समुद्रगुप्त द्वारा किये गये युद्ध तथा उसकी विजय
राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ कर लेने के बाद समुद्रगुप्त ने अपना अभियान प्रारंभ किया। वह एक महान विजेता था, जिसकी दिग्विजय का उद्देश्य प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में संपूर्ण पृथ्वी को जीतना (धरणिबंध) था। प्रयाग प्रशस्ति उसकी विजयों का पूरा-2विवरण हमारे समक्ष उपस्थित करती हैं, जिसे हम निम्नलिखित शीर्षकों के द्वारा कर सकते हैं-
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आर्यावर्त्त का प्रथम युद्ध-
अपनी दिग्विजय की प्रक्रिया में समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तर भारत में एक छोटा-सा युद्ध किया, जिसमें उसने तीन शक्तियों को पराजित किया। इसका उल्लेख प्रशस्ति की तेरहवी-चौदहवीं पंक्तियों में मिलता है। इन शक्तियों के नाम इस प्रकार दिये गये हैं-
अच्युत-
यह संभवतः नागवंशी राजा था, जो अहिच्छत्र में शासन करता था। इस स्थान की पहचान बरेली (उ.प्र.) में स्थित रामनगर नामक स्थान से की जाती है, जहाँ से अच्यु नामांकित कुछ सिक्के प्राप्त हुये हैं।
नागसेन–
यह एक नागवंशी राजा था, जो पद्मावती (ग्वालियर जिले में स्थित पद्मपवैया) में शासन करता था।
कोतकुलज –
यह बताया गया है,कि जिस समय समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र में खुशियाँ मना रहा था, उसकी सेना ने उसे बंदी बना लिया। दिल्ली तथा पूर्वी पंजाब से कोत नामधारी सिक्के मिलते हैं।
यह स्पष्ट नहीं है,कि समुद्रगुप्त ने इन तीनों राजाओं को एक ही युद्ध में परास्त किया था अथवा अलग-2 युद्धों में। के.पी.जायसवाल का विचार है, कि इन तीनों राजाओं ने एक सम्मिलित संघ बना लिया था और समुद्रगुप्त ने इस संघ को कौशांबी में पराजित किया था। किन्तु इस प्रकार की मान्यता के लिये कोई प्रमाण नहीं है। इस युद्ध को आर्यावर्त्त का प्रथम युद्ध कहा जाता है। मनुस्मृति में पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र तक और विन्ध्याचल तथा हिमालय पर्वतों के बीच स्थित भाग को आर्यावर्त्त की संज्ञा प्रदान की गई है।
दक्षिणापथ का युद्ध-
दक्षिणापथ से तात्पर्य उत्तर में विन्ध्य पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है। सुदूर दक्षिण के तमिल राज्य इसकी परिधि से बाहर थे। महाभारत में विदर्भ तथा कोशल के दक्षिण में स्थित प्रदेश को दक्षिणापथ की संज्ञा प्रदान की गयी है। गंगा घाटी के मैदानों तथा दोआब के प्रदेश की विजय के बाद समुद्रगुप्त दक्षिणी भारत की विजय के लिये निकल पङा। इन राज्यों को पहले तो समुद्रगुप्त ने जीता, किन्तु फिर कृपा करके उन्हें स्वतंत्र कर दिया।
उसकी इस नीति को हम धर्म-विजयी राजा की नीति कह सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, कि समुद्रगुप्त उनसे भेंट-उपहारादि प्राप्त करके ही संतुष्ट हो गया।
दक्षिणापथ के राज्य निम्नलिखित थे-
- कोसल का राजा महेन्द्र
- महाकांतार का राजा व्याघ्रराज
- कौराल का राजा मंटराज
- पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि
- कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त
- एरण्डडपल्ल का राजा दमन
- काज्ची का राजा विष्णुगोप
- अवमुक्त का राजा नीलराज
- वेंगी का राजा हस्तिवर्मा
- पालक्क का राजा उग्रसेन
- देवराष्ट्र का राजा कुबेर
- कुस्थलपुर का राजा धनंजय।
अतः हम कह सकते हैं, कि समुद्रगुप्त को दक्षिणी भारत के अभियान में बहुत अधिक धन उपहार अथवा लूट में प्राप्त हुआ होगा।
आर्यावर्त्त का द्वितीय युद्ध-
दक्षिणापथ के अभियान से निवृत्त होने के बाद समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में पुनः एक युद्ध किया, जिसे आर्यावर्त्त का द्वितीय युद्ध कहा गया। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम युद्ध में उसने उत्तर भारत के राजाओं को केवल परास्त ही किया था, उनका उन्मूलन नहीं। राजधानी में उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उत्तर के शासकों ने पुनः स्वतंत्र होने की चेष्टा की। अतः दक्षिण की विजय से वापस लौटने के बाद समुद्रगुप्त ने उन्हें पूर्णतया उखाङ फेंका। इस नीति को प्रशस्ति में प्रसभोद्धारण कहा गया है। यह दक्षिण में अपनाई गयी ग्रहणमोक्षानुग्रह की नीति के प्रतिकूल थी। समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
प्रयाग प्रशस्ति की 21 वी. पंक्ति में आर्यावर्त्त के नौ राजाओं का उल्लेख हुआ है, ये नौ राज्य इस प्रकार हैं –
- रुद्रदेव
- मत्तिल
- नागदत्त
- चंद्रवर्मा
- गणपतिनाग
- नागसेन
- अच्युत
- नंदि
- बलवर्मा।
आर्यावर्त्त के द्वितीय युद्ध के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के एक भाग पर अपना अधिकार सुदृढ कर लिया।
आटविक राज्यों की विजय-
प्रयाग प्रशस्ति की 21वी. पंक्ति में ही आटविक राज्यों की भी चर्चा हुई है। इनके विषय में यह बताया गया है,कि समुद्रगुप्त ने सभी आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया। फ्लीट के मतानुसार उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से लेकर मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले तक के वन-प्रदेश में ये सभी राज्य फैले हुये थे। उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच के आवागमन को सुरक्षित रखने के लिये उन्हें नियंत्रण में रखना आवश्यक था। लगता है,कि जब समुद्रगुप्त दक्षिणी अभियान पर जा रहा था, इन राज्यों ने उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया । अतः उसने उन्हें जीतकर पूर्णतया अपने नियंत्रण में कर लिया।
प्रत्यंत (सीमावर्ती) राज्यों की विजय-
प्रशस्ति की 22 वी. पंक्ति में प्रत्यंत राज्यों की एक लंबी सूची मिलती है, जो समुद्रगुप्त की पूर्वी, उत्तर-पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाओं पर स्थित थे। इनके विषय में यह कहा गया है,कि समुद्रगुप्त को सभी प्रकार के करों को देते थे, उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे तथा उसे प्रणाम करने के लिये उपस्थित होते थे। इन बातों से यह प्रतीत होता है,कि समुद्रगुप्त के पराक्रम से भयभीत होकर इन राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।
उत्तरी तथा उत्तरी-पूर्वी सीमा पर स्थित राज्यों की संख्या 5 है और वे सभी राजतंत्र हैं –
- समतट
- डवाक,
- कामरूप
- कर्त्तृपुर
- नेपाल
इनमें समतट से तात्पर्य पूर्वी बंगाल के समुद्रतटवर्ती प्रदेश से है। डवाक की पहचान, असम ने नौगाँव जिले में स्थित डबोक नामक स्थान से की जाती है। कामरूप आधुनिक असम का केन्द्रीय भाग था। कर्त्तृपुर की पहचान जालंधर स्थित कर्त्तारपुर से की जाती है। एक मत के अनुसार इसके अंतर्गत कुमायूँ, गढवाल तथा रुहेलखंड का प्राचीन कतुरियाराज प्रदेश भी आता था। नेपाल से तात्पर्य आधुनिक नेपाल राज्य से है। प्राचीन नेपाल गंडक तथा कोसी नदियों के बीच स्थित था।
पूर्वी राज्यों, विशेष रूप से बंगाल पर अधिकार हो जाने से, समुद्रगुप्त को पूर्वी बंगाल के समृद्ध बंदरगाहों का नियंत्रण प्राप्त हो गया था। यहाँ का सुप्रसिद्ध बंदरगाह ताम्रलिप्ति था जहाँ से मालवाहक जहाज मलय प्रायद्वीप, लंका,चीन तथा पूर्वी द्वीपों को नियमित रूप से जाया करते थे। स्थल मार्गों द्वारा भी यह स्थल बंगाल तथा भारत के अन्य नगरों से जुङा हुआ था। अतः कहा जा सकता है, कि समुद्रगुप्त के इस भाग पर अधिकार ने गुप्त साम्राज्य की आर्थिक समृद्धि में महत्त्वपूर्ण दिया था।
प्रत्यंत राज्यों की दूसरी कोटि में नौ गणराज्यों हैं, जो पंजाब, मालवा, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के विभिन्न भागों में फैले हुये थे। ये समुद्रगुप्त के साम्राज्य की पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित थे। इसके नाम इस प्रकार मिलते हैं-
- मालव
- अर्जुनायन
- यौधेय
- मद्रक
- आभीर
- प्रार्जुन
- सनकानीक
- काक
- खरपरिक
इनमें मालव लोग गुप्तों के समय में मंदसोर (प्राचीन दशपुर) में राज्य करते थे। अर्जुनायनों का राज्य आगरा-जयपुर क्षेत्र में था। यौधेय गणराज्य सतलज नदी के दोनों किनारों की भूमि, जिसे जोहियाबार कहा जाता है, में स्थित था। मद्रक लोग रावी तथा चिनाब नदियों के बीच की भूमि में शासन करते थे। उनकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) में थी।
प्रार्जुन गणराज्य मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में स्थित था। सनकानीक भिलसा के आस-पास शासन करते थे। यहां से 20 मील उत्तर में स्थित काकपुर नामक स्थान में काक गणराज्य था तथा खरपरिक लोग दमोह(म.प्र.) के शासक थे।
Reference : https://www.indiaolddays.com/