटने पर मगध के साधुओं से उनका गहरा मतभेद हो गया,जिसके परिणामस्वरूप जैन मत इस समय (300 ईसा पूर्व) श्वेताम्बर तथा दिगंबर नामक दो संप्रदायों में बँट गया। जो लोग मगध में रह गये थे, श्वेताम्बर कहलाये। वे श्वेत वस्त्र धारण करते थे। भद्रबाहु और उनके समर्थक, जो नग्न रहने में विश्वास करते थे, दिगंबर कहे गये।
उनके अनुसार प्राचीन जैन शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान केवल भद्रबाहु को ही था। प्राचीन जैन शास्त्र ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में जैन धर्म की प्रथम महासभा आयोजित की गयी। किन्तु भद्रबाहु के अनुयायियों ने इसमें भाग नहीं लिया। परिणामस्वरूप दोनों सम्प्रदायों में मतभेद बढता गया। पाटलिपुत्र की सभा में जो सिद्धांत निर्धारित किये गये वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मूल सिद्धांत बन गये।
जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों का मुख्य अंतर इस प्रकार है-
- श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, तथा वस्त्र धारण को वे मोक्ष की प्राप्ति में बाधक नहीं मानते। इसके विपरीत दिगम्बर मतानुयायी पूर्णतया नग्न रहकर तपस्या करते हैं तथा वस्त्र धारण को मोक्ष के मार्ग में बाधक मानते हैं।
- श्वेताम्बर मत के अनुसार स्त्री के लिये मोक्ष की प्राप्ति संभव है, किन्तु दिगंबर मत इसके विरुद्ध है।
- श्वेताम्बर मत ज्ञान-प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास करता है, किन्तु दिगम्बरों के अनुसार आदर्श साधु भोजन नहीं ग्रहण करता।
- श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग प्राचीन जैन ग्रंथों – अंग, उपांग, प्रकीर्णक, वेदसूत्र, मूलसूत्र आदि को प्रामाणिक मानकर उनमें विश्वास करते हैं। किन्तु दिगंबर इन्हें मान्यता नहीं प्रदान करते हैं।
कालांतर में जैन धर्म का केन्द्र मगध से पश्चिमी भारत की ओर स्थानान्तरित हो गया। जैन साहित्य में अशोक के पौत्र संप्रति को इस मत का संरक्षक बताया गया है। वह उज्जैन में शासन करता था। अतः यह जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र बन गया। जैनियों का दूसरा प्रमुख केन्द्र मथुरा में स्थापित हुआ, जहाँ से अनेक अभिलेख, प्रतिमायें, मंदिर आदि मिलते हैं। कुषाण काल में मथुरा जैन का एक समृद्ध केन्द्र था।
कलिंग का चेदि शासक खारवेल भी जैन धर्म का महान संरक्षक था। उसने जैन साधुओं के निर्वाह के लिये प्रभूत दान दिया तथा उनके निवास के लिये गुहाविहार बनवाये थे। राष्ट्रकूट राजाओं के शासन काल (9 वीं शताब्दी)में दक्षिणी भारत में जैन धर्म का काफी प्रचार हुआ। गुजरात तथा राजस्थान में जैन धर्म 11 वीं तथा 12 वीं शताब्दियों में अधिक लोकप्रिय रहा। इस प्रकार जैन धर्म समस्त भारत में फैल गया। अपने संगठन की उत्कृष्टता तथा अनुयायियों की कट्टरता के कारण वह आज भी भारत में अपना अस्तित्व सुरक्षित किये हुये है।
जैन धर्म का स्वरूप निश्चित करने में बल्लभी की महासभा का विशेष योगदान रहा है। यह छठीं शताब्दी में देवऋद्धिगणि (क्षमाश्रमण) की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इस समय तक पाटलिपुत्र की सभा द्वारा निर्धारित किये गये सिद्धांत अव्यवस्थित तथा क्रमशः विलुप्त हो चुके थे। अतः इस सभा में उनका नये ढंग से निर्धारण एवं सम्पादन किया गया। इस सभा द्वारा निर्धारित किया गया जैन धर्म का स्वरूप आज तक विद्यमान है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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