इतिहासतुर्क आक्रमणमध्यकालीन भारत

महमूद गजनवी के भारत आक्रमण का प्रमुख कारण क्या था?

महमूद गजनवी के भारत आक्रमण का प्रमुख कारण – तत्कालीन भारतीय और संस्थाओं के बारे में जानना आवश्यक है, जिनके कारण महमूद को सफलता प्राप्त हुई। हर्ष की मृत्यु के बाद भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया था और इन छोटे-छोटे राज्यों के लोग आपसी ईर्ष्या और कलह में लग गए थे। इस समय उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था शासकों की यह मान्यता थी कि जो भी कन्नौज का शासक होगा, उसे संपूर्ण उत्तरी भारत के सम्राट के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा। गुर्जर-प्रतीहारों के प्रभुत्व का नाश हो चुका था और उत्तर भारत में वास्तविक रूप में कोई सार्वभौम सम्राट नहीं था।

काबुल और पंजाब में हिंदूशाही वंश था। ह्वेनसांग तथा अलबरूनी जैसे विद्वानों ने इस बात के प्रमाण दिए हैं कि केवल यही एक वंश था जिसकी उत्पत्ति प्राचीन भारत में हुई थी। नवीं शताब्दी में हिंदूशाही के स्थान पर बहमनशाही आ गए जिनके मुख्य शासक आनंदपाल थे। अरबों के आक्रमण के पहले सिंध में चाच नामक शासक के अधीन एक स्वतंत्र राज्य था। अरबों के आक्रमण के समय चाच का भतीजा दाहिर राज्य कर रहा था। इसी के समय अरबों के साथ संघर्ष हुआ जिसमें अरबों को सफलता प्राप्त हुई और सिंध में अरब शासन स्थापित हो गया। सिंधु घाटी के दक्षिण का प्रमुख नगर मुल्तान था।यहाँ इस्माइलिया शियाओं का शासन था।

बंगाल में पाल वंश था जिसकी नींव 750 ई. में गोपाल नामक राजा ने डाली थी। इस वंश का सबसे महान शासक देवपाल था। देवपाल के शासन के अंतिम दिनों में प्रतीहार साम्राज्य की शक्ति बढने लगी। इन प्रतीहारों को गुजरात अथवा मध्य और पूर्वी राजस्थान से संबद्ध होने के कारण गुर्जर-प्रतीहार भी कहा जाता है। इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा मिहिरभोज था। प्रतीहार साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में कई राजपूत राज्यों का उदय हुआ। इनमें से मुख्य थे – अजमेर और सांभर के चौहान वंश जिसका बङा पराक्रमी शासक पृथ्वीराज चौहान था। उसी पर चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो नामक महाकाव्य लिखा है। बुंदेलखंड में चंदेलों का प्रभाव बढ गया। इनकी राजधानी खजुराहो थी। पृथ्वीराज ने चंदेलों की शक्ति को बहुत घटा दिया तथा अन्य पङोसियों को भी अपने शौर्य और साहस से हराया।

कन्नौज में गहङवाल वंश का राज्य था। यहाँ का शासक जयचंद था जिनका किंतु व्यक्तिगत तथा राजनीतिक कारणों से पृथ्वीराज और उसकी बीच निरंतर संघर्ष बना रहा जिनका वर्णन पृथ्वीराज रासो में मिलता है। मालवा में परमार वंश था। इनका सबसे प्रसिद्ध राजा राजा भोज (1010-1045ई.) था। यह राज्य मुख्यतः चेदि के कलचुरी वंश और गुजरात के सोलंकी वंश के विरुद्ध प्रायः लङाइयों में लगा रहा। परिणामतः इनकी शक्ति क्षीण होने लगी थी। इस काल में सोलंकियों का शासन प्रबल था। यद्यपि यह राज्य एक समय कन्नौज के अधीन था तथापि प्रतीहारों के दुर्बल शासन में वे स्वतंत्र हो गए थे। उनकी राजधानी अन्हिलवाङा थी।

चौहानों के राज्य के पूरब की ओर राठौर गहङवालों का राज्य था। उस समय वहाँ जयचंद शासन कर रहा था। उसकी राजधानी कन्नौज थी। गहङवालों के राज्य के पूरब की ओर अन्य शक्तिशाली राज्य सेनवंशीय शासकों का था। दिल्ली में तोमरों का राज्य था। मगध अब राज्य का केन्द्र न रहा, बल्कि राजनीतिक सत्ता पश्चिमी और पूर्वी सीमांत पर केंद्रित हो गई थी। राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विघटन के साथ-साथ सत्ताधारी की भावना समाप्त हो गई। परिणाम यह हुआ कि यहाँ संधि तथा प्रति संधि की व्यवस्था आरंभ हो गयी।

8 वीं शताब्दी के बाद, विशेषकर 9 से 12 वीं शताब्दी का काल (हर्ष की मृत्यु के समय से मुस्लिम आक्रमणों तक का काल) राजपूत काल कहा जाता है। राजपूत एक नई राजनीतिक चेतना के प्रतिनिधि थे और उन्होंने भारत पर कई शताब्दियों तक अपना अधिकार रखा। आठवीं शताब्दी में उनका इतिहास पहले पहल प्रकाश में आया। किंतु बारहवीं शताब्दी के अंत तक हमें उनकी संस्कृति और राजनीतिक संस्थाओं के बारे में व्यापक जानकारी प्राप्त होने लगती है। इस शताब्दी के बाद सरदारों ने तुर्की अधिकार को स्वीकार कर लिया। समय ने पलटा खाया और सोलहवीं शताब्दी में राजपूत दुबारा शक्तिशाली हो गए हालाँकि वे मुगलों के अधीनस्थ ही रहे।

मुसलमानों के निरंतर आक्रमणों के कारण उत्तर और पश्चिमी भारत की राजनीतिक सामाजिक स्थितियों में भारी परिवर्तन आया। राजपूत अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण भारत के रक्षक बन गए – अर्थात् इन राजपूतों ने दावा किया के वे ही सच्चे अर्थों में सूर्य, चंद्र और अग्नि के वंशज हैं। धर्माधिकारियों के वर्ग ने उन्हें क्षत्रिय मान लिया। चूँकि इस वर्ग को विशेष अधिकार मिले, इसलिए इन्हें राजपूत अर्थात् कुलीन वंश के राजकुमार की उपाधि दी गयी। जिस भूमि पर उन्होंने उत्तर भारत में अधिकार किया, उसे राजस्थान कहा गया। राजस्थान का शाब्दिक अर्थ है – राजकुमारों का स्थान। मध्ययुगीन राजस्थान में तीन मुख्य राज्य थे – मेवाङ के गहङवाल या गुहिलोत, मारवाङ के राठौर और आंबेर तथा जयपुर के कछवाहा वंश।

तुर्की आक्रमण के समय राजपूत शासक वर्ग उत्तर भारत के राजनीतिक भविष्य की बागडोर संभाले हुए थे। राजपूतों की राजनीतिक नीतियों का ताना-बाना इतना दुर्बल था कि प्रशासन में किसी प्रकार की एकरूपता न रही और कोई भी राज्य एक निश्चित नीति निर्धारित न कर सका। राजपूतों में सामंतवादी किस्म की राजनीतिक पद्धति के साथ-साथ विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति और मतभेद जोर पकङने लगे। परिणाम यह हुआ कि एक राज्य की दुर्बलता दूसरे राज्य (देश) के लिये शक्ति का साधन बनती गई। प्रायः सभी राज्य साम्राज्य लिप्सा के वशीभूत होकर निरंतर अपने पङोसियों से युद्ध करते थे। वराहमिहिर की पुस्तक वृहत संहिता में बताए गए लता, पंचाल, अर्जुनियान, यादव, चेदि, मत्स्य आदि राज्य पूर्ण रूप से समाप्त हो गए और नवीन राजपूत राज्यों का उत्थान हुआ। हर्ष की मृत्यु के बाद भारतीय इतिहास में एक प्रकार की रिक्तता उत्पन्न हुई और ऐसी स्थिति पैदा हुई जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानों के शासन की नींव पङी। बारहवीं शताब्दी में चंदेलों, गहङवालों और चौहानों के बीच उत्तर भारत में प्रभुत्व के लिये संघर्ष हुआ जिसे त्रिपक्षीय संघर्ष का नाम दिया जाता है।

सैनिक स्थिति

राजपूतों की राजनीतिक स्थिति उनकी सैनिक शक्ति पर निर्भर थी। यद्यपि राजपूती समाज की यूरोपीय सामंतवाद से काफी समानता थी तथापि यह समानता केवल ऊपरी सतह तक थी। मूल रूप से दोनों में आधारभूत भिन्नता थी। ऐसी स्थिति में इसे अर्ध-सामंतवाद कहना उचित होगा। इस समाज में मुख्य स्थान उन सरदारों का थो जो अपनी सेनाओं की सहायता से भूमि के बङे हिस्सों पर अपना अधिकार जमाकर रखते थे और प्रशासन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। सामंतवादी शासन व्यवस्था में भूस्वामियों का मुख्य अधिकार था। वे पूरी चेष्टा करते थे कि कोई भी बाहरी आदमी इस व्यवस्था में शामिल न हो सके। इस प्रकार कृषिदासता और भू-व्यवस्था सामंती व्यवस्था के मुख्य आधार थे। इस प्रकार की व्यवस्था 600-1000 ई. में भारत में विशेष रूप से विद्यमान थी। यहाँ सबसे मुख्य बात थी राजा द्वारा ब्राह्मणों को जमीन देना । प्रो. रामशरण शर्मा ने अपनी पुस्तक भारतीय सामंतवाद में इसी व्यवस्था का संकेत दिया है। मौका पाकर इन स्थितियों ने मिलकर मध्यस्थ वर्ग को दृढ किया। जिसने आर्थिक और राजनीतिक शक्ति को सँभालना शुरू किया। इसके परिणामस्वरूप सारी क्षमता (जो केंद्रीय नियंत्रण पर आधारित थी) अब धीरे-धीरे विकेंद्रित होने लगी। वंश के योद्धाओं को तथा सरदारों और रिश्तेदारों को जमीन देने की प्रथा से भी सामंतवाद को बढावा मिला। इसके अलावा छोटे और बङे सामंतों को जमीन देने की प्रथा ने भी इस वर्ग को स्वतंत्र होने के लिए बाध्य कर दिया।

परमार अभिलेखों में शासन करने वाले सामंतों के नाम (उदाहरण के लिये मंडलीक और सामंत) स्पष्ट हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य भारत, राजस्थान, मालवा और गुजरात में शासक परिवारों ने अपने प्रशासनिक अधिकारियों को गाँव दे दिए। तथ्य यह है कि भूमिदान का कार्य इसी ढंग से अधिक किया गया । ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में इस प्रकार के अधिक प्रमाण मिलते हैं कि लौकिक कार्यों के लिये जमीन का दान किया गया। इस समय सामंतों के अधीनस्थ अधिकारियों की कई उपाधियाँ थी, जैसे भूपाल, भोक्ता, भोगी, भोगिका, राजपुत्र, सामंतक, राजा, मंडलीक इत्यादि। यह बात स्थानीय तोल एवं भाव से स्पष्ट है कि सामंतवाद स्थायी रूप से आर्थिक इकाइयों पर निर्भर था। जमीन देने के कारण एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी जिससे राजनीतिक सत्ता टुकङे-टुकङे हो रही थी। देश की विशालता एवं संचार साधनों की कठिनाई के कारण राजा के लिये राजनीतिक एकता को बनाए रखना सचमुच समस्या थी। कुछ समय बाद ब्राह्मणों ने राज्यों में अपना स्वतंत्र प्रभुत्व जमा लिया और इससे स्थानीय संस्कृति को बढावा मिला।

सामंतवादी व्यवस्था के दृढ होते जाने का एक बङा कारण था विदेशी हमले, जिनके कारण केंद्रीय शक्ति को बङा आघात पहुँचा। धीरे-धीरे राजसता दुर्बल हो गयी और उसके स्थान पर सामंतवादी प्रवृत्तियों से ग्रस्त अधिकारियों ने शक्ति प्राप्त कर ली। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि गुप्तकाल के बाद लगातार राजनीतिक गङबङी का काल चलता रहा और इससे आर्थिक हास ही अधिक हुआ।

सामंतवादी व्यवस्था का एक अन्य पहलू भी है जो इस बात को महत्त्व देता है, कि गुप्त वंश के बाद गाँव आत्मनिर्भर हो गए। व्यापार की अवनति के कारण एक सामान्य कृषि अर्थव्यवस्था की स्थापना हुई। कृषि से सीधा संपर्क हुआ। इस विकास को डी.डी. कोसांबी ने ऊपर से उत्पन्न सामंतवाद का नाम दिया है। इस विचार के अनुसार समय के साथ-साथ राज्य और किसानों के बीच गाँव में जमीन वाला वर्ग विकसित हुआ जिसने सैनिक शक्ति भी प्राप्त की। इसी क्रिया को नीचे से उत्पन्न सामंतवाद कहा गया है।

एक विशिष्ट दृष्टिकोण से सामंतवाद की जब चर्चा होती है, तब इसके जरूरी तथ्य प्रकाश में आने लगते हैं – जैसे आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था, व्यवसाय एवं विनिमय की कमी, जमीन वाले मध्यस्थ वर्ग का बढना, पराधीन किसान वर्ग इत्यादि।

राज्य की सुरक्षा सामंतवादी सरकारों पर निर्भर थी। किसी-न-किसी रूप में राजपूतों की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था कुल पद्धति पर आधारित थी। कुल एकता और वंशानुगत एवं सामाजिक जीवन की मुख्य धाराएँ थी। राजपूतों की प्रमुख विशेषता अपनी भूमि, परिवार और अपने मान सम्मान के साथ लगाव थी। संक्षेप में, राजपूती सामंतवाद की ये ही प्रधान विशेषताएँ थी। राजपूतों के दृष्टिकोण में क्षेत्रीयता व्याप्त थी। उनमें भाईचारे और समानता की भावना न थी। उनकी कुलीन व्यवस्था का प्रभाव सैनिक व्यवस्था पर पङा। ये ही वे प्रधान कारण रहे हैं जिनकी वजह से राजपूत स्थायी सेना की शक्ति का ठीक से कभी भी गठन न कर सके।

जब तुर्क भारत में आए तो सामंतवाद अपने अत्यधिक असफल रूप में सामने आया। यहाँ उप-सामंतवाद की प्रवृत्तियों ने भी स्थायी रूप धारण कर लिया। अधिकतर सामंतों के पास अपने अधीन सरदार थे, जैसे – सामंत, ठाकुर, रावत इत्यादि। देखा जाए तो कल्हण ने राजतरंगिणी में सामंतवादी व्यवस्था के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इस व्यवस्था ने केंद्रीय सरकार के प्राधिकारों को चुनौती दी। बारहवीं शताब्दी के एक शिलालेख से स्पष्ट है कि कुछ ठाकुर लोग मुखिया के अधीन थे जो कि चौरासी गाँवों का मालिक था और यह मुखिया मूल रूप में महाराजा भूपाल रायपाल के अधीन था। बंगाल में शक्तिशाली सामंतों ने अपनी स्वतंत्रता स्थापित कर ली थी। गुजरात में भी सिद्धराज की मृत्यु के बाद सामंतों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। ऐसी स्थिति में एक प्रकार की सीमित अर्थव्यवस्था अब महत्त्वपूर्ण हो गयी थी।

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