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हल्दीघाटी का युद्ध (1576ई.)

हल्दीघाटी का युद्ध – राव चंद्रसेन की शक्ति के अंतिम केन्द्र सिवाणा के दुर्ग को जीतने के बाद अकबर ने प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान भेजने का निश्चय कर लिया और तदनुसार उसने अजमेर से कुँवर मानसिंह को एक शक्तिशाली सेना के साथ मेवाङ की ओर भेजा। 3 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह ने सेना सहित अजमेर से कूच किया।

अजमेर से मानसिंह माण्डलगढ पहुँचा और दो महीने तक यहीं डेरा डाले रहा। सम्भवतः मानसिंह राणा प्रताप द्वारा खाली कराई गई भूमि और मुगल अधिकृत क्षेत्र के बीच संचार और यातायात की उचित व्यवस्था करने के लिये इतने समय तक माण्डलगढ में रुक गया था।

अपने सरदारों की सलाह मानकर प्रताप ने गिर्वा की घाटियों में ही शत्रु से सामना करने का निश्चय किया और गोगुन्दा में आ डटा। जब प्रताप गोगुन्दा से आगे बढा तो विवश होकर मानसिंह माण्डलगढ से चलकर मोही गाँव होता हुआ उत्तर पूर्व की ओर से गोगुन्दा को जाने वाली हल्दीघाटी के उत्तरी छोर से लगभग 4-5 मील की दूरी पर स्थित खमनोर नामक गाँव के निकट पहुँचा और मोलेला नामक गाँव में अपना पङाव डाला।

यह गाँव बनास नदी के दूसरे किनारे पर तथा गोगुन्दा से लगभग 6-7 मील दूर था। राणा प्रताप मानसिंह की गतिविधियों पर गिद्ध दृष्टि रखे हुए था। जब मानसिंह ने मोलेला गाँव में पङाव डाला तो प्रताप भी हल्दीघाटी से 8 मील पश्चिम में लोहसिंह (लोशिंग)नामक गाँव में अपना पङाव डाल दिया।

कुम्भलगढ की पर्वत श्रृंखला इस स्थान पर सिकुङ कर दर्रे का रूप धारण कर लेती हैं। इस प्रकार, दोनों पक्ष की सेनाएँ 11-12 मील की दूरी पर पङाव डाले हुए थी। दोनों पक्षों की संख्या के बारे में विभिन्न आँकङें उपलब्ध होते हैं। ख्यातों के अनुसार मानसिंह के अधीन 80,000 सैनिक और प्रताप के पास 20,000 सैनिक थे।

नैणसी के अनुसार मानसिंह के पास 40,000 और प्रताप के पास 9-10 हजार सैनिक थे। युद्ध में उपस्थित इतिहासकार बदायूँनी के अनुसार मानसिंह की सेना में पाँच हजार सैनिक और प्रताप की सेना में तीन हजार घुङसवार थे। इसलिए किसी सही संख्या पर पहुँचना कठिन काम है। हाँ, निश्चित है कि मुगलों के पास अच्छी किस्म की हल्की तोपें भी थी और प्रताप के पास तोपें नहीं थी।

हल्दीघाटी का युद्ध

21 जून 1576 ई. को प्रातः काल के साथ ही दोनों पक्षों के मध्य युद्ध शुरू हो गया । इसे हल्दीघाटी का युद्ध कहा जाता है।

कर्नल टॉड ने इस युद्ध को मेवाङ की थर्मोपल्ली कहा है।

अबुल फजल ने इसे खमनौर का युद्ध कहा है।

बदायूँनी ने इस युद्ध को गोगुन्दा का युद्ध कहा है।

वास्तव में यह युद्ध हल्दीघाटी के दर्रे के मुहाने के बाहर की घाटी से लेकर खमनौर गाँव के मध्यवर्ती क्षेत्र में लङा गया था। प्रताप की ओर से प्रारंभिक प्रहार इतने जोरदार ढंग से किया गया था कि मुगलों की अग्रिम पंक्तियों की व्यवस्था गङबङा गई और ऊबङ-खाबङ भूमि पर मिलकर वे एक हो गयी।

प्रताप का पलङा भारी रहा और मुगल सेना धीरे-धीरे पीछे की ओर खिसकने लगी। इससे उत्साहित होकर प्रताप मुगल सेना के केन्द्रीय तथा दक्षिण-पार्श्व पर टूट पङा। उसका आक्रमण इतना जोरदार रहा कि अधिकांश मुगल सैनिक दस्ते युद्ध से भागकर 10-12 मील तक पीछे हट गये और बनास नदी के तट पर एकत्र होने लगे। इस प्रकार युद्ध का पहला चरण राणा के पक्ष में रहा।

प्रताप की विजय के आसार दिखाई देने लगे थे, परंतु सैयदों के पराक्रम से बाजी पलट गयी। सैयदों ने प्रताप के सैनिकों के भारी दबाव के बाद भी अपना स्थान नहीं छोङा और धैर्य तथा शौर्य के साथ लङते रहे। इसी समय पृष्ठ भाग से मिहत्तरखाँ यह चिल्लाता हुआ कि बादशाह सलामत स्वयं आ पहुँचे हैं अपने सैनिक दस्ते के साथ आगे बढा। इससे भागते हुये मुगल सैनिकों के पाँव थम गये और वे वापिस लौटकर मेवाङी सैनिकों से भिङ गये।

इस बार लङते-लङते दोनों पक्ष के सैनिक रक्त तलाई नामक स्थान पर एकत्र हो गये। यह खूनी तलाई बनास नदी के तट पर खमनौर तथा भागल गाँव के मध्य में स्थित है। दोनों ही पक्षों के सैनिकों ने जी जान से संघर्ष किया। इसी समय मानसिंह अपने हाथी को आगे बढाकर ले आया। उसने असाधारण पराक्रम का प्रदर्शन किया।

उसकी वीरता को देखकर उसके शत्रु भी दंग रह गये। इसी अवसर पर दोनों पक्षों की हस्ति सेना भी एक दूसरे से भिङ गई। राणाप्रताप लङते-लङते मानसिंह के हाथी के सामने जा पहुँचे और उनके मन में अनायास ही मानसिंह से लङने की इच्छा प्रबल हो उठी। उन्होंने सुप्रसिद्ध घोङे चेतक को एङ लगाई और घोङा हाथी के दाँतों पर पैर जमाकर खङा हो गया।

प्रताप ने भरपूर वेग के साथ अपना भाला मानसिंह की तरफ फेंका परंतु वह सतर्क था। मानसिंह फौरन हौदे में झुककर वार को बचा गया। तभी मानसिंह के हाथी ने जोर से अपने सिर को हिलाया। उसके दाँतों में लगे तेज धारदार चाकू से चेतक की एक अगली टाँग जख्मी हो गयी।

इस रोमांचक समय पर मुगल सेना के सुरक्षित सैनिक दस्ते ने प्रताप को चारों तरफ से घेरकर उस पर जोरदार धावा बोल दिया जिससे वह बुरी तरह से घायल हो गया। फिर भी, वह वीरतापूर्वक लङता रहा। अंत में उसके कुछ स्वामिभक्त सैनिक चेतक की बागें पकङकर उसे सुरक्षित युद्ध क्षेत्र से बाहर निकाल ले गये।

राणा प्रताप के युद्ध क्षेत्र से हटने के संबंध में एक दिलचस्प घटना का भी विवरण मिलता है। जब प्रताप चारों ओर से घिर गया था तब स्वामिभक्त झाला बीदा ने उनके सिर से राजकीय छत्र खींचकर अपने मस्तक पर धारण कर लिया। और मानसिंह के सैनिकों पर झपट पङा। मुगल सैनिकों ने उसे ही राणा प्रताप समझकर उस पर अपना ध्यान केन्द्रित कर दिया। इससे प्रताप को युद्ध क्षेत्र से बाहर निकलने का अवसर मिल गया।

प्रताप के युद्ध क्षेत्र से हटने के बाद भी घमासान युद्ध जारी रहा। मानसिंह ने उचित समय पर सुरक्षित सैनिकों को भी युद्धक्षेत्र में झोंक दिया। इससे मुगलों की प्रहार शक्ति बढ गई। प्रताप के सैनिक काफी थक चुके थे। वे मुगलों के ताजे हमले का सामना नहीं कर सके और एक-एक करके अनेक सरदार तथा सैनिक मारे जाने लगे। झाला बीदा के मरते ही युद्ध लगभग समाप्त हो गया और राणा की बची हुई सेना गोगुन्दा के पश्चिम में कोलियारी नामक गाँव में पहुँच गयी। परंतु विजयी मुगल सेना को इसके बाद भी भीलों ने बहुत अधिक परेशान किया और वे उसकी रसद लूटकर ले गये।

हल्दीघाटी के युद्ध में दोनों पक्षों के कितने सैनिक मारे गये – इस संबंध में भी कुछ विवाद है। निजामुद्दीन के अनुसार मुगलों के 150 और प्रताप के 500 सैनिक मारे गये। बदायूँनी, जिसने इस युद्ध में भाग लिया था, के अनुसार कुल 500 लोग मारे गये जिनमें 120 मुसलमान थे। चारणों की रचना में इतनी अधिक संख्या दी गयी है कि उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। शायद 650 से अधिक मारे गये।

युद्ध का निर्णय

हल्दीघाटी के युद्ध के निर्णय के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। जहाँ एक ओर राजस्थानी स्रोत – राजप्रशस्ति, राजविलास और जगदीश मंदिर प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से प्रताप को विजयी माना है, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम इतिहासकारों ने हल्दी घाटी के युद्ध में मुगलों की निर्णायक विजय बताया है। किन्तु वास्तविकता यह है कि सैनिक दृष्टि से हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप की पराजय अवश्य हुई थी, लेकिन नैतिक दृष्टि से प्रताप की पराजय नहीं हुई, क्योंकि मुगल सम्राट अकबर की, मेवाङ को अपने अधीन करने की चिर अभिलाषा कभी पूरी नहीं हुई।

डॉ.ए.एल. श्रीवास्तव ने लिखा है, मानसिंह की यह चढाई अपने प्रारंभिक उद्देश्य में ही असफल रही थी। यह उद्देश्य राणा प्रताप को मारना या बंदी बनाना और मेवाङ को अधीन करना था। इस दृष्टि से मुगलों की नैतिक पराजय हुई। जून की भीषण गर्मी के कारण सैनिक दृष्टि से विजयी मुगल सैनिकों में हिलने तक की शक्ति नहीं रह गयी थी।

वे सिसोदिया योद्धाओं से अत्यन्त ही भयभीत हो चुके थे। इस तथ्य को स्वयं बदायूँनी ने अपनी पुस्तक मुन्तखब-उत्-तवारीख में स्वीकार किया है। बदायूँनी स्वयं युद्ध क्षेत्र में मुगलों की ओर लङने के लिये उपस्थित था। मुस्लिम इतिहासकारों के अलावा कतिपय भारतीय इतिहासकारों ने इस युद्ध में प्रताप की पराजय और प्रताप के युद्ध क्षेत्र से भाग जाने की बात कही है। लेकिन इसमें सत्यता नहीं है।

प्रताप को तो उसके ही सरदारों ने उसके घोङे की बागें पकङ कर युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित बाहर ले गये थे, ताकि पुनः तैयारी करके मुगलों से लोहा ले सकें। राजस्थानी स्रोतों के विवरण में अतिशयोक्ति की संभावना रहती है।इसीलिए इन स्रोतों में प्रताप को विजयी बताया गया है। लेकिन संभव है इन स्रोतों के रचियताओं ने नैतिक विजय का उल्लेख किया हो। वस्तुतः अकबर ने मानसिंह को जिन्दा या मुर्दा पकङ लाने का आदेश दिया था।

मानसिंह इस आदेश का पालन करने में पूर्णतया असफल रहा। युद्ध के मैदान में राजपूतोंकी सैनिक पराजय अवश्य हो गयी थी, लेकिन उसी मैदान में अकबर का मुख्य उद्देश्य भी ध्वस्त हो चुका था। अतः यह कहना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि सैनिक दृष्टि से मुगलों को विजयश्री भले ही प्राप्त हो गयी हो, लेकिन मुगलों को नैतिक पराजय का भी सामना करना पङा।

प्रताप की पराजय के कारण

प्रताप तथा उसके सैनिकों में साहस तथा वीरता की कमी नहीं थी और वे बहादुरी के साथ लङे भी, फिर भी उन्हें पराजय का सामना करना पङा। उसकी पराजय का एक कारण उसके द्वारा अपनाई गई परंपरागत युद्ध शाली थी। यदि वह अपनी सेना को घाटी और दर्रे में बिखेर कर शत्रु सेना के आगमन की प्रतीक्षा करता तो शायद वह शत्रु सेना को तंग घाटी में घेर कर परास्त कर सकता था।

परंतु प्रारंभिक दौर में सफलता के साथ ही वह सेना सहित सम्मुख युद्ध में कूद पङा और सीधे युद्ध में मुगल सेना को जितना अनुभव था, उसकी तुलना में राजपूत सैनिक काफी कमजोर सिद्ध हुए। दूसरा कारण प्रतिकूल परिस्थितियों में सेनापति के लिये जिस धैर्य और संयम की आवश्यकता तथा कुशलतापूर्वक सैन्य संचालन की योग्यता होनी चाहिये राणा प्रताप इस स्तर को नहीं पहुँच सका था। तीसरा कारण प्रताप द्वारा शत्रु पर आक्रमण करने की सुनिश्चित योजना नहीं की गयी। युद्ध के दौरान अपनी सेना के विभिन्न अंगों के मध्य आपसी समन्वय पर भी विशेष ध्यान नहीं दिया गया।

उसने अपनी दो सशक्त सैनिक टुकङियों को एक साथ युद्ध में झोंककर मुगलों के अग्रिम दस्तों को तो खदेङ दिया परंतु भागते हुए मुगल सैनिकों का पीछा न किये जाने से उन्हें पुनः संगठित होकर दुबारा आक्रमण करने का मौका मिल गया। दूसरी तरफ प्रचंड आक्रमण ने प्रताप के सैनिकों को थका दिया। चौथा कारण प्रताप द्वारा अपनी सेना के पृष्ठ भाग की सुरक्षा के लिये कोई व्यवस्था न करना और निर्णायक दौर के लिये सुरक्षित सैनिक दस्ता न रखना था।

पाँचवाँ कारण, हाथियों को बेकार में ही इस ऊबङ-खाबङ युद्ध क्षेत्र में झोंकना था। डॉ.रघुवीर सिंह ने ठीक ही लिखा है कि, अच्छा निशाना लगाने वाले घुङसवार यौद्धाओं के विरुद्ध हाथियों द्वारा आक्रमण करने की निस्सारता हल्दीघाटी के इस युद्ध द्वारा एक बार और प्रमाणित हो गयी।

अंतिम दौर में जब प्रताप की सैन्य-व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी, तब ऐसे अवसर पर मानसिंह के हाथी की ओर बढ कर उस पर वार करना मुगल सैनिकों द्वारा घिर जाना और घायल होकर युद्ध क्षेत्र त्यागना प्रताप की पराजय का कारण बन गया। यदि इस नाजुक अवसर पर वह अपने व्यक्तिगत शौर्य प्रदर्शन के स्थान पर अपनी सैन्य व्यवस्था को पुनः जमाने का प्रयास करता तो संभव है कि उसे सैनिक पराजय का सामना नहीं करना पङता।

गोगुन्दा में शाही सेना की दुर्दशा

हल्दीघाटी के इस युद्ध के बाद मुगलों की शाही सेना इतनी थक चुकी थी कि सैनिकों में चलने फिरने की शक्ति भी नहीं रह गई थी और साथ ही शाही सेना में यह बात फैल गयी थी कि चोरी-छिपे छल के साथ राणा पहाङों में घात लगाए हुए होगा। अतः शाही सेना ने राणा का पीछा भी नहीं किया और मानसिंह शाही सेना को लेकर हल्दीघाटी से 11 मील दूर गोगुन्दा चला गया।

महाराणा प्रताप ने अपने आदमियों को इस प्रकार जगह-जगह तैनात कर दिया कि मानसिंह के खेमे तक कोई रसद न पहुँच सके। यहाँ तक कि बंजारों को भी खाद्य सामग्री लेकर उधर नहीं जाने दिया जाता था। शाही सेना भयभीत और आतंकित तो थी ही और साथ ही रसद के अभाव में उसकी बङी दुर्दशा हो रही थी।

इधर राणा के छापामार सैनिक समय-समय पर गोगुन्दा में शाही सेना पर धावे मारने लगे। छापामार सैनिकों ने शाही सेना की बङी दुर्दशा की। अतः गोगुन्दा में चार माह तक कैदियों की तरह पङी शाही सेना भयभीत होकर राजपूतों और भील टुकङियों से लुकती-छिपती, लङती-भिङती अकबर के पास अजमेर चली गयी।

युद्ध का महत्व और परिणाम

पानीपत, खानवा या अन्य किसी भी महत्त्वपूर्ण युद्ध की तुलना में हल्दीघाटी का युद्ध कोई महत्त्व नहीं रखता, क्योंकि इसमें बहुत कम सैनिकों ने भाग लिया और मरने वालों की संख्या भी केवल 600 के आसपास रही। इन तथ्यों के बाद भी इतिहासकार इस युद्ध को भारतीय इतिहासमें असाधारण महत्त्व देते आये हैं। संभवतः इसका मूल कारण यही रहा हो कि अकबर और मानसिंह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहे।

अकबर ने मानसिंह को प्रताप को बंदी बनाकर लाने अथवा मौत के घाट उतारने का आदेश दिया था। परंतु मानसिंह प्रताप को परास्त करने के उपरांत भी अकबर के आदेश को पूरा नहीं कर पाया। इतना ही नहीं, बल्कि जैसा कि बदायूँनी ने लिखा है, जून की भीषण गर्मी के कारण मुगल सैनिक इतने अधिक थक गये थे कि उनमें भागते हुए प्रताप के सैनिकों अथवा भीलों का पीछा करने की शक्ति भी नहीं रह गयी थी।

युद्ध के बाद स्थानीय लोगों की शत्रुता के कारण मुगल सेना को इतने अधिक कष्टों का सामना करना पङा कि विवश होकर मानसिंह को गोगुन्दा छोङना पङा। अकबर को हल्दीघाटी के परिणामों से संतोष नहीं हुआ और उसने मानसिंह और आसफखाँ को कुछ सय के लिये दरबार में आने से रोक दिया।

हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुआ, परंतु उसकी शक्ति पूरी तरह से नष्ट नहीं हुई। उसे केवल 500सैनिकों से हाथ धोना पङा और कुछ नैतिक तथा मानसिक आघात सहन करना पङा। इस युद्ध के बाद मुगलों के प्रति प्रताप का रुख और अधिक कङा हो गया और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिये मुगल से संघर्ष जारी रखने का दृढ संकल्प कर लिया। डॉ.आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के मतानुसार – हल्दीघाटी का युद्ध राणा की 18 जून, 1576 ई. के पूर्व और उसके बाद की नीतियों एवं कार्यों को विभाजित करने वाली रेखा है।

इस युद्ध में महत्त्वपूर्ण अनुभव प्राप्त करने के बाद अधिकृत मेवाङ को पुनः प्राप्त करने के कार्यक्रम को क्रियात्मक रूप से दिया जाने लगा। कुछ संकीर्ण दृष्टिकोण वाले लोगों ने इस युद्ध को हिन्दुओं का मुसलमानों के विरुद्ध संघर्ष माना है। इस प्रकार के कथन बेबुनियाद हैं। हल्दीघाटी का युद्ध वास्तव में साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध प्रादेशिक स्वतंत्रता का संघर्ष था।

इस युद्ध के पूर्व न तो राणा प्रताप ने अकबर को चुनौती दी थी और न चित्तौङ को पुनः हस्तगत करने की दिशा में कोई सक्रिय कदम उठाया था। फिर भी, साम्राज्यवादी अकबर ने उस पर अपनी सर्वोच्चता आरोपित करने के लिये युद्ध छेङ दिया। ऐसी स्थिति में प्रताप द्वारा अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिये लङना अनिवार्य हो गया था। पराजय के बाद भी उसकी कीर्ति उज्जवल हो गयी और हल्दीघाटी का क्षेत्र स्वाधीनता प्रेमियों के लिये एक पवित्र तीर्थस्थल बन गया।

हल्दीघाटी के बाद

हल्दीघाटी की पराजय से निराश होकर प्रताप चुपचाप बैठने वाला व्यक्ति नहीं था। उसने कुम्भलगढ को अपना केन्द्र बनाकर अपनी शक्ति को पुनः संगठित करके मुगलों के बढते हुए प्रभाव को रोकने का प्रयास किया। इसके अलावा उसने ईडर के नारायण दास और सिरोही के राव सुरताण को मुगलों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिये प्रोत्साहित किया। मारवाङ के राव चंद्रसेन द्वारा किये गए नाडौल उपद्रव में भी प्रताप का अप्रत्यक्ष सहयोग था।

मानसिंह की वापसी के बाद प्रताप ने गोगुन्दा पर पुनः अधिकार कर लिया। तब अकबर ने राजा भगवंत दास, मानसिंह और कुतुबुद्दीन खाँ को ससैन्य गोगुन्दा भेजा और पीछे-पीछे स्वयं एक सेना के साथ गोगुन्दा की ओर बढा। मुगल सेना के आगमन की सूचना मिलते ही प्रताप अपने परिवार के साथ दुर्गम पहाङियों में जा छिपा।

अकबर ने उसका पता लगाने का काफी प्रयास किया परंतु उसे सफलता नहीं मिली। मोही नामक गाँव के पास कई दिनों की प्रतीक्षा के बाद 27 नवम्बर, 1576 ई. को अकबर उदयपुर होता हुआ बाँसवाङा की ओर चला गया। इन दो महीनों की अधि में अकबर दुर्गम पहाङियों के चारों ओर के कई महत्त्वपूर्ण स्थानों को अधिकृत कर प्रताप को चारों तरफ से घेरने का प्रयास किया ताकि प्रताप को विवश होकर आत्मसमर्पण करना पङे लेकिन उसे अपने प्रयासों में सफलता नहीं मिली।

दूसरी तरफ, प्रताप अपनी छापामार युद्धनीति के द्वारा मेवाङ से गुजरात जाने वाले मार्गों को अवरुद्ध करता रहा और एक बार उसने पुनः गोगुन्दा को जीत लिया। परंतु उसकी यह विजय क्षणिक रही। मुगल सेना ने गोगुन्दा पर अधिकार कर उसे पुनः पहाङों का आश्रय लेने के लिए विवश कर दिया जिससे जुलाई, 1577ई. तक प्रताप द्वारा जीते गये क्षेत्र एक बार पुनः मुगलों के अधिकार में चले गये।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : हल्दीघाटी का युद्ध

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