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पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय के कारण

पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय के कारण

पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय के कारण – 14 जनवरी, 1761 ई. को पानीपत में मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच युद्ध हुआ जिसमें मराठों की बुरी तरह से पराजय हुई।

पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय के कारण

इस युद्ध में मराठों की पराजय के निम्नलिखि कारण थे-

  • वरिष्ठ मराठा सरदारों तथा सेनापतियों का आपसी कलह

मराठा सरदारों तथा सेनापतियों में आपस में भी अहम की भावना थी जिसके कारण वे एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयत्न किया करते थे। उन्होंने इस युद्ध में भी एक दल या एक पक्ष की भावना से सुसंगठित होकर लङाई न लङी। फलस्वरूप उनको हार का मुँह देखना पङा।

  • अब्दाली एक अधिक योग्य सेनापति

मराठा सेनापति की तुलना में अब्दाली एक अधिक योग्य सेनापति था। मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ निश्चित रूप से एक वीर एवं साहसी योद्धा था। परंतु अहमदशाह अब्दाली उससे भी अधिक कुशल एवं योग्य था। पानीपत के युद्ध में उसकी व्यूह-रचना भाऊ की तुलना में अधिक श्रेष्ठ थी। अब्दाली की सेना पूर्णतया अनुशासित थी।

  • सदाशिव राव में चारित्रिक दोष

सदाशिवरावभाऊ में कुछ चारित्रिक दोष भी थे। वह जल्दबाजी में निर्णय लेता था और शीघ्र ही धैर्य खो देता था। वह अपने प्रमुख सरदारों के परामर्श की उपेक्षा करता था तथा हठी स्वभाव का था। ऐसे स्वभाव वाला सेनापति अपनी सेना का ठीक ढंग से संचालन नहीं कर सकता था।

मराठों की पराजय के लिए पेशवा बालाजी बाजीराव भी उत्तरदायी था। उसने अहमदशाह अब्दाली की शक्ति का सही अनुमान नहीं लगाया और भाऊ को अधूरी युद्ध सामग्री तथा धन देकर भेजा, वह अपने दो प्रमुख सरदारों – होल्कर तथा सिन्धिया पर नियंत्रण नहीं रख सका। इसके अलावा पेशवा को स्वयं उत्तर भारत के अभियान पर जाना चाहिए था जिससे मराठों का मनोबल ऊंचा रहता।

  • सदाशिवराव भाऊ की भूलें

मराठा सेनापति भाऊ में सैनिक सूझ-बूझ का अभाव था। उसने अपने सलाहकारों की सलाह की उपेक्षा करते हुए गुरिल्ला युद्ध-पद्धति का परित्याग कर दिया। उसने रसद का ठीक प्रबंध नहीं किया और व्यर्थ में ही तीन महीने तक अब्दाली की सेना के सामने पङा रहा। विश्वासराव की मृत्यु के बाद वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा और युद्ध-संचालन के उत्तरदायित्व को भुला दिया।

  • मल्हार राव होल्कर का असहयोग

प्रमुख मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर ने पानीपत के युद्ध में भाऊ को पूर्ण सहयोग नहीं दिया। जब दत्ताजी सिन्धिया मराठों के प्रबल शत्रु नजीबखां का दमन करने में जुटा हुआ था, होल्कर ने उसे कोई सहयोग नहीं दिया। पानीपत के युद्ध में ही उसने कोई सक्रिय भाग नहीं लिया और मराठों की पराजय के पहले ही नवाब खाँ की सहायता से जान बचाकर भाग निकला।

  • अब्दाली का तोपखाना

मराठों की अपेक्षा अहमदशाह अब्दाली के शस्त्र और तोपखाना उच्च-कोटि के थे। मराठों का तोपखाना अब्दाली की बंदूकों के सामने प्रभावहीन हो गया। मराठों ने अपने भाले, तलवारों तथा पैदल सैनिकों पर अधिक भरोसा किया, जो अब्दाली के तेज घुङसवारों के मुकाबले टिक न सके। अब्दाली के सैनिकों की बंदूकों के सामने मराठों के भाले और तलवार प्रभावहीन सिद्ध हुए। अब्दाली के सैनिक आग्नेय अस्त्रों के संचालन में मराठों से कहीं अधिक निपुण थे।

  • मराठों द्वारा छापामार युद्ध प्रणाली का परित्याग

कुछ इतिहासकारों का मत है कि मराठों ने अपनी परंपरागत छापामार युद्ध प्रणाली का परित्याग कर अपनी पराजय को आमंत्रित किया। मराठों के शिविर में उनके परिवार के सदस्यों और सेवकों की भी भरमार थी, जिसके कारण भी उनकी रसद के अभाव की समस्या अधिक जटिल हो गयी।

  • मराठा सेना में अनुशासन का अभाव

मराठों की सेना में अनुशासन का अभाव था, जबकि अब्दाली की सेना बहुत अनुशासित थी। मराठा सरदार बहुत अभिमानी थे और अनुशासन को हेय दृष्टि से देखते थे। मराठा शिविर में भी घोर अव्यवस्था थी और स्थानीय जनता तक का उन्हें सहयोग प्राप्त न था।

  • अवध के नवाब तथा रुहेलों द्वारा अब्दाली की सहायता करना

अवध के नवाब तथा रुहेलों ने अब्दाली की हरसंभव सहायता की। इससे मराठों की स्थिति कमजोर हो गयी। रुहेलों के नेता नजीब खाँ ने अब्दाली को केवल खाद्य-सामग्री ही नहीं पहुँचाई, बल्कि उसे सैनिक सहायता भी दी।

  • मराठों का दोषपूर्ण सैन्य संगठन

अब्दाली की सेना में 60 हजार सैनिक थे, जबकि मराठों की सेना में 45 हजार सैनिक थे। अब्दाली की सेना सुशिक्षित तथा अनुशासित थी और युद्ध-कौशल में भी अधिक निपुण थी। मराठों के पास शस्त्र भी अफगान सैनिकों की अपेक्षा अच्छे नहीं थे। मराठों ने सुरक्षित सेना रखने की कोई व्यवस्था नहीं की जबकि अब्दाली ने 6 हजार सैनिकों के एक दल को सुरक्षित सेना के रूप में रख छोङा था। पानीपत के युद्ध मैदान में मराठों का तोपखाना भी प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुआ।

  • मराठों को जाटों तथा राजपूतों का सहयोग प्राप्त न होना

मराठों ने राजपूतों तथा जाटों को अपने दुर्व्यवहार से रुष्ट कर दिया था। अतः वे इस युद्ध में तटस्थ रहे। भरतपुर के राजा सूरजमल जाट ने भी मराठों का साथ नहीं दिया, क्योंकि भाऊ ने उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया था। इस प्रकार मराठों को अकेले ही अब्दाली और उसके भारतीय मुसलमान सहयोगियों के विरुद्ध लङना पङा।

  • अब्दाली के सैनिकों में जोश

अब्दाली के सैनिकों में जिस प्रकार का जोश था, उसका मराठों में नितांत अभाव था। अब्दाली के सैनिक अपनी मातृभूमि से बहुत दूर लङ रहे थे, अतः उनके सामने जीवन-मरण का प्रश्न था, जिससे वे पूरे उत्साह के साथ लङे। इसके अलावा, अब्दाली ने इस युद्ध को जिहाद का रूप देकर भी अपने सैनिकों की धार्मिक भावनाओं को प्रभावित कर उनमें जोश भर दिया था।

  • कूटनीति का अभाव

मराठों में कूटनीतिक योग्यता का अभाव था। उन्होंने अफगानों के विरुद्ध सिक्खों, जाटों एवं राजपूतों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया। इसके अलावा मराठों ने 1752 में मुगलों से संधि करके अदूरदर्शिता का परिचय दिया। इस संधि के द्वारा उन्होंने पठानों, जाटों, राजपूतों आदि को अपना प्रबल शत्रु बना लिया।

  • मराठों को खाद्यान्न संकट

मराठों ने जब पानीपत के कस्बे में अपना पङाव डाल दिया तो अब्दाली के सैनिकों तथा रुहेलों ने उनके रसद के मार्ग काट दिए और दिल्ली तथा दक्षिण से उनका संबंध तोङ दिया। इसके परिणामस्वरूप उनके शिविर में खाद्यान्न की बहुत कमी हो गयी। उनका मनोबल टूटने लगा और जब रसद पूरी तरह समाप्त हो गयी तो उन्हें अब्दाली पर असमय ही विवश होकर आक्रमण करना था।

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