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धम्म विजय क्या थी

अशोक के 13 वें शिलालेख में धम्म-विजय की चर्चा करते हुए अशोक कहता है, कि देवताओं की प्रिय धम्म विजय सबसे मुख्य विजय है। यह विजय उसे अपने राज्य में तथा सब सीमांत प्रदेशों में 600 योजन तक, जिसमें अंतियोक नामक यवन राजा तथा तुरमय अंतिकिन, मग और अलिक सुंदर हैं, तथा दक्षिण की ओर चोल, पाण्डय और ताम्रपर्णि तक में प्राप्त हुई है।

उसी तरह यहाँ राजा के राज्य में, यवनों और कंबोजों में, नभपंक्तियों और नाभक में, वंशानुगत भोजों, आंध्रक और पुलिंदों में सब जगह लोग देवताओं के प्रिय का धर्मानुशासन मानते हैं। जहां देवताओं के प्रिय के दूत नहीं जाते वहाँ भी लोग धर्मदेशों और धर्मविधान को सुनकर धर्माचरण करते हैं, और करते रहेंगे।

इस प्रकार प्राप्त विजय सर्वत्र प्रेम से सुरभित होती है। वह प्रेम धर्म विजय से प्राप्त होता है।देवताओं का प्रिय पारलौकिक कल्याण को ही बङा समझता है। यह धर्मलेख इलिए लिखवाया गया ताकि मेरे पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र नये देश विजय करने की इच्छा त्याग दें और विजय सिर्फ तीर से प्राप्त हो सकती है, उसमें भी वे दोनों के सहिष्णुता तथा मृत्युदंड का ध्यान रखे और धम्म विजय को ही वास्तविक विजय समझें।

यह इहलोक तथा परलोक दोनों के लिये अच्छा है। धर्म-प्रेम सभी राज्यों का प्रेम बने। कौटिल्य के अर्थशास्र, महाभारत, कालिदास के रघुवंश में धर्मविजय का जो विवरण प्राप्त होता है, उससे यह स्पष्ट है कि यह एक निश्चित साम्राज्यवादी नीति थी। ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रंथों की धम्मविजय का तात्पर्य राजनैतिक है। इसमें धर्मविजयी शासक का राजनैतिक प्रभुत्व उसके प्रतिद्वन्द्वी स्वीकार करते हैं। वह अधीन राजाओं से भेंट उपहारादि लेकर ही संतुष्ट हो जाता है तथा उनके राज्य अथवा कोष के ऊपर अधिकार नहीं करता। धम्म क्या है?

समुद्रगुप्त की दक्षिणापथ विजय तथा हर्ष की सिंध विजय को इसी अर्थ में धर्मविजय कहा गया है। कालिदास ने रघुवंश में रघु की धर्मविजय के प्रसंग में बताया है, कि उसने महेन्द्रनाथ की लक्ष्मी का अधिग्रहण किया, उसके राज्य का नहीं। बौद्ध साहित्य में धम्मविजय का स्वरूप राजनैतिक ही बताया गया है।बौद्ध साहित्य के अनुसार धर्म विजयी युद्ध अथवा दबाव के स्थान पर अपनी उत्कृष्ट नैतिक शक्ति द्वारा सार्वभौम साम्राज्य का स्वामी बन जाता है।

विजित शासक उसकी प्रभुसत्ता को स्वीकार करते हुए सामंत बन जाते हैं। उसकी विजय तथा साम्राज्य वास्तविक होते हैं यद्यपि उसका स्वरूप मृदु तथा लोकोपकारी होता है। किन्तु अशोक की धम्मविजय इस अर्थ में कदापि नहीं की गयी।

13 वें अभिलेख में अशोक यह दावा करता है, कि उसने अपने तथा अपने पङोसी राज्यों में धम्मविजय प्राप्त किया है।अशोक ने स्वदेशी तथा विदेशी राज्यों में धम्म का प्रचार किया तथा धम्म प्रचार को उन राज्यों में सफलता प्राप्त हुई। इस प्रकार धम्मविजय शुद्ध रूप से धम्म प्रचार का अभियान थी। यह भी उल्लेखनीय है, कि अशोक स्वयं अपने राज्य में भी धर्म-विजय करने का दावा करता है। यदि इसका स्वरूप राजनैतिक होता तो उसके द्वारा इस प्रकार के दावे का कोई अर्थ नहीं होता क्योंकि उसके साम्राज्य पर उसका पूर्ण अधिकार था।

अतः स्पष्ट है कि अशोक की धम्म विजय में युद्ध अथवा हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं था। वस्तुतः अशोक भारतीय इतिहास में पहला शासक था, जिसने राजनीतिक जीवन में हिंसा के त्याग का सिद्धांत सामने रखा। यह सही है कि अशोक के पूर्व कई ऐसे विचारक हुए, जिन्होंने हिंसा के त्याग तथा अहिंसा के पालन करने का सिद्धांत प्रचारित किया। किन्तु यह केवल व्यक्तिगत जीवन के संबंध में था।

यहां तक कि स्वयं बुद्ध भी राजनीतिक हिंसा के विरुद्ध नहीं थे, और उन्होंने मगध नरेश अजातशत्रु को वज्जि संघ को जीतने का उपाय बताया था। बौद्ध शासक अजातशत्रु और जैन धर्म के पोषक नंद राजाओं तथा कलिंग राज खारवेल ने यह स्वीकार नहीं किया कि राजनीतिक हिंसा धर्म विरुद्ध है।अतः यह अवधारणा कि राजनीतिक हिंसा धर्म विरुद्ध है, अशोक के मस्तिष्क की ही उपज प्रतीत होती है। मगध महाजनपद का उल्लेख करो।

अशोक के व्यक्तिगत आचारशास्त्र को शाकीय आचारशास्र में परिणत कर दिया। इस प्रकार अशोक की धम्म विजय की अवधारणा ब्राह्मण अथवा बौद्ध लेखकों के धर्म विजय संबंधी इस अवधारणा के प्रतिकूल थी, कि इसमें बुद्ध तथा हिंसा द्वारा प्राप्त साम्राज्य सम्मिलित हैं।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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