इतिहासमध्यकालीन भारत

विजयनगर-बहमनी संबंध और रायचूर दोआब की समस्या | Vijayanagara-Bahmani Relations

विजयनगर-बहमनी संबंध – दक्षिण में तुगलक सत्ता के पतन के बाद 14 वीं शताब्दी के मध्य में विजयनगर एवं बहमनी साम्राज्य दोनों लगभग एक ही समय पर अस्तित्व में आए। दोनों राज्यों की स्थापना के प्रारंभ से ही, उन दोनों के मध्य लंबा संघर्ष चलता रहा और प्रायः इस संघर्ष के दौरान भयंकर संहार और विनाश देखा गया। इन दोनों के संघर्ष का केन्द्र कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के मध्य स्थित प्रसिद्ध रायचूर दोआब था। ऐसी स्थिति में इसे रायचूर दोआब की समस्या भी कहा जाता है। बाह्य रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि इस संघर्ष का मुख्य कारण विवादग्रस्त रायचूर दोआब पर अधिकार स्थापित करना था। परंतु वस्तुस्थिति इसके बिल्कुल विपरीत थी। यद्यपि इन दोनों के मध्य युद्ध इसी क्षेत्र में हुए थे तथापि रायचूर दोआब इन दोनों के मध्य युद्ध की क्रीङा-स्थली मात्र था, युद्ध का कारण नहीं। समकालीन एवं आधुनिक इतिहासकारों ने इस युद्ध के कारणों का सामान्यीकरण करके इस संघर्ष के धार्मिक या राजनीतिक कारण बताए हैं।

समकालीन इतिहासकारों में बुरहान-ए-मआसिर के लेखक अली बिन अजीजउल्लाह तबतबा ने इस संघर्ष का वास्तविक कारण सांप्रदायिक बताया है और उनकी दृष्टि में इन युद्धों का उद्देश्य कुफ्र का दमन और काफिरों आदि का विनाश करना था। तबतबा ने विजयनगर-बहमनी संघर्ष का उद्देश्य स्पष्ट करने के लिए उपर्युक्त वाक्यांशों का प्रयोग किया है। इसके विपरीत फरिश्ता का कहना है कि इन दोनों राज्यों के मध्य शांति विजयनगर द्वारा वचनबद्ध कर राशि प्रदान करने पर निर्भर करती थी और जब कभी विजयनगर के राय बहमनी सुल्तानों को वार्षिक कर राशि देना बंद कर देते थे, इन दोनों राज्यों के मध्य युद्ध प्रारंभ हो जाता था। इन दोनों समकालीन इतिहासकारों के विवरण से लगता है कि इन दोनों राज्यों के मध्य युद्ध का प्रमुख कारण धार्मिक विद्वेष था और विजयनगर-बहमनी संघर्ष में प्रायः विजयनगर ही पराजित हुआ।

परंतु अन्य प्राप्य ऐतिहासिक स्त्रोत, इन एकपक्षीय मान्यताओं की पुष्टि नहीं करते। वस्तुतः विजयनगर-बहमनी संघर्ष के वास्तविक कारण भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक थे। विंध्य के दक्षिण में स्थित दक्षिण भारत दो सुस्पष्ट भौगोलिक भू-खंडों में विभाजित रहा और शताब्दियों तक विभिन्न राजवंश इन भौगोलिक बाधाओं को तोङकर संपूर्ण दक्षिण भारत की एकता प्राप्त करने का निष्फल प्रयास करते रहे। शताब्दियों से कृष्णा और तुंगभद्रा ने दक्षिण को दो प्राकृतिक भू-खंडों में विभाजित रखा। इस प्राकृतिक सीमा को पार कर बादामी के पश्चिमी चालुक्य एवं कांची के पल्लव, मालखेद के राष्ट्रकूट और वेंगी के पूर्वी चालुक्य, कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य एवं तंजवुर के चोल आपस में निरंतर संघर्ष करते रहे। विजयनगर एवं बहमनी युग में भी उसी संघर्ष की पुनरावृत्ति हुई। कृष्णा एवं तुंगभद्रा के बीच में स्थित किले इन दोनों साम्राज्यों के मध्य संयुक्त अधिकार क्षेत्र में थे। इस कारण से इन दोनों के मध्य संघर्ष भी इसी क्षेत्र में हुए। ध्यान से देखा जाए तो रायचूर दोआब की समस्या पूर्ववर्ती संघर्ष की पुनरावृत्ति मात्र थी। विजयनगर-बहमनी युग में इन दोनों राज्यों के मध्य सांप्रदायिक अंतर्विरोध ने इस समस्या को जन्म ही नहीं दिया वरन इस संघर्ष को क्रूर बनाने में आवश्यक योगदान मात्र दिया।

इस संघर्ष का दूसरा प्रमुख कराण राजनीतिक था। बहमनी एवं विजयनगर दोनों क्रमशः तुंगभद्रा के दक्षिणी एवं उत्तरी छोर पर अपने साम्राज्यवाद का विस्तार करना चाहते थे, क्योंकि बहमनी साम्राज्य तीन ओर से तीन शक्तिशाली राज्यों — मालवा, गुजरात और उङीसा से घिरा हुआ था और उसके विस्तार का मार्ग केवल तुंगभद्रा के उत्तर में था। अतः रायचूर दोआब में इन दोनों राज्यों के मध्य पारस्परिक टकराव बङा स्वाभाविक था।

इस संघर्ष का तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण आर्थिक था। एक तो कृष्णा का दक्षिणी भाग अधिक उपजाऊ था और दक्षिण भारत के अधिकांश बङे बंदरगाह इसी भाग में स्थित थे। अधिकांश निर्यात योग्य माल का उत्पादन भी इसी क्षेत्र में होता था। विवादग्रस्त रायचूर दोआब हीरे और लोहे जैसे बहुमूल्य खनिजों की खानों के लिये प्रख्यात था। यही कारण है कि बहमनी सुल्तानों द्वारा आर्थिक दृष्टि से ऐसे समृद्ध क्षेत्र के लिये संघर्ष करना स्वाभाविक था। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से उत्पादक क्षेत्रों पर अधिकार की लालसा और उससे उत्पन्न आर्थिक प्रतिस्पर्धा विजयनगर-बहमनी संघर्ष का वास्तविक कारण थी। अतः ये संघर्ष सांप्रदायिक धर्मयुद्ध नहीं थे वरन आर्थिक-राजनीतिक एवं सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये लङे गए थे।

विजयनगर-बहमनी संघर्ष का क्रम

अपने साम्राज्य एवं साधनों के विस्तार के लिए इन दोनों साम्राज्यों के मध्य संघर्ष का प्रारंभ रायचूर दोआब में हुआ। फरिश्ता के अनुसार प्रथम बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने सेनानायक मुबारक खाँ को रायचूर के किले को घेरा डालने को भेजा। इस पर कहा जाता है कि विजयनगर नरेश हरिहर प्रथम ने घोङे और धन देकर समझौता कर लिया। यही संघर्ष अलाउद्दीन के पुत्र मुहम्मदशाह प्रथम एवं बुक्का प्रथम के शासनकाल में चलता रहा। इस काल में विजयनगर एवं बहमनी सेनाओं में तीन युद्ध हुए। परंतु युद्ध के परिणामों के संबंध में विजयनगर एवं बहमनी स्त्रोतों के विवरण परस्पर विरोधी हैं। फिर भी दोनों स्त्रोतों के तुलनात्मक अध्ययन से प्रतीत होता है कि इन युद्धों के बावजूद न तो बहमनी साम्राज्य की सीमाओं में कोई वृद्धि हुई और न विजय नगर ने वार्षिक कर राशि देने का ही कोई वचन दिया। यही समस्या मुहम्मद प्रथम के उत्तराधिकारी मुजाहिद शाह के शासनकाल में उपस्थित हुई। उसने बुक्का प्रथम से कृष्णा और तुंगभद्रा के मध्य स्थित सभी प्रदेशों को समर्पित करने की माँग की। विजयनगर द्वारा ऐसा करने से इन्कार करने पर मुजाहिद ने विजयनगर के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। परंतु नौ माह के लंबे युद्ध के बाद भी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। मुजाहिद की हत्या के बाद हरिहर द्वितीय ने अदोनी, चोल, दाबुल और गोआ से बहमनी सेनाओं को निकाल बाहर किया और कृष्णा विजयनगर साम्राज्य की उत्तरी सीमा हो गयी।

14 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में दोनों राज्यों के मध्य पुनः भयंकर संघर्ष प्रारंभ हो गया। कहा जाता है कि इस बार सुल्तान फिरोज ने विजयनगर तक सैनिक प्रहार किए और विजयनगर के राय के अनेक संबंधियों को बंदी बना लिया। परंतु आगे चलकर दोनों साम्राज्य के बीच शांति स्थापित हो गयी। फरिश्ता के अनुसार दोनों राज्यों ने एक-दूसरे राज्य की सीमाओं का अतक्रमण न करने और एक दूसरे की प्रजा को हताहत न करने का वचन दिया।

परंतु 1406 ई. में देवराय प्रथम के शासनकाल (1404-1422 ई.) में फिरोजशाह ने रायचूर दोआब को पार करके बाँकापुर के किले पर घेरा डाल दिया और देवराय प्रथम को विवशतावश समझौता करना पङा। फरिश्ता के अनुसार संधि की शर्तों के अंतर्गत देवराय प्रथम ने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान फिरोज के साथ कर दिया और बाँकापुर का किला दहेज में दे दिया। परंतु नूनिज और तबतबा दोनों ही इस वैवाहिक संबंध का उल्लेख नहीं करते। ऐसा लगता है कि उपर्युक्त समझौता केवल अस्थायी शांतिमात्र सिद्ध हुआ, क्योंकि इस काल में सुल्तान फिरोज ने वेलम सरदार के साथ मिलकर तेलंगाना में अपने साम्राज्य विस्तार का प्रयास करना प्रारंभ कर दिया। इसके प्रत्युत्तर में देवराय प्रथम ने फिरोज के वेलम मित्र की राजधानी रचकोंडा के निकट पांगल के किले पर अधिकार कर लिया। विवश होकर फिरोज को तेलंगाना में अपना अभियान छोङकर पांगल के किले की ओर भागना पङा। पांगल के किले का घेरा दो वर्ष तक चलता रहा और इसी बीच फिरोज का वेलम सरदार मित्र भी देवराय से जा मिला। इन दोनों की संयुक्त सेनाओं ने बहमनी सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया। इस प्रकार सुल्तान फिरोज और देवराय प्रथम के शासनकाल में हुए युद्ध भी अनिर्णीत रहे।

सुल्तान फिरोजशाह के उत्तराधिकारी अहमद प्रथम ने बहमनी सेनाओं की उपर्युक्त पराजय का बदला लेना चाहा और एक ओर विजयनगर के कई प्रदेशों पर आक्रमण किया और दूसरी ओर तेलंगाना में अपनी स्थिति को सुदृढ कर लिया। संभवतः इस काल में तेलंगाना और रायचूर दोआब दोनों में बहमनियों की स्थिति सुदृढ हो गई। सुल्तान अहमद प्रथम के उत्तराधिकारी अलाउद्दीन अहमद के शासनकाल में फरिश्ता के अनुसार विजयनगर एवं बहमनी साम्राज्यों के मध्य चार युद्ध हुए जिनमें प्रथम दो युद्धों में विजयनगर पराजित हुआ। परंतु तीसरे युद्ध से पूर्व देवराय द्वितीय ने विजय नगर की सेना का पुनर्गठन करके बाँकापुर एवं रायचूर पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में विजयनगर की सेनाओं को सफलता मिली। परंतु चौथे युद्ध का प्रारंभ बहमनी सुल्तान ने किया और पहले की भाँति पुनः दोनों राज्यों के मध्य समझौता हो गया। देवराय द्वितीय की मृत्यु के बाद विजयनगर-बहमनी संबंधों में एक नया मोङ आया। 15 वीं शताब्दी के मध्य में उङीसा के गजपति नरेशों ने भी विजयनगर पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया। इस काल में संगम वंश के परवर्ती नरेश इतने शक्तिशाली नहीं थे कि इस दोहरे आक्रमण का मुकाबला कर पाते। परिणामस्वरूप महमूद गवाँ के युग में बहमनी साम्राज्य की स्थिति श्रेष्ठ हो गयी। 1471 ई. में महमूद गवाँ ने गोआ पर अधिकार कर लिया, जिससे विजयनगर साम्राज्य की बहुत अधिक क्षति हुई। जब सालुव नरसिंह ने तेलंगाना में उक्त क्षति की पूर्ति करनी चाही, तो बहमनी सुल्तान मुहम्मदशाह तृतीय ने गवाँ के साथ मिलकर नेल्लोर और कांची तक विजयनगर के प्रदेशों पर प्रहार किया।

1485 ई. में विजयनगर के प्रथम वंश का पतन हो गया और इसके दो दशकों के भीतर ही बहमनी साम्राज्य भी पाँच राज्यों में खंडित हो गया। परंतु रायचूर दोआब की समस्या यथावत बनी रही। अब बहमनियों के स्थान पर बीजापुर के आदिलशाही सुल्तानों ने रायचूर दोआब की समस्या को पुनर्जीवित रखा और बहमनी साम्राज्य के पतन के बाद भी यह समस्या पूर्ववत बनी । अतः कहा जा सकता है कि विवादग्रस्त रायचूर दोआब पर अधिकार की समस्या विजयनगर बहमनी संघर्ष का कारण नहीं थी, वरन उक्त प्रदेश इन दोनों साम्राज्यों के मध्य युद्ध की क्रीङास्थली मात्र था।

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