नादिरशाह का आक्रमण (Nadir Shah’s attack) –
नादिरशाह के आक्रमण के समय मुगल शासक मुहम्मदशाह रंगीला था। नादिरशाह फ़ारस का शासक था। उसे “ईरान का नेपोलियन” कहा जाता है। भारत पर नादिरशाह का आक्रमण 16 फरवरी, 1739 को हुआ था। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी चरित्र का व्यक्ति था और भारत की अपार धन-सम्पदा के कारण ही इस ओर आकर्षित हुआ।
मुगल सेना के साथ हुए नादिरशाह के युद्ध को ‘करनाल के युद्ध’ के नाम से जाना जाता है। जिस समय पेशवा सालसेट अभियान में व्यस्त था, इराक के नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण कर दिया तथा जनवरी, 1739 ई. के आरंभ में वह लाहौर पहुँच गया। नादिरशाह के इस अचानक आक्रमण से मुगल दरबार अवाक् रह गया।
शाही दरबार से विभिन्न सूबेदारों, पेशवा व राजपूत शासकों के पास फरमान भेजकर उन्हें तुरंत आने को कहा गया। किन्तु उस समय अफवाह जोरों से फैल रही थी कि निजाम और सादतखाँ ने नादिरशाह को आमंत्रित किया है ताकि एक नया साम्राज्य स्थापित हो सके, जो मराठा आक्रमणों को रोकने में सक्षम हो। इसी आक्रमण के कारण सवाई जयसिंह और पेशवा बादशाह की सहायता के लिए नहीं गये।
मार्च, 1739 ई. को नादिरशाह दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली में अपने लगभग दो माह के प्रवास के दौरान नादिरशाह ने जिस पाशविक प्रवृत्ति का परिचय दिया, वह भारतीयों का दिल दहलाने वाली थी, 5 मई, 1739 ई. को वह दिल्ली से वापिस लौट गया। नादिरशाह के इस आक्रमण ने डगमगाते हुये जीर्ण-शीर्ण मुगल साम्राज्य के रहे-सहे संगठन को पूर्णतः छिन्न-भिन्न कर दिया। सर्वथा अयोग्य एवं निकम्मे तथा विलासी मुहम्मदशाह में साम्राज्य को संगठित करने की क्षमता नहीं थी।
अब शाही दरबार में पहले से चले आ रहे विभिन्न गुटों में भी परिवर्तन हुआ। निजाम के रवैये और आचरण से बादशाह उससे अत्यधिक नाराज था। अतः बादशाह ने एक बार पुनः जयसिंह की मध्यस्थता से मराठों का समर्थन प्राप्त करने का निश्चय किया। बादशाह ने जयसिंह को मराठों से बातचीत करने हेतु संदेश भिजवाया और जयसिंह को यह भी कहलवाया कि वह मराठों से यह भी आश्वासन प्राप्त करे कि वे भविष्य में निजाम का समर्थन प्राप्त करने का निश्चय किया।
बादशाह ने जयसिंह को मराठों से बातचीत करने हेतु संदेश भिजवाया और जयसिंह को यह भी कहलवाया कि वह मराठों से यह भी आश्वासन प्राप्त करे कि वे भविष्य में निजाम का समर्थन नहीं करेंगे। पेशवा ने भी अपने दिल्ली में स्थित प्रतिनिधि महादेव भट्ट को लिखा कि वह दिल्ली की परिवर्तित राजनीतिक स्थिति के बारे में जयसिंह से वाचर-विमर्श कर उसे इस बारे में पूरी जानकारी भेजे।
इसके बाद पेशवा ने निजाम के पुत्र नासिरजंग से नीमाङ प्रदेश मराठों को सौंपने की शर्त मनवा कर ससैन्य उत्तर की ओर प्रयाण किया। किन्तु नर्बदा पहुँचने पर उसे तेज बुखार हुआ और 28 अप्रैल, 1740 ई. को पराक्रमी एवं सुयोग्य पेशवा ने प्राण त्याग दिये।

पेशवा बाजीराव की असामयिक मृत्यु से सवाई जयसिंह को गहरा सदमा पहुँचा। पिछले कुछ वर्षों से दोनों में बङे स्नेहपूर्ण संबंध स्थापित हो गये थे।
उत्तर-भारत की राजनीति के बारे में पेशवा जयसिंह के विचारों को बङा महत्त्व देता था। बाजीराव की मृत्यु से जयसिंह को आशंका होने लगी कि संभवतः नया पेशवा दूसरी नीति अपनाये और जिससे मुगलों व मराठों के बीच समझौते का जो आधार तैयार किया गया था, वह कहीं टूट न जाय। परंतु स्वर्गीय बाजीराव पेशवा के भाई चिमनाजी ने महादेव भट्ट के माध्यम से जयसिंह को सूचित किया कि मराठे अपने वचन का पालन करेंगे और वे स्वर्गवासी पेशवा के अधूरे कार्य को अवश्य पूरा करेंगे।
