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रूस में 1905 की क्रांति का इतिहास

रूस में 1905 की क्रांति का इतिहास

रूस में 1905 की क्रांति – अलेक्जेण्डर तृतीय की मृत्यु के बाद पुत्र निकोलस द्वितीय (1894-1917)26 वर्ष की आयु की अल्पायु में रूस का सम्राट बना। यद्यपि वह अपने पिता के समान ही निरंकुश शासन का पक्षपाती था, किन्तु उसके चरित्र में अपने पिता के समान दृढता का अभाव था।

उसकी बौद्धिक क्षमता सीमित थी, अतः कोई भी व्यक्ति उसे सरलता से प्रभावित कर सकता था। उस पर उसकी पत्नी महारानी अलेक्जेण्ड्रा का अत्यधिक प्रभाव था। उसमें योग्य व्यक्तियों का चुनाव करने की क्षमता नहीं थी। जार निकोलस द्वितीय की दुर्बलता एवं उसके अयोग्य एवं भ्रष्ट मंत्रियों की सलाह के कारण रूस में स्थिति दिनों-दिन बिगङती गई।

निकोलस द्वितीय को अपने शासनकाल में दो क्रांतियों का सामना करना पङा। प्रथम तो 1905 ई. की क्रांति, जो पूर्णतः सफल नहीं हो सकी और दूसरी 1917 ई. की क्रांति जिसने तो रूस में जारशाही को ही समाप्त कर दिया था।

रूस में 1905 की क्रांति

अन्य क्रांतियों की भाँति रूस की 1905 ई. की क्रांति के भी कुछ प्रमुख कारण थे, जो निम्नलिखित थे –

स्वेच्छाचारी शासन

निकोलस द्वितीय के शासनकाल में भी प्रतिक्रियावादी के प्रबल समर्थक पदाधिकारी अपने पदों पर बने रहे, जिनमें पोबीडोनास्तसेव प्रमुख था। वित्त एवं उद्योग मंत्री विटे तथा गृह मंत्रालय के बीच किसानों और मजदूरों की समस्याओं के संबंध में मतभेद इतने अधिक तीव्र हो गए कि वे एक-दूसरे की नीति का खुले रूप से विरोध करने लगे।

निकोलस इन मतभेदों को समाप्त नहीं कर सका, जिससे शासन की नीति में एकरूपता समाप्त हो गई। शासन की प्रतिक्रियावादी नीति के कारण जनता में असंतोष बढता जा रहा था तथा सुधारों की माँग प्रबल होती जा रही थी। 1902 में एक समाजवादी क्रांतिकारी ने गृहमंत्री सीपयागिन की हत्या कर दी।

तत्पश्चात प्लेहवे को गृहमंत्री बनाया गया, जो कठोर दमनकारी नीति द्वारा विरोध को समाप्त करना चाहता था, अतः पुलिस के अत्याचारों में वृद्धि हो गई। प्रेस की स्वतंत्रता तो पहले ही समाप्त की जा चुकी थी। अब विद्यार्थियों एवं अध्यापकों की गतिविधियों पर भी कठोर नियंत्रण स्थापित किया गया।

मास्को विश्वविद्यालय के सैंकङों विद्यार्थियों को जेलों में डाल दिया गया तथा सैंकङों को साइबेरिया के जंगलों में निर्वासित कर दिया गया। इस समय रूस में सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक असंतोष अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। जुलाई, 1904 में क्रांतिकारियों ने गृहमंत्री प्लेहवे की हत्या कर दी, किन्तु निकोलस ने इस असंतोष को दूर करने के लिये कोई कदम नहीं उठाया।

गैर रूसियों के अत्याचार

निकोलस द्वितीय ने गैर रूसी जातियों का रूसीकरण करने की नीति का भी कठोरता से पालन किया। फिनलैण्ड के सेना संबंधी नियमों में परिवर्तन किया गया तथा सेना में रूसी अधिकारियों की नियुक्ति की गयी। फिनलैण्ड की विधानसभा के अधिकारों को भी संकुचित कर दिया गया और फिनलैण्ड के डाक विभाग को रूस के साथ संलग्न कर दिया गया।

वहाँ पर कठोर पुलिस की व्यवस्था की गयी, जिससे फिनलैण्ड का स्वायत्त शासन लगभग समाप्त हो गया। फिनलैण्ड की जनता ने रूस की इस नीति का तीव्र विरोध किया और इसी असंतोष के कारण यहाँ समाजवादी दलों का प्रभाव बढने लगा। यहूदियों पर अत्याचार बढ गये। रूसियों ने सैंकङों यहूदियों की हत्याएँ कर दी तथा उनकी सम्पत्ति को नष्ट कर दिया।

रूसी साम्राज्य में रहने वाले आर्मेनिया एवं रूसी सैनिकों के बीच सशस्त्र संघर्ष आरंभ हो गया। गैर रूसी जातियों पर रूसी भाषा और रूसी चर्च को लादने का प्रयत्न किया गया। इस नीति के फलस्वरूप गैर रूसी जातियों में विद्रोह की भावना बलवती होने लगी।

आर्थिक नीति

वित्त एवं उद्योग मंत्री विटे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में रूस की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने एवं रूस को शक्तिशाली बनाने के लिये आर्थिक विकास को आवश्यक मानता था, अतः उसने देश की आर्थिक स्थिति सुधारने का प्रयत्न किया। 1897 में रूस की मुद्रा को स्थायित्व प्रदान करने के लिये स्वर्णमान को अपनाया गया।

पूँजीपतियों को रूस में पूँजी लगाने हेतु प्रोत्साहित किया गया तथा रूस में उद्योगों के विकास हेतु विदेशों से ऋण भी प्राप्त किया। 1894 में मदिरा के विक्रम पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया तथा रेलों के संचालन पर राज्य का एकाधिकार स्थापित किया गया, जिससे राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई।

रेलों के विकास से रूस के उद्योग एवं व्यापार के विकास को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। यातायात के साधनों के विकास के साथ-साथ लोहे और कोयले की खानों का पता लगाया गया तथा देश में अनेक बङे कारखाने स्थापित किए गए। देश की औद्योगिक क्रांति के लिये फ्रांस से आर्थिक सहायता ली गई।

ब्रिटेन के प्रयत्नों से रूस का औद्योगिक विकास हुआ तथा विदेशी व्यापार में वृद्धि हुई, किन्तु विटे की इस नीति की रूस के कुछ नेताओं ने कङी आलोचना की, क्योंकि विदेश से ऋण लेने के कारण राष्ट्रीय ऋण अत्यधिक बढ गया था।

जन-असंतोष एवं सुधारों की माँग

यद्यपि शासन की दमनकारी नीति के फलस्वरूप रूस में राजनैतिक गतिविधियाँ लगभग समाप्त हो गयी थी, किन्तु असंतोष और विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के प्रभाव कम नहीं हुआ। औद्योगीकरण के फलस्वरूप श्रमिकों एवं पूँजीपतियों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई।

किसानों की स्थिति में भी कोई आवश्यक सुधार नहीं हुआ था, अतः स्थिति अत्यन्त ही विस्फोटक प्रतीत हो रही थी और ऐसी स्थिति में विभिन्न राजनैतिक विचारधाराएँ प्रचलित थी – प्रथम तो क्रांतिकारी समाजवादी, जिसमें मार्क्सवादी तथा पापुलिस्ट सम्मिलित थे, जो क्रांति द्वारा रूस में निरंकुश सत्ता का अंत करना चाहते थे और दूसरे उदारवादी थे, जो जार की सत्ता के अन्तर्गत संवैधानिक शासन एवं सुधारों की नीति के समर्थक थे।

उदारवाद का प्रभाव जेमस्त्वों में अधिक था। 1902 में उदारवादियों ने जर्मनी से लिबरेशन नामक समाचार पत्र प्रकाशित करना आरंभ कर दिया, जिसके माध्यम से उदारवादी विचारों का प्रचार किया गया। 1904 में उदारवादियों का एक दल संगठित हो गया जो संवैधानिक शासन के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अन्य सामाजिक सुधारों की माँग करने लगा।

रूस की जनता इन विचारों से काफी प्रभावित हुई। क्रांतिकारी समाजवादी दल, जो क्रांति द्वारा जार की सत्ता समाप्त करना चाहता था, दो दलों में विभाजित हो गया – सोशल डेमोक्रेटिक दल तथा क्रांतिकारी समाजवादी दल।

सोशल डेमोक्रेटिक दल मूल रूस से मार्क्सवादी था। 1898 में रूस के प्रमुख नगरों में कार्यरत मार्क्सवादी संगठनों ने मिलकर जनतंत्रीय समाजवादी दल का गठन किया। इस दल का प्रमुख नेता लेनिन था। इस दल के प्रथम अधिवेशन के बाद दल की कार्यकारिणी के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे अगले चार-पाँच वर्ष तक इसकी गतिविधियाँ समाप्त हो गयी।

बोल्शेविक और मेन्शेविक

आरंभ में प्लेखानो, जो जनतंत्रीय समाजवादी दल का ही एक नेता था लेनिन का निकटतम सहयोगी था और वह भी रूस में लोकतंत्रीय शासन की स्थापना का पक्षपाती था, किन्तु कई वर्षों तक विदेश में रहने के कारण वह उदारवादी हो गया था। इसके विपरीत लेनन एक हुदृढ और सक्रिय क्रांतिकारी समूह के गठन का पक्षपाती था ताकि इस समूह के मार्गदर्शन में मजदूर वर्ग द्वारा एक सामाजिक क्रांति सम्पन्न हो सके।

1903 में जनतंत्रीय समाजवादी दल की द्वितीय बैठक हुई, जिसमें लेनिन के अनुयायियों और उसके विरोधियों में संघर्ष उत्पन्न हो गया। इस संघर्ष का कारण यह था कि लेनिन और उसके अनुयायी जारशाही को समाप्त कर पूर्णतः जनतंत्रीय शासन व्यवस्था स्थापित करने के पक्ष में थे जबकि उसके विरोधी जार के नेतृत्व में ही सुधारों के पक्षपाती थे।

परिणामस्वरूप जनतंत्रीय समाजवादी दल दो भागों में विभाजित हो गया। लेनिन तथा उसके अनुयायी बोल्शेविक कहलाए तथा उसके विरोधी मेन्शेविक कहलाए।

रूस में1905 की क्रांति की पृष्ठभूमि

1903 तक रूस की जनता में असंतोष और विरोध की भावना अपनी चरम सीमा पर थी। इस असंतोष के अनेक कारण थे। शासन की दमनकारी नीति से जनमानस उत्तेजित हो उठा था। किसानों की दशा भी निरंतर बिगङती जा रही थी, अतः क्रांतिकारी समाजवादी दल को किसानों में अपना प्रचार कार्य बढाने का अवसर मिल गया। आर्थिक मंदी के कारण मजदूरों की स्थिति भी बिगङने लगी।

किसानों और मजदूरों के साथ विद्यार्थियों का आंदोलन भी जोर पकङता जा रहा था। इन विद्यार्थी आंदोलनों के विरुद्ध शासन ने पुलिस का प्रयोग किया, जिससे उत्तेजना और भी बढ गई। 1904 में रूस-जापान युद्ध हुआ। युद्ध में रूस की पराजय से शासन के विरुद्ध असंतोष और अधिक बढ गया तथा 1904 में गृह मंत्री प्लेहवे की क्रांतिकारियों ने हत्या कर दी। उसके बाद प्रिन्स मिर्सकी गृहमंत्री जो कुछ उदारवादी प्रवृति का व्यक्ति था।

उसने जन विरोध को कम करने का प्रयास किया तथा सुधारों के विषय में बातचीत करने के लिये जेमस्तवो के निर्वाचित प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन ने शासन के समक्ष अपनी 11 माँगें रखी, जिनमें नागरिक स्वतंत्रता, सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता, स्थानीय स्वशासन के चुनावों में मताधिकार का विस्तार, धर्म, भाषण, लेखन और प्रेस की स्वतंत्रता तथा एक निर्वाचित राष्ट्रीय सभा की स्थापना की माँगें प्रमुख थी।

इस पर जार ने सुधारों का एक प्रारूप तैयार करवाया। यद्यपि यह प्रारूप स्वयं जार की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई उच्च अधिकारियों की बैठक में स्वीकार कर लिया गया था, किन्तु इस प्रारूप के प्रकाशन के अवसर पर जार ने निर्वाचित राष्ट्रीय सभा से संबंधित प्रावधान हटा दिया, अतः सुधारों के लिये आंदोलन चलता रहा। दूसरी ओर 19 दिसंबर, 1904 को रूस ने पोर्ट आर्थर जापान को समर्पित कर दिया, जिससे जनता की उत्तेजना और अधिक बढ गयी।

औद्योगिक नगरों में हङतालें होने लगी। जनवरी, 1905 में जार पर गोली चलाई गयी, इस गोली से जार तो बच गया, किन्तु रूस में क्रांति की आग प्रज्ज्वलित हो उठी।

रूस में 1905 की क्रांति की शुरूआत

क्रांति के समय सेण्ट पीटर्सबर्ग के कारखाने में मजदूरों की हङताल प्रारंभ हुई। पादरी जार्ज गेपन जो मजदूरों का नेता था, ने कारखाने के मालिक के समक्ष कुछ माँगें प्रस्तुत की, जिन्हें अस्वीकृत कर दिया गया। फलतः सेण्ट पीटर्सबर्ग के सभी कारखानों में हङताल हो गई। मजदूरों की माँगों में आर्थिक सुधारों की अपेक्षा राजनैतिक सुधारों पर अधिक बल दिया गया था। जार्ज गेपन ने इस संबंध में व्यक्तिगत रूप से सम्राट से मिलने का विचार किया।

रविवार, 22 जनवरी, 1905 को गेपन के नेतृत्व में मजदूरों का एक विशाल जुलूस सम्राट के समक्ष अपनी माँगें प्रस्तुत करने के लिये सेण्ट पीटर्सबर्ग के विंटर पैलेस की ओर बढा। यद्यपि मजदूरों का यह विशाल जुलूस शांतिपूर्वक आगे बढ रहा था, किन्तु सैनिकों ने उस पर गोली चला दी, उससे सैंकङों व्यक्ति मारे गए।

यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चे जो पेङों पर चढकर जुलूस देख रहे थे, उन्हें भी गोली का शिकार बनाया गया। इस दुर्घटना में कितने लोग मारे गए, यह कोई नहीं जानता। सरकारी सूत्रों के अनुसार 150 व्यक्ति मारे गए तथा 200 घायल हुए। जो लोग इस आंदोलन से संबंधित थे, उनके अनुसार 500 लोग मारे गए तथा 300 घायल हुए। 22 जनवरी, का वह रविवार का दिन रूस के इतिहास में जार की बर्बरता का प्रतीक बन गया और उसे खूनी रविवार (Blood Sunday)कहा जाने लगा। खूनी रविवार का दिन श्रमिक आंदोलन के इतिहास में एक परिवर्तन बिन्दु बन गया।

रूस में 1905 की क्रांति

उपर्युक्त घटना के बाद संपूर्ण देश में जोर की निरंकुशता समाप्त करने की माँग की जाने लगी। वारसा और रिगा में मजदूरों और सैनिकों के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें अनेक व्यक्ति मारे गए। मजदूरों के साथ किसानों ने भी विद्रोह कर दिया। उन्होंने अपने भूस्वामियों के माकनों को जला डाला और भूस्वामियों एवं पुलिस अधिकारियों की हत्या कर दी।

रेलवे कर्मचारियों की हङताल से गाङियों का चलना बंद करना पङा। रूस-जापान युद्ध के बाद यह अव्यवस्था सेना में फैल गई। शासन ने क्रांति के कुचलने के लिये सेना का प्रयोग किया। पुलिस विभाग ने क्रांतिकारी संगठनों में अपने जासूसों को भेजा ताकि नेताओं के विरुद्ध प्रमाण एकत्रित किए जा सकें।

कभी-कभी ये जासूस क्रांतिकारी दलों के नेता बन जाते तथा आंदोलन में इतने सक्रिय हो जाते कि शासन के लिये यह निश्चित करना कठिन हो जाता कि ये जासूसी कर रहे हैं या क्रांतिकारियों के साथ मिल गए हैं। इस प्रकार सर्वत्र क्रांति की लपटें फैल गई।

रूस की इन घटनाओं का प्रभाव रूस की राजनीति, वित्त एवं विदेशी संबंधों पर भी पङा। रूस को इस समय विदेशी ऋण की आवश्यकता थी, अतः रूस ने फ्रांस से ऋण की माँग की, किन्तु फ्रांस ने कहा कि पहले रूस के शासन एवं रूस की जनता के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित किए जायं तथा भविष्य में अव्यवस्था उत्पन्न न होने की गारंटी दी जाय तभी ऋण दिया जा सकता है।

फ्रांस के इस प्रत्युत्तर से जार अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने अपने गृहमंत्री को आदेश दिया कि शासन की समस्त शक्ति क्रांति को कुचलने में लगा दी जाय। इधर रूस के विभिन्न भागों में हङतालों एवं उपद्रवों की घटनाएँ बढती जा रही थी। इस क्रांति का नेतृत्व करने वालों में मेन्शेविक प्रमुख थे तथा इसे संचालित करने वाला प्रमुख व्यक्ति जार्ज खुस्तालेव नौसार था।

रूस के शासक ने इसे बंदी बना लिया, किन्तु वह कैद से भाग खाङा हुआ और सेण्ट पीटर्सबर्ग पहुँचा, जहाँ उसने मजदूर प्रतिनिधियों की परिषद् की स्थापना की, जिसे सोवियत (रूसी शब्द सोवियत का अर्थ कौंसिल से है)कह गया। इस सोवियत का अध्यक्ष खुस्तालेव नौसार था, किन्तु वास्तविक नेता उपाध्यक्ष लियो ब्रोन्तीन था, जो बाद में ट्राट्स्की के नाम से विख्यात हुआ। दूसरे शहर में भी इसी प्रकार की सोवियतों का निर्माण किया गया।

ये सोवियतें इतनी प्रभावशाली सिद्ध हुई कि स्वयं विटे तक को सरकारी तार भेजने के लिये इन सोवियतों की सहायता लेनी पङी। ये सोवियतें एक सरकार के रूप में कार्य करने लगी। रूस के एक समाचार-पत्र ने तो यहाँ तक लिख दिया कि रूस में दो सरकारें काम कर रही हैं। एक तो काउण्ड विटे की सरकार और दूसरी खुस्तालेव नौसार की सरकार।

इस क्रांति के समक्ष जार निकोलस द्वितीय को झुकना पङा। उसने अपने प्रतिक्रियावादी मंत्रियों को हटा दिया और विटे को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। 30 अक्टूबर, 1905 को जार ने बङी अनिच्छा से एक घोषणा-पत्र जारी किया। इस घोषणा-पत्र द्वारा रूसी जनता को निम्नलिखित अधिकार प्रदान किए गए –

  • नागरिक अधिकार एवं स्वतंत्रता अर्थात् विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता, सभाएँ करने की स्वतंत्रता और संगठन स्थापित करने की स्वतंत्रता।
  • निर्वाचित राष्ट्रीय सभा (ड्यूमा)की स्थापना।
  • भविष्य में ड्यूमा की सहमति के बिना कोई कानून न बनाना।
  • इस घोषणा-पत्र को क्रियान्वित करने का दायित्व काउण्ट विटे को सौंपा गया।

इस घोषणा की विभिन्न राजनैतिक दलों में भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया हुई। मध्यमवर्गीय उदारवादियों का दल, जो अक्टूबरिस्ट कहलाता था, इस घोषणा से सन्तुष्ट था। किन्तु समाजवादी दल ने इस घोषणा-पत्र का विरोध किया। उनका कहना था कि शासन अपने वादों को ईमानदारी से पूरा नहीं करेगा तथा यह घोषणा-पत्र क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने का प्रयास मात्र है, जैसे ही परिस्थितियाँ अनुकूल होंगी यह घोषणा-पत्र रद्द कर दिया जाएगा।

इधर लेनिन भी अक्टूबर घोषणा के बाद रूस लौट आया था। वह रूसी शासन की नीति का कट्टर विरोधी था, अतः अक्टूबर घोषणा-पत्र का परिणाम यह हुआ कि वह क्रांति को तत्काल रोक नहीं सका। बोल्शेविक नेताओं ने मजदूरों को सलाह दी कि रूस में निरंकुश सत्ता के अंत होने तक उन्हें संघर्ष करते रहना चाहिए, अतः जार के घोषणा-पत्र के बाद भी हङतालें चलती रही, फिर भी रूस के अधिकांश लोग अक्टूबर घोषणा से संतुष्ट हो चुके थे, इसलिये उन्होंने क्रांतिकारियों को समर्थन देना बंद कर दिया।

इस काल में काउण्ट विटे को प्रधानमंत्री के रूप में कठिन स्थिति का सामना करना पङा। उसने क्रांतिकारियों को संतुष्ट करने के लिये समाचार-पत्र से प्रतिबंध हटाया, किसानों के लगान में कमी की तथा मताधिकार को विस्तृत बनाने की चेष्टा की, किन्तु विभिन्न राजनैतिक दलों के आपसी मतभेदों का लाभ उठाकर जार के प्रतिक्रियावादी सलाहकारों ने अक्टूबर घोषणा-पत्र को निष्प्रभावी करने का प्रयत्न किया।

मार्च, 1906 में जार ने कुछ मौलिक कानूनों की घोषणा की, जिसके अनुसार ड्यूमा को नियम बनाने या विचार-विमर्श करने का अधिकार नहीं था। बजट के संबंध में भी उसके अधिकार सीमित थे। इसके अलावा उच्च सदन के आधे सदस्यों का मनोनयन सम्राट द्वारा किया जाता था। जार किसी भी विधेयक पर अपना वीटो कर सकता था। इस प्रकार जार की शक्तियाँ और अधिकार पूर्ववत् बने रहे और व्यवाहारिक रूप से ड्यूमा के संवैधानिक अधिकारों को अत्यन्त ही सीमित बना दिया गया।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : रूस में 1905 की क्रांति

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