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लार्ड कार्नवालिस के न्याय संबंधी सुधार

लार्ड कार्नवालिस

लार्ड कार्नवालिस के न्याय संबंधी सुधार (laard kaarnavaalis ke nyaay sambandhee sudhaar) – लार्ड कार्नवालिस के न्याय संबंधी सुधार निम्नलिखित थे –

लार्ड कार्नवालिस के न्याय संबंधी सुधार

लार्ड कार्नवालिस के द्वारा किये गये न्याय संबंधी सुधार के लिये कई तरह की अदालत बनाई गयी थो जो इस प्रकार हैं-

  1. दीवानी अदालत
  2. फौजदारी अदालत
  3. कलेक्टरों से न्याय संबंधी अधिकार ले लेना
  4. सरकार पर मुकदमा चलाने की सुविधा
  5. दीवानी तथा फौजदारी कानूनों का आधार
  6. कार्नवालिस कोड

दीवानी अदालतों का संगठन – इसके अन्तर्गत चार अदालतें थीं –

छोटी दीवानी अदालत – यह न्याय की सबसे छोटी इकाई थी। इसका अध्यक्ष अमीन अथवा मुन्सिफ होता था। इन अदालतों के दीवानी क्षेत्र के छोटे-छोटे मामलों का निर्णय होता था तथा साधारण अदालतों को 50 रुपये तक के मुकद्दमे सुनने का अधिकार था।
जिला दीवानी अदालत छोटी दीवानी अदालतों के ऊपर जिला दीवानी अदालतें स्थापित की गयी। इन अदालतों का प्रधान एक अंग्रेज न्यायाधीश होता था तथा उसकी सहायता के लिए हिन्दू व मुसलमान परामर्शदाता भी नियुक्त किये जाते थे। इन अदालतों में छोटी दीवानी अदालतों के विरुद्ध अपील सुनी जाती थी।
प्रांतीय दीवानी अदालतें – जिला न्यायालयों के ऊपर चार प्रांतीय न्यायालय होते थे जहाँ जिला दीवानी अदालतों के विरुद्ध अपील की जा सकती थी। ये अदालतें कलकत्ता, ढाका, मुर्शिदाबाद तथा पटना में स्थापित थी। प्रत्येक प्रान्तीय अदालत में तीन अंग्रेज न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती थी। न्यायाधीशों को सहायता देने के लिए एक काजी, एक मुफ्ती तथा एक पंडित की नियुक्ति की जाती थी। इससे अधिक राशि के मुकदमों की अपील सदर दीवानी अदालत में की जा सकती थी।
सदर दीवानी अदालत – प्रांतीय दीवानी अदालतों के ऊपर एक सदर दीवानी अदालत होती थी जिसका मुख्यालय कलकत्ता में था। इस अदालत का अध्यक्ष गवर्नर जनरल होता था तथा उसकी कौंसिल के सभी सदस्य इस अदालत के सदस्य होते थे। प्रायः सब प्रकार के दीवानी मुकदमों के लिए यह अंतिम न्यायालय था। 5,000 रुपये से अधिक के मुकदमों की अपील लंदन में सम्राट की कौंसिल में की जा सकती थी।

फौजदारी अदालतों का संगठन

छोटी फौजदारी अदालतें – यह फौजदारी मामलों की सबसे छोटी इकाई होती थी। इन अदालतों का अध्यक्ष दरोगा या थानेदार होता था। ये अदालतें छोटे-छोटे फौजदारी मुकदमों की सुनवाई करती थी।
जिला फौजदारी अदालतें – इन अदालतों में एक अंग्रेज न्यायाधीश नियुक्त किया जाता था तथा उसकी सहायता के लिए एक स्थानीय व्यक्ति की नियुक्ति की जाती थी। इन अदालतों में छोटी फौजदारी अदालतों के निर्णय के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती थी।
प्रांतीय फौजदारी अदालतें – जिला फौजदारी अदालतों के ऊपर चार प्रान्तीय अदालतों की स्थापना की गयी। ये अदालतें कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, पटना और ढाका में स्थापित थी। प्रत्येक प्रान्तीय फौजदारी अदालत के दो-दो अंग्रेज न्यायाधीश नियुक्त किये जाते थे तथा उन्हें कानूनी सलाह देने के लिए प्रत्येक न्यायालय में तीन-तीन सलाहकारों की नियुक्ति की जाती थी। इन अदालतों के न्यायाधीश अपराधों की छानबीन के लिए अपने-अपने प्रान्त का दौरा करते थे तथा उसके बाद वे अपना निर्णय देते थे। इन अदालतों द्वारा दिए गए मृत्यु दंड की स्वीकृति सदर निजामत अदालत में लेनी पङती थी।
सदर निजामत (फौजदारी) अदालत – फौजदारी मामलों के लिए यह अंतिम न्यायालय था, जिसका मुख्यालय कलकत्ता में था। इस अदालत का अध्यक्ष स्वयं गवर्नर जनरल होता था। गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के सदस्य फौजदारी मामलों की सुनवाई करते थे । इस अदालत का निर्णय अंतिम होता था।

कलेक्टरों से न्याय संबंधी अधिकार ले लेना

लार्ड कार्नवालिस ने कलेक्टरों को केवल राजस्व की वसूली का कार्य सौंपा तथा न्याय कार्य के लिए प्रत्येक जिले में जिला जज नियुक्त किए गए।

सरकार पर मुकदमा चलाने की सुविधा

कलेक्टरों की सरकारी कार्यवाही के विरुद्ध दीवानी अदालतों में मुकद्दमे चलाये जा सकते थे। इसी प्रकार जमींदारों के अधिकारों में हस्तक्षेप करने पर तथा अधिकारों का दुरुपयोग करने पर सरकारी पदाधिकारियों के विरुद्ध मुकदमे चलाये जा सकते थे।

दीवानी तथा फौजदारी कानूनों का आधार

दीवानी मुकद्दमों में हिन्दुओं के लिए हिन्दू कानून तथा मुसलमानों के लिए मुस्लिम कानून प्रयोग में लाया जाता था। फौजदारी मुकदमों के निर्णय मुस्लिम कानून के अनुसार किये जाते थे।

कार्नवालिस कोड

लार्ड कार्नवालिस ने 1793 ई. में न्याय व्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से नियमों की एक संहिता तैयार करवाई जिसे कार्नवालिस कोड कहा जाता है। इस कोड की दो प्रमुख विशेषताएँ थी – 1.) फौजदारी न्यायालयों में भारतीय न्यायाधीशों के स्थान पर यूरोपीय न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं 2.) न्याय व्यवस्था को प्रशासन से अलग करना। कार्नवालिस के पहले जिला कलेक्टरों को न्याय का कार्य भी करना पङता था। परंतु कार्नवालिस कोड के अनुसार कलेक्टर को केवल राजस्व वसूली का कार्य सौंपा गया तथा न्याय कार्य के लिए प्रत्येक जिले में जिला जज नियुक्त किए गए।
कार्नवालिस कोड में कठोर और अमानुषिक दंड समाप्त कर दिए गए। अंग-भंग, सूली पर चढा कर मारना आदि दंडों को समाप्त कर दिया गया तथा इसके स्थान पर अपराधियों को कठोर कारावास की सजा देने की व्यवस्था की गयी। वकीलों को लाइसेन्स देने की व्यवस्था की गयी। सरकार द्वारा वकीलों के लिए फीस निर्धारित कर दी गयी। इस नियम का उल्लंघन करने वालों को अयोग्य घोषित करने की व्यवस्था की गई। कार्नवालिस ने न्यायालय के अधिकारियों के वेतन बढा दिए। कंपनी के कर्मचारियों तथा अधिकारियों पर अनुचित अथवा गैर-कानूनी कार्य करने पर मुकदमा चलाये जाने की भी व्यवस्था की गयी।

कार्नवालिस के न्यायिक कार्यों का मूल्यांकन

न्यायिक परिवर्तनों के मूल्यांकन को निम्न दो प्रमुख शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

न्यायिक परिवर्तनों का महत्त्व –

  • 1786-93 ई. के मध्य किए गए न्यायिक परिवर्तन देखने में सैद्धांतिक रूप में अच्छे मालूम पङते हैं। इनके पीछे मुख्य प्रेरणा यह थी कि भारत में प्रचलित मुस्लिम दंड विधान के स्थान पर अंग्रेजी दंड विधान स्थापित कर दिया जाए तथा भारतीय न्यायाधीशों एवं अन्य अधिकारियों के स्थान पर अंग्रेज अधिकारियों को नियुक्त कर दिया जाए।
  • इन परिवर्तनों को लोकप्रिय बनाने के लिए मुकदमा चलाने के पूर्व धन जमा कराने की परंपरा को समाप्त कर दिया गया।
  • न्याय की सुविधा अधिक उपलब्ध कराने के लिए अपील का अधिकार भी अधिक दिया गया।
  • परिभ्रमण अदालतें स्थापित करके लोगों को स्थानीय अदालतों के विरुद्ध अपील करने की सुविधा प्रदान की गयी।

न्यायिक परिवर्तनों के प्रमुख दोष

  • सभी सुधार न्याय प्रणाली को सुलभ बनाने में असफल रहे। पहले की भाँति अब भी मुकदमें वर्षों तक तय नहीं होते थे। बर्दवान जिले में 30,000 मुकदमे बिना निर्णय के एकत्रित हो गये और एक मुकदमे में एक व्यक्ति की सारी आयु व्यतीत हो सकती थी। कार्नवालिस अंग्रेजी विधि प्रणाली को भारत में फौजदारी के क्षेत्र में पूरी तरह स्थापित करना चाहता था।
  • कार्नवालिस ने जिन दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया था, उन दोषों को इन परिवर्तनों ने और अधिक बढावा दिया और कार्नवालिस के जाने के बाद तो इस बात का प्रयत्न किया गया कि न्याय की सुविधा को कम कर दिया जाए। इसलिए 1795 ई. में पुनः मुकदमे के पूर्व धन जमा कराने की परंपरा बन गयी। मुकद्दमों को स्टाम्प पेपर के प्रयोग से और अधिक महंगा बनाया गया। अपील की सुविधाएँ 1797 ई. में कम कर दी गयी।
  • भूमि को उत्तराधिकारियों में बंटवारे की वस्तु बनाकर मुकदमेबाजी को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया गया और अंग्रेजी विधि प्रणाली के आधार पर निर्णय की अनिश्चितता से हर उस व्यक्ति को मुकदमा लङने में आकर्षण था जो उसमें आवश्यक धन से जुए का पासा फेंक सके।
  • न्याय को महँगा बनाने के कारण निर्धन लोग अपने उचित अधिकार भी सुरक्षित नहीं रख सके और धनी वर्ग मुकदमों की सहायता से बहुत से गरीब लोगों के उचित अधिकारों पर अपना नियंत्रण कर सका।
  • इन सुधारों में सबसे घातक सिद्धांत भारतीयों के प्रति अविश्वास की भावना थी। यह भावना इतनी बार अंग्रेज प्रशासकों द्वारा दोहराई गयी कि कुछ पीढियों बाद भारतीयों में स्वयं एक हीनता की भावना पैदा हो गयी।
  • इन सुधारों से एक अन्य समस्या यह हुई कि मुकदमों का निर्णय अंग्रेजी विधि प्रणाली के अनुसार होता था जिससे साधारण जनता पूर्णतया अपरिचित थी। ऐसी स्थिति में बहुत से परिवार न्यायालय के निर्णयों से बर्बाद हो गए।

निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि 1787-93 ई. के मध्य किए गए न्यायिक परिवर्तन इस कसौटी पर भी दोषपूर्ण दिखाई पङते हैं कि न्याय प्रशासन उस समय तक उपयोगी नहीं हो सकता था जब तक वह उन लोगों के रीति-रिवाज एवं परंपरा के अनुकूल न हों, जिनकी भलाई के लिए प्रशासन स्थापित किया था।

लार्ड कार्नवालिस द्वारा किये गये प्रशासनिक परिवर्तन

  • कार्नवालिस के भारत आने के समय कंपनी के कर्मचारियों का वेतन बहुत कम था। इस कमी को पूरा करने के लिए वे घूस लेते थे तथा व्यक्तिगत व्यापार करते थे। अतः उसने कंपनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने घूसखोरी को रोकने के लिए भी प्रभावशाली नियम बनाए। उसने कंपनी के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी। कलेक्टरों का वेतन 200 रुपये से बढाकर 1500 रुपये कर दिया गया।
  • कार्नवालिस ने सिफारिशों के आधार पर नियुक्ति की प्रथा को बंद कर दिया तथा योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ की जाने लगी। इससे कार्यकुशलता में वृद्धि हुई तथा भ्रष्टाचार भी बंद हो गया। उसने अयोग्य अधिकारियों का स्थानान्तरण किया तथा भ्रष्ट अधिकारियों को पद मुक्त कर दिया।
  • कार्नवालिस को भारतीयों की अयोग्यता तथा चरित्र पर विश्वास नहीं था। अतः उसने यह नियम बना दिया कि 500 पौंड वार्षिक से अधिक वेतन पाने वाले पदों पर केवल यूरोपियन लोगों को ही नियुक्त किया जायेगा। इससे भारतीयों के लिए उच्च पदों के द्वार बंद हो गये। इससे भारतीयों में तीव्र असंतोष उत्पन्न हुआ।
  • कार्नवालिस ने जमींदारों से उनके सभी पुलिस संबंधी अधिकार छीन लिए। जिले को कई छोटे-छोटे इलाकों में बांट दिया गया तथा प्रति 20 मील के अंतर पर एक पुलिस थाना स्थापित किया गया। प्रत्येक थाने में एक दरोगा तथा कई सिपाही नियुक्त किये गये। दरोगाओं के ऊपर पुलिस अधीक्षक होता था। अंग्रेज मजिस्ट्रेट को पुलिस के कार्य का निरीक्षण करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। कलकत्ता में पुलिस प्रशासन की देखरेख के लिए एक नये संचालक की नियुक्ति की गयी।
  • कार्नवालिस ने बंगाल में 35 जिलों को घटाकर 23 जिले कर दिये। प्रत्येक जिले में एक ब्रिटिश कलेक्टर नियुक्त किया जाता था उसकी सहायता के लिए दो अंग्रेज सहायक नियुक्त किये जाते थे। जिले में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखना पुलिस व जेल की निगरानी रखना, राजस्व जमा कराना आदि का उत्तरदायित्व कलेक्टर का था।
  • कार्नवालिस ने कंपनी की सेना में भी सुधार किया। उसने योग्य सैनिकों की भर्ती पर विशेष बल दिया। उसका भारतीयों पर विश्वास नहीं था। अतः उसने सेना में अंग्रेज सैनिकों की संख्या में वृद्धि की।
  • लार्ड कार्नवालिस ने जेलों की प्रथा सुधारने पर भी बल दिया। उसने नये कारावास बनवाये तथा बंदियों की स्वास्थ्य और भोजन संबंधी समस्याओं के निवारण पर बल दिया।

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