इतिहासफ्रांस की क्रांतिविश्व का इतिहास

1848 की क्रांति के परिणाम

1848 की क्रांति के परिणाम

1848 की क्रांति के परिणाम :

यूरोप के इतिहास में सन् 1848 क्रांति का वर्ष माना जाता है। जिस प्रकार फ्रांस की 1830 की क्रांति ने यूरोप के राज्यों को प्रभावित किया था, उसी प्रकार फ्रांस की 1848 की क्रांति से भी यूरोप अछूता नहीं रह सका। 1848 में यूरोप के विभिन्न राज्यों में 17 क्रांतियाँ हुई थी।

1830 की फ्रांसीसी क्रांति की तुलना में 1848 की क्रांति का प्रभाव अधिक व्यापक रहा। मध्य यूरोप तो इससे अधिक प्रभावित हुआ, कि वियना कांग्रेस ने जो यूरोपीय व्यवस्था का ढाँचा तैयार किया था, उसकी नीवें हिलने लगी। यद्यपि 1848 के आरंभ में निकट भविष्य में क्रांति की कोई संभावना नहीं थी, तथापि यूरोप के अनेक भागों में ऐसी विस्फोटक स्थिति का निर्माण हो चुका था, जिसके परिणामस्वरूप क्रांति भङक सकती थी।

1848 की क्रांति के परिणाम

जनता प्रतिक्रियावादी शासन का अंत करने हेतु उतारू बैठी थी। फ्रांस की क्रांति ने उन्हें प्रोत्साहित कर दिया तथा एक देश की क्रांति की प्रगति ने दूसरे देश की क्रांति की गतिविधियों को प्रभावित किया, किन्तु समग्र रूप से यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि 1848 में यूरोप के अन्य राज्यों में क्रांति का कारण फ्रांस की ही क्रांति थी।

इटली के कुछ भागों में फ्रांस की क्रांति के पहले ही उदारवादी आंदोलन आरंभ हो चुके थे तथा उन्हें सफलता भी मिल चुकी थी, अतः इतिहासकारों में इस विषय को लेकर मतभेद है कि यूरोप की 1848 की क्रांतियों को वास्तविक प्रोत्साहन फ्रांस से प्राप्त हुआ था या इटली से।

डेविस थामसन का मत है, कि इन क्रांतियों को वास्तविक प्रोप्तसाहन इटली से प्राप्त हुआ था जबकि चार्ल्स पाउथस तथा डॉ.ए.डब्ल्यू.वार्ड फ्रांस की क्रांति को प्रेरक मानते हैं। एलिसन फिलिप्स का भी कहना है, कि फ्रांस की क्राति की ज्वाला मानो एक संकेत थी, जिसे प्राप्त कर क्रांतिकारी आंदोलन, जिनकी काफी पहले से तैयारी हो चुकी थी, एक साथ भङक उठे। संभव है, इस संकेत के न मिलने पर यह विस्फोट एक साथ न होकर अलग-अलग होता।

1848 की क्रांति कहाँ से प्रारंभ हुई ?

1848 की क्रांति के परिणाम स्वरूप आस्ट्रिया में क्रांति

आस्ट्रिया अभी तक प्रतिक्रिया का गढ बना हुआ था। फ्रांस की क्रांति की सूचना मिलते ही वियना के राजनैतिक क्षेत्रों में, विश्वविद्यालयों के अध्यापकों एवं विद्यार्थियों में उत्तेजना फैल गई।1848 की क्रांति के परिणाम स्वरूप 12 मार्च, 1848 को विश्वविद्यालय में आंदोलनकारियों द्वारा प्रदर्शन हुए तथा दो अध्यापकों ने जनता की ओर से सुधारों हेतु सम्राट को प्रार्थना पत्र दिया।

13 मार्च को विद्यार्थियों और मजदूरों का एक विशाल जुलूस निकला, किन्तु सेना ने उन पर गोली चला दी, फिर भी भीङ ने आगे बढकर राजमहल को घेर लिया तथा मेटरनिख के त्याग-पत्र की माँग की। 14 मार्च को मेटरनिख ने त्याग-पत्र दे दिया तथा आस्ट्रिया से भाग खङा हुआ। इल घटना का संपूर्ण यूरोप पर आर्श्चयजनक प्रभाव पङा।

1848 की क्रांति के परिणाम

मेटरनिख के पलायन के बाद सम्राट फर्डीनेण्ट प्रथम ने आंदोलनकारियों को शांत करने के लिये नवीन संविधान प्रदान किया तथा जनता को अनेक अधिकार दिये, किन्तु जनता इस संविधान से संतुष्ट नहीं हुई तथा 15 मई को विद्यार्थियों एवं मजदूरों की भीङ ने मंत्रिमंडल के सभा-कक्ष को घेर लिया।

इस उत्तेजित भीङ ने संविधान में आवश्यक संशोधन करने का वचन देने हेतु बाध्य किया। सम्राट को विद्रोहियों के समक्ष झुकना पङा, किन्तु अब उसका धौर्य समाप्त हो चुका था। अतः 17 मई को सम्राट वियना से भाग खङा हुआ तथा इंसबुक नगर में शरण ली। 26 मई को क्रांतिकारियों ने लोकतंत्र स्थापित कर लिया तथा नया संविधान बनाने के लिये वयस्क मताधिकार के अधिकार पर चुनी हुई राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन हुआ।

राष्ट्रीय सभा के अधिकांश सदस्य वैधानिक राजतंत्र स्थापित करने के पक्ष में थे, अतः सम्राट को वापस बुलाया गया तथा राष्ट्रीय सभा संविधान निर्माण में लग गई। इसी बीच साम्राज्य के अन्य भागों में क्रांति भङक उठी, जिससे वियना में भी क्रांतिकारी उठ खङे हुए। विद्रोहियों ने युद्ध मंत्री की हत्या कर दी।

स्थिति की नाजुकता को देखते हुये सम्राट पुनः भाग खङा हुआ, किन्तु जाते-जाते उसने सेना को आदेश दिया कि विद्रोहियों को गोली से उङा दे। सेना अभी भी सम्राट के प्रति वफादार थी, उसने वियना पर आक्रमण कर दिया तथा विद्रोहियों को परास्त किया। आस्ट्रिया में क्रांति असफल हो गयी। सम्राट पुनः लौट आया तथा जनता को प्रसन्न करने के लिये संविधान प्रदान किया।

1848 की क्रांति के परिणाम स्वरूप हंगरी में क्रांति

13 मार्च को वियना क्रांति की सूचना प्राप्त होते ही हंगरी में भी विद्रोहाग्नि प्रज्जवलित हो गई। उस समय हंगरी आस्ट्रियन साम्राज्य का अंग था। हंगरी में सामंतों का अत्यधिक प्रभाव था तथा उनके अत्याचारों से जनता तंग आ चुकी थी।

वियना क्रांति से प्रोत्साहित होकर 15 मार्च, 1848 को लोकप्रिय नेता क्रोसथ के प्रभाव से हंगरी की सदन ने मार्च कानून पारित किया। इस कानून के अनुसार हंगरी में प्राचीन कुलीनतंत्रीय शासन के स्थान पर लोकतंत्रीय संविधान की स्थापना की गयी।

इस नए संविधान के अनुसार हंगरी में एक व्यवस्थापिका सभा तथा उत्तरदायी मंत्रिमंडल की स्थापना की गई। प्रेस की स्वतंत्रता, धार्मिक एवं सामंतों के विशेषाधिकारों की समाप्ति की घोषणा की गई। इन सुधारों से हंगरी की अपनी पृथक सरकार हो गई। यद्यपि आस्ट्रिया का सम्राट अब भी हंगरी का सम्राट था तथापि अब हंगरी, आस्ट्रिया की सरकार की अधीनता से मुक्त हो गया।

ग्राण्ट एवं टेम्परले ने लिखा है, कि वियना और बुडापेस्ट (हंगरी) की घटनाओं के स्वरूप में काफी अंतर था। वियना में एक उदारवादी आंदोलन को सफलता मिली थी, जबकि बुडापेस्ट में मेग्योर राष्ट्रीयता की विजय हुई थी, क्योंकि हंगरी में जो अब शासन स्थापित हुआ वह कट्टर जर्मन विरोधी तथा हेप्सबर्ग विरोधी राष्ट्रीय शासन था।

हंगरी के लुई कोसथ के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शासन चल रहा था, जिसमें मेग्योरों की प्रधानता थी। अतः हंगरी में विभिन्न अन्य जाति के लोगों ने भी मेग्योरों के समान स्वशासन के अधिकार की माँग की, क्योंकि उनकी भाषा और संस्कृति मेग्योरों से भिन्न थी। हंगरी में अब विभिन्न जातियों में आपसी फूट उत्पन्न हो गई तथा उनके आपसी मतभेद निरंतर बढते गए। इस फूट का लाभ उठाते हुये आस्ट्रिया ने हंगरी के विरुद्ध क्रांतिकारियों को सहायता दी।

इस पर हंगरी ने आस्ट्रिया से अपना संबंध विच्छेद कर गणतंत्र की घोषणा कर दी। इसके प्रत्युत्तर में आस्ट्रिया ने हंगरी पर आक्रमण कर दिया। आस्ट्रिया की इस सेना के साथ हंगरी की अन्य जातियों के लोग भी थे। इस युद्ध में हंगरी पराजित हुआ तथा वह पुनः आस्ट्रिया के अधीन राज्य बन गया।

1848 की क्रांति के परिणाम स्वरूप बोहेमिया में क्रांति

हंगरी का 1848 की क्रांति से प्रभावित होकर बोहेमिया के कुछ व्यक्तियों ने 11 मार्च, 1848 को कुछ उदारवादी माँगें रखी, जिनमें स्वायत्तताकी माँग प्रमुख थी। आस्ट्रिया के सम्राट ने उनकी सभी माँगें स्वीकार कर लीं, किन्तु आगे चलकर बोहेमिया के जर्मन और चेक नेताओं में मतभेद उत्पन्न हो गये, क्योंकि बोहेमिया में जर्न जाति के लोग अल्पसंख्यक थे, उन्हें कुचल देंगे, अतः जर्मन लोगों ने सुधारों का विरोध किया।

जून 1848 में प्राग में एक लिखित स्लाव सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य जर्मन सभा के विरुद्ध स्लाव लोगों की स्वायत्तता की माँग करना था। सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने आस्ट्रिया के सेनापति के विरुद्ध नारे लगाने आरंभ कर दिये तता एक दिन उसके मकान पर आक्रमण कर दिया। आस्ट्रिया के सेनापति को अवसर मिल गया, अतः उसने बङी निर्दयता से विद्रोह का दमन कर दिया। बोहेमिया में किए गये शासन सुधार वापस ले लिए गए तथा विद्रोहियों को कठोर दंड दिया गया।

1848 की क्रांति के परिणाम स्वरूप इटली में क्रांति

वियना कांग्रेस ने उत्तरी इटली के लोम्बार्डी तथा वेनेशिया के राज्य आस्ट्रिया को दे दिये थे तथा मध्य इटली में विभिन्न निरंकुश राज्य स्थापित कर दिये थे। इटली के देशभक्त इटली को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में देखना चाहते थे, किन्तु अब तक मेटरनिख की शक्ति के कारण लाचार थे।

फरवरी, 1848 की फ्रांसीसी क्रांति के पूर्व ही नेपल्स में विद्रोह हो चुका था। तथा फरवरी 1848 में वहाँ के शासक फर्डीनेण्ड को एक उदार संविधान स्वीकृत करना पहा था। मेटरनिख के पलायन की सूचना मिलते ही इटली में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हो उठी तथा इटली की जनता आस्ट्रिया के प्रभुत्व से मुक्त होने का प्रयास करने लगी। सर्वप्रथम 18 मार्च को मिलान में विद्रोह हो गया तथा पाँच दिन तक विद्रोहियों और आस्ट्रिया की सेना के बीच संघर्ष चलता रहा।

अंत में, 22 मार्च को जनरल रेडित्स्की को मिलान छोङकर भागना पङा। 22 मार्च को वेनिश के देशभक्तों ने वेनिश में गणतंत्र स्थापित कर लिया।23 मार्च को लोम्बार्डी और वेनेशिया ने भी आस्ट्रिया के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा आस्ट्रिया की सेना को पराजित कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया।

इस घटना से प्रोत्साहित होकर इटली के समस्त राज्यों में आंदोलन छिङ गया। ऐसा प्रतीत होता है, कि मानो इटली की स्वतंत्रता की घङी आ पहुँची है, किन्तु जनरल रेडेत्सकी ने विद्रोहियों को परास्त कर दिया। 6 अगस्त 1848 को रेडेत्स्की ने मिलान पर अधिकार कर लिया।

इस प्रकार लोम्बार्डी और वेनेशिया पर पुनः आस्ट्रिया का अधिकार हो गया और उन्हें एक अपमानजनक संधि स्वीकार करनी पङी। इटली के आंदोलन को कुचल दिया गया। इटली के छोटे-छोटे राज्यों ने, जो संविधान स्वीकृत किये थे, वापस ले लिये।

सार्डीनिया के शासक विक्टर इमेनुअल पर भी आस्ट्रिया ने दबाव डाला कि वह संविधान वापल ले ले किन्तु उसने संविधान वापस लेने से इनकार कर दिया। अतः इटली की समस्त जनता अब विक्टर इमेनुअल को अपना नेता समझने लगी और उनकी समस्त आशाएँ विक्टर इमेनुअल पर केन्द्रित हो गई।

1848 की क्रांति के परिणाम स्वरूप जर्मनी में क्रांति

फरवरी, 1848 को फ्रांसीसी क्रांति से सर्वप्रथम जर्मनी के छोटे राज्य प्रभावित हुए। बेडेन, बर्टनबर्ग, हेनोवर, सेक्सनी आदि छोटे राज्यों के शासकों ने भी उदार मंत्रिमंडलों की नियुक्ति की तथा राजनैतिक अधिकार, प्रेस की स्वतंत्रता, वैधानिक शासन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को स्वीकार किया।

यद्यपि इन धाराओं का प्रभाव प्रशा पर नहीं पङा था, किन्तु मेटरनिख के पतन की सूचना मिलते ही 15 मार्च, को बर्लिन की जनता ने भी विद्रोह कर दिया। प्रशा के शासक ने इस लोकतंत्रात्मक प्रवृत्तियों का विरोध किया। अतः जर्मनी के अन्य राज्यों के शासकों का भी रुख जन विरोधी हो गया।

फलतः सेक्सनी, हेनोवर और बेडेन में पुनः आंदोलन छिङ गए, किन्तु प्रशा की सेना ने इनका दमन कर दिया। यद्यपि प्रशा की सेनाओं ने छोटे राज्यों की क्रांतियों का दमन कर दिया था, किन्तु उसे स्वयं को बर्लिन के क्रांतिकारियों के समक्ष झुकना पङा।

प्रशा के शासक ने आस्ट्रिया को पृथक रखते हुये जर्मनी के शासकों का एक संघ बनाया, जिसमें 28 शासक सम्मिलित हुए किन्तु आस्ट्रिया प्रशा के शासक की इस कार्यवाही को सहन नहीं कर सका। अतः उसने प्रशा के शासक को युद्ध की धमकी देते हुए संघ को भंग करने को कहा।

प्रशा का शासक आस्ट्रिया से व्यर्थ में झगङा मोल लेना नहीं चाहता था तथा वह रूस के जार से भी सशंकित था, अतः 3 अप्रैल, 1849 को प्रशा के शासक ने संघ को भंग कर दिया। इतना ही नहीं, आस्ट्रिया ने जर्मनी में पुनः उस संघ को स्थापित कर दिया, जो 1815 में वियना कांग्रेस ने स्थापित किया था।

1848 की क्रांति के परिणाम स्वरूप रोम में क्रांति

रोम इटली का ही राज्य था, किन्तु उसका विशेष महत्त्व था। यह पोप का अलग राज्य था तथा रोम उसकी राजधानी थी। 1846 में पोप पायस नवम् गद्दी पर बैठा था। वह बङा ही उदार था तथा शासन सुधार में विश्वास रखता था। उसने सभी राजनैतिक बंदियों को मुक्त कर जनता को संविधान प्रदान कर दिया, किन्तु जब सार्डीनिया ने आस्ट्रिया के विरुद्ध इटली में युद्ध छेङ दिया तो पोप ने इस राष्ट्रीय युद्ध में सम्मिलित होने से इनकार कर दिया, क्योंकि आस्ट्रिया रोमन कैथोलिक चर्च का घनिष्ठ मित्र था।

पोप की इस कार्यवाही से जनता क्रुद्ध हो गई तथा उसे राष्ट्रीयता का शत्रु समझने लगी। फलतः रोम में विद्रोह हो गया। रोम की यह क्रांति बङी भीषण थी। 5 नवम्बर, 1848 को पोप के एक मंत्री की हत्या कर दी गई। पोप भागकर नेपिल्स चला गया तथा रोम में गणतंत्र की स्थापना कर दी गई, किन्तु फ्रांस का नया राष्ट्रपति नेपोलियन, जो रोमन कैथोलिक चर्च का घोर समर्थक था, इस कार्यवाही को सहन नहीं कर सका। उसने पोप के पक्ष में रोम में अपनी सेनाएँ भेज दी। गणतंत्रीय सेना परास्त हुई तथा फ्रांस की सेना ने गणतंत्र को समाप्त कर पोप के शासन को पुनः स्थापित कर दिया।

1848 की क्रांति के परिणाम स्वरूप डेनमार्क और हालैण्ड में क्रांति

1848 में यूरोप में चल रही क्रांति की लहर से डेनमार्क और हालैण्ड भी अछूते नहीं रह सके। फरवरी, 1848 की फ्रांसीसी क्रांति की सफलता के समाचार प्राप्त होते ही डेनमार्क के उदारवादियों ने निरंकुश शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। 21 मार्च, 1848 को डेनमार्क के शासक फ्रेडरिक सप्तम को क्रांतिकारियों की माँगों को स्वीकार करना पङा। एक संविधान सभा के चुनाव कराए गए तथा इस सभा द्वारा निर्मित संविधान जून, 1849 में लागू कर दिया गया।

हालैण्ड के शासक विलियम द्वितीय ने स्वयं ही उदारवादी आंदोलन का नेतृत्व किया तथा अक्टूबर, 1848 में नया संविधान स्वीकार किया गया, जिसके अनुसार दो सदनों की एक व्यवस्थापिका सभा (स्टेट्स जनरल) की व्यवस्था की गई तथा उत्तरदायी मंत्रिमंडल की स्थापना की गई। जनता को शासन संबंधी अधिकार प्राप्त हो गए।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

online reference :

Wikipedia : फ्रांस की क्रांति

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