इतिहासराजस्थान का इतिहास

वृहत राजस्थान का निर्माण कब हुआ

वृहत राजस्थान – मार्च, 1948 ई. में मत्स्य संघ और अप्रैल, 1948 ई. में संयुक्त राजस्थान का निर्माण हो चुका था। मई, 1948 ई. में सिरोही राज्य का प्रबंध बंबई सरकार को सौंपा जा चुका था। अब केवल चार राज्य – जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर का स्वतंत्र अस्तित्व रह गया था। इनमें जोधपुर, जयपुर, बीकानेर और जैसलमेर का स्वतंत्र अस्तित्व रह गया था। इनमें जयपुर, जोधपुर और बीकानेर ऐसी रियासतें थी, जो भारत सरकार द्वारा निर्धारित मापदंड के अनुसार अपना पृथक अस्तित्व रख सकती थी। स्वतंत्र, भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लार्ड माउण्टबेटन 7 जनवरी, 1948 ई. को भारत सरकार की ओर से भारतीय शासकों को यह आश्वासन दे चुके थे कि विलय का सिद्धांत बङी रियासतों पर लागू नहीं होगा। स्वयं सरदार पटेल ने 20 फरवरी, 1948 ई. को अपने एक पत्र में बीकानेर के महाराजा को यह आश्वासन दिया था कि बङी रियासतों का विलय तभी किया जायेगा, जबकि वहाँ की जनता और शासक दोनों विलय के पक्ष में होंगे। ऐसी परिस्थिति में भारत सरकार ने राजस्थान की रियासतों के एकीकरण की दिशा में अत्यन्त सावधानी से कार्य करने का निश्चय किया।

वृहत राजस्थान

जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर राज्यों की सीमाएँ पाकिस्तान की सीमा से मिली हुई थी, जहाँ से सदैव आक्रमण का भय बना रहता था। फिर भी, इन तीनों राज्यों का बहुत बङा क्षेत्र थार के विशाल रेगिस्तान का अंग था तथा यातायात एवं संचार साधनों की दृष्टि से भी यह क्षेत्र काफी पिछङा हुआ था, जिसका विकास करना इन राज्यों के आर्थिक समामर्थ्य के बाहर था। इन सभी कारणों से रियासती विभाग ने तीनों रियासतों को काठियावाङ की रियासतों के साथ मिलाकर एक केन्द्र शासित राज्य बनानी की योजना बनायी। किन्तु स्थानीय जनता की भावना राजस्थान के साथ मिलने की थी। अतः रियासती विभाग को अपनी योजना त्यागनी पङी। इसी बीच समाजवादी दल ने वृहत राजस्थान के निर्माण का नारा बुलंद किया तथा अखिल भारतीय स्तर पर राजस्थान आंदोलन समिति की स्थापना की। समिति के अध्यक्ष श्री राममनोहर लोहिया ने जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर और मत्स्य संघ को संयुक्त राजस्थान में मिलाकर भारतीय संघ की एक सुदृढ इकाई में परिवर्तित करने की माँग की। इससे वृहत राजस्थान के निर्माण की माँग को बल प्राप्त हुआ। अंत में भारत सरकार ने चारों राज्यों को संयुक्त राजस्थान में मिलाने का निश्चय किया।

सरदार पटेल 14 जनवरी, 1949 ई. को उदयपुर जाने वाले थे और इस अवसर पर वे वृहत् राजस्थान के निर्माण की घोषणा करना चाहते थे। रियासती विभाग के सचिव श्री वी.पी.मेनन, संबंधित शासकों से बातचीत करने से पूर्व 11 जनवरी, 1949 ई. को जयपुर गये जयपु के महाराजा सवाई मानसिंह और उनके दीवान सर वी.टी.कृष्णमाचारी ने श्री मेनन को सुझाव दिया कि राजपूताना की रियासतों को तीन इकाइयों में विभाजित कर दिया जाय। पहली इकाई संयुक्त राजस्थान यथावत कायम रहे, दूसरी इकाई जयपुर, अलवर और करौली के विलय से बनायी जाय और तीसरी इकाई जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर के विलय द्वारा पश्चिमी राजस्थान यूनियन के नाम से बना दी जाय। भरतपुर और धौलपुर की रियासतों को पङौस के प्रांत उत्तर प्रदेश में मिला दिया जाय। परंतु वी.पी.मेनन ने उन्हें समझाया कि प्रदेश में व्याप्त जन भावना को देखते हुये राजपूताना की रियासतों की एक ही इकाई बनाने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं है। काफी समझाने-बुझाने पर जयपुर के महाराजा वृहत राजस्थान के लिये तैयार हो गये, किन्तु उन्होंने शर्त रखी कि जयपुर के महाराजा वृहत राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाय तथा जयपुर को भावी राजस्थान की राजधानी बनाया जाय। इस पर मेनन ने कहा कि इन मसलों पर बाद में विचार कर लिया जायेगा, फिलहाल तो सिद्धांत रूप से चारों राज्यों के संयुक्त राजस्थान में विलय की बात तय करनी है। जयपुर महाराजा ने मेनन की बात स्वीकार कर ली तथा मेनन ने इस संबंध में एक प्रारूप की जानकारी बीकानेर और जोधपुर महाराजा को भी प्रेषित कर दी। फिर उसी दिन बीकानेर और जोधपुर के शासकों से भी बातचीत की गयी। काफी आनाकानी के बाद अंत में दोनों शासकों ने भी सिद्धांत रूप से वह प्रारूप स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् 12 जनवरी, 1949 ई. को मेनन ने उदयपुर जाकर महाराणा से भी बातचीत की और महाराणा ने भी अपनी स्वीकृति दे दी। 14 जनवरी, 1949 को सरदार पटेल ने उदयपुर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए वृहत राजस्थान के निर्माण की घोषणा कर दी। इस घोषणा का उपस्थित जन समुदाय ने तुमुल करतल ध्वनि से स्वागत किया।

सब कुछ तय हो जाने के बाद भी वृहत राजस्थान के निर्माण का काम इतना आसान नहीं था। क्योंकि एक ओर तो संयुक्त राजस्थान में सम्मिलित होने वाली चारों रियासतों के शासकों से विलय की शर्तें तय करनी थी तो दूसरी ओर संयुक्त राजस्थान की रियासतों के शासकों को भी आश्वस्त करना था। फिर सबसे कठिन समस्या तो राजस्थान के वरिष्ठ जन नेताओं को संतुष्ट करने की थी। इसके अलावा राजप्रमुख, राजधानी और मंत्रिमंडल के गठन से संबंधित प्रश्नों का हल भी ढूँढना था। अतः 3 फरवरी, 1949 ई. को श्री गोकुलभाई भट्ट, श्रीजयनारायण व्यास, पंडित हीरालाल शास्त्री और माणिक्यलाल वर्मा को दिल्ली में एक बैठक में बुलाया गया। इस बैठक में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह को जीवन पर्यंत राजप्रमुख बनाया जाय। किन्तु उदयपुर महाराणा ने इसे स्वीकार नहीं किया। यद्यपि राजपूताना के अन्य शासकों, जन नेताओं और भारत सरकार को उदयपुर महाराणा को राजप्रमुख बनाने में कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन महाराणा शारीरिक दृृष्टि से अपाहिज थे। फिर भी बैठक में उदयपुर के प्राचीन राजवंश की मान मर्यादा को ध्यान में रखते हुए महाराणा भूपालसिंह को महाराजा प्रमुख का सम्माननीय पद देने का निश्चय किया, किन्तु यह भी तय किया गया कि महाराज प्रमुख का पद व पद से संबंधित भत्ते महाराजा की मृत्यु के साथ ही स्वतः समाप्त समझे जायेंगे। राजधानी के प्रश्न पर काफी मतभेद रहा, क्योंकि जोधपुर और जयपुर नगर इसके प्रबल दावेदार थे। अतः राजधानी का मसला सरदार पटेल पर छोङ दिया गया। सरदार पटेल ने राजधानी का चयन करने के लिये एक समति नियुक्त की, जिसने भौगोलिक एवं पेय जल के साधनों को देखते हुए जयपुर को राजस्थान की राजधानी बनाने की सिफारिश की। समिति ने राजस्थान के अन्य बङे नगरों का महत्त्व बनाये रखने के लिये कुछ राज्यस्तर के सरकारी कार्यालय उक्त नगरों में रखने की सिफारिश की। सरदार पटेल ने समिति की सिफारिशें स्वीकार कर ली। फलस्वरूप जयपुर राजस्थान की राजधानी घोषित कर दी गयी। हाईकोर्ट जोधपुर में, शिक्षा विभाग बीकानेर में, खनिज विभाग उदयपुर में तथा कृषि विभाग भरतपुर में रखने का निर्णय लिया गया।

प्रधानमंत्री की नियुक्ति का प्रश्न अत्यन्त जटिल सिद्ध हुआ। इस पद के लिये पंडित हीरालाल शास्री और श्री जयनारायण व्यास प्रमुख दावेदार थे। प्रदेश काँग्रेस के अध्यक्ष श्री गोकुलभाई भट्ट रियासती विभाग को आश्वस्त कर चुके थे कि पंडित हीरालाल शास्त्री ही ऐसे व्यक्ति हैं जो राजस्थान का प्रशासन सुचारु रूप से चला सकते हैं। दूसरी ओर, प्रदेश काँग्रेस के आम कार्यकर्त्ता श्री जयनारायण व्यास को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में थे। परंतु रियासती विभाग ने स्पष्ट कर दिया कि राज्य में विधानसभा की अ-मौजूदगी में राजस्थान के प्रशासन की जिम्मेदारी भारत सरकार की है और वह पंडित हीरालाल शास्त्री को ही प्रधानमंत्री पद के लिये उपयुक्त समझती है। अन्ततोगत्वा प्रदेश काँग्रेस समिति की बैठक में प्रदेश काँग्रेस का नेतृत्व किसी तरह शास्त्रीजी को प्रधानमंत्री बनाने संबंधी प्रस्ताव को स्वीकार कराने में सफल हो गया।

उसके बाद जयपुर, जोधपुर और बीकानेर के शासकों का प्रीवी-पर्स निश्चित करना था। इस संबंध में निर्णय लिया गया कि जयपुर के महाराजा को 18 लाख रुपये वार्षिक प्रीवी-पर्स तथा साढे पाँच लाख रुपया वार्षिक राजप्रमुख का भत्ता दिया जायेगा, जोधपुर महाराजा को 17.50 लाख रुपये वार्षिक और बीकानेर महाराजा को 17 लाख रुपये वार्षिक दिया जायेगा। 30 मार्च, 1949 ई. को सरदार पटेल ने वृहत राजस्थान का विधिवत उद्घाटन किया। 7 अप्रैल, 1949 ई. को रामनवमी के शुभ मुहूर्त में पंडित हीरालाल शास्त्री के नेतृत्व में नये मंत्रिमंडल ने शपथ ग्रहण की और इस प्रकार राजस्थान में सदियों पुराना निरंकुश राजतंत्र सदा के लिये समाप्त हो गया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

Related Articles

error: Content is protected !!