ब्रिटिश काल में प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन
ब्रिटिश काल में प्रशासनिक व्यवस्था – मुगलों से संपर्क स्थापित होने के बाद राजपूत शासकों का मुगल शासन पद्धति से परिचय हुआ और धीरे-धीरे मुगल शासन प्रणाली का प्रभाव राजस्थानी राज्यों पर पङने लगा। मुगल शासन प्रणाली का अनुकरण करते हुए प्रत्येक राजपूत शासक ने अपने राज्य को अनेक परगनों, तहसीलों और ग्रामों में विभाजित कर प्रशासन को चुस्त तथा सुसंगठित किया। मुगल शासन प्रणाली के अनुरूप ही राजस्थानी राज्यों में प्रशासन को सुचारु रूप से संचालित करने हेतु प्रभावशाली अधिकारी तंत्र का उत्कर्ष हुआ, लेकिन राज्य की समस्त शक्तियाँ शासक में निहित होती थी। ईस्ट इंडिया कंपनी से संधियाँ करने से पूर्व तक सभी राज्यों में शासक, अपने ही द्वारा नियुक्त बङे-बङे अधिकारियों से परामर्श किया करता था। किन्हीं-किन्हीं राज्यों में ये प्रशासनिक पद वंशानुगत हो गये थे। प्रत्येक राज्य में नवोदित नौकरशाही के लिये कोई निश्चित नियम नहीं थे, अतः इस नौकरशाही का स्वेच्छाचारी होना स्वाभाविक ही था।
ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित हो जाने के बाद राजस्थानी राज्यों की प्रशासन व्यवस्था में एक नया मोङ आया। प्रत्येक राज्य में नियुक्त पोलीटिकल एजेण्ट, राज्य से वसूल किये जाने वाले खिराज के लिए, राज्य में व्यवस्था बनाये के नाम पर शासकों को निरंतर सलाह देने लगे, फलस्वरूप राज्यों के प्रशासन में ब्रिटिश हस्तक्षेप बढने लगा। राज्यों के प्रशासन में ब्रिटिश हस्तक्षेप के फलस्वरूप राज्यों के प्रशासन में ब्रिटिश समर्थक पदाधिकारियों का उत्कर्ष हुआ, जो ब्रिटिश पोलीटकल एजेण्टों के आदेशानुसार कार्य करने लगे। इससे प्रशासन में शासकों का महत्त्व घट गया। 1857 ई. तक ब्रिटिश सरकार ने राज्यों के प्रमुख सामंतों और मुत्सद्दियों को अपने पक्ष में रखने की नीति अपनायी थी, लेकिन 1857 ई. के विप्लव में चूँकि राजस्थानी शासकों ने अँग्रेजों की भरपूर सहायता की थी, इसलिए राजपूत शासक और ब्रिटिश प्रशासन एक दूसरे के अधिक निकट आ गये। अब ब्रिटिश सरकार ने सामंतों और मुत्सद्दियों को अपने पक्ष में रखने की नीति त्यागकर ब्रिटिश प्रांतों से अपने विश्वस्त एवं स्वामिभक्त लोगों को राज्यों के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करने की नीति अपनायी। ब्रिटिश प्रान्तों से लाये गये इन अधिकारियों के माध्यम से अब राज्यों के प्रशासन को ब्रिटिश प्रान्तों के प्रशासन के अनुरूप ढालने का प्रयास किया गया। 1857 ई. तक ब्रिटिश सरकार देशी रियासतों के प्रति अधीनस्थ अलगाव की नीति का अवलंबन करती रही, किन्तु 1857 ई. के बाद ब्रिटिश नीति में नया परिवर्तन आया और विदेशी रियासतों के प्रति अधीनस्थ सहयोग की नीति अपनाई।
राजस्थानी राज्यों में राज्य की समस्त कार्यकारिणी शक्तियाँ शासक में निहित थी तथा शासक को प्रशासन में सहायता देने के लिये दीवान नामक एक अधिकारी होता था। कुछ राज्यों में इस अधिकारी को प्रधान अथवा मुसाहिब भी कहा जाता था। प्रशासनिक कार्यों को संपादित करने के लिये राज्य में एक कौंसिल होती थी तथा कौंसिल के सदस्य प्रशासन के विभिन्न विभागों पर नियंत्रण रखते थे। इन सुधारों के पूर्व सत्ता एक ही व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित रहती थी, किन्तु इन सुधारों के फलस्वरूप आंशिक रूप से सत्ता का विकेन्द्रीकरण दिखाई देता है। फिर भी राज्यों पोलिटीकल एजेण्ट (जिन्हें बाद में रेजीडेण्ट कहा गया था) प्रशासन में सर्वेसर्वा बने हुए थे। डॉ. यशवंतसिंह मेहता ने अपने शोध प्रबंध में लिखा है कि रेजीडेन्सी में जरा सी फुसफुसाहट राज्य में तूफान का संकेत देने वाली समझी जाती थी। शासक की अल्पव्यस्कता के काल में तो वह राज्य का प्रमुख प्रशासक ही बन जाता था और प्रशासन में ब्रिटिश प्रान्तों के अनुरूप सुधार लागू करवाता था। अतः 19 वीं शताब्दी के अंत तक राजस्थान के राज्यों का प्रशासन ब्रिटिश प्रान्तों के अनुरूप हो गया। प्रशासनिक सुविधा के लिये राज्य को मंडलों में विभक्त किया गया, मंडलों को अनेक निजामतों में बाँटा गया और प्रत्येक हकूमत के मुख्य अधिकारी को हाकिम कहा जाता था। इन प्रशासनिक इकाइयों के अधिकारी अपने-अपने क्षेत्र में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिये उत्तरदायी थे। 20 वीं शताब्दी के प्रथम दशक की समाप्ति तक सभी राज्यों में मंत्रिमंडल का गठन कर दिया गया, पुलिस विभाग का पुनर्गठन कर नये प्रशासकीय नियम बनाये गये और ग्राम पंचायतों को पुनर्जीवित कर नगर-पालिकाओं जैसे स्वायत्तशासी नियम बनाये गये और ग्राम पंचायतों को पुनर्जीवित कर नगर-पालिकाओं जैसे स्वायत्तशासी निकायों की स्थापना कर दी गयी। जोधपुर में तो पंचायतों को इतना अधिक महत्त्व दिया गया कि उन्हें वैधानिक स्वरूप प्रदान करने के लिये 1945-46 ई. में मारवाङ ग्राम पंचायत अधिनियम पारित कर दिया गया। जन कल्याणकारी कार्यों की तरफ भी ध्यान दिया जाने लगा। सार्वजनिक चिकित्सालयों की स्थापना, जेल व्यवस्था में सुधार तथा राज्य कर्मचारियों की सेवाओं को सुरक्षा प्रदान करने हेतु सेवा नियम आदि आधुनिकीकरण की दिशा में किये गये महत्त्वपूर्ण कार्य कहे जा सकते हैं।
प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन की दिशा में कार्यान्वित किये गये नये नियमों का सर्वाधिक प्रभाव न्याय व्यवस्था, सिंचाई के साधनों एवं कृषि, संचार व्यवस्था, औद्योगीकरण आदि के क्षेत्रों में पङा। किन्तु जन कल्याणकारी क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार की अधिक रुचि न होने के कारण शिक्षा, चिकित्सा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में सुधारों की गति, अत्यन्त ही मंद रही। समाज में प्रचलित कुरीतियों, जैसे – सती-प्रथा, कन्या-वध, डाकिन-प्रथा, स्रियों व बच्चों का क्रय-विक्रय आदि की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित हुआ, जिन्हें दूर कर राजस्थान के सामाजिक जीवन में परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ की गयी।
भू-बंदोबस्त एवं राजस्व
भारतवर्ष एक कृषि प्रधान देश रहा है और राजस्थान इसका अपवाद नहीं हो सकता। यहाँ की अधिकांश जनता की जीविका का सााधन कृषि था। ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित होने से पूर्व यहाँ कृषि की हालत पूर्णतया बिगङ चुकी थी। मराठों व पिण्डारियों की लूट मार के कारण खङी फसलें या तो लूट ली जाती थी या उन्हें जला दिया जाता था। किसानों को उनके परिश्रम का फल मिलने में संदेह रहता था अतः किसानों ने खेती करना ही छोङ दिया था। गाँव वीरान हो गये थे। किन्तु राजस्थान में ब्रिटिश आधिपत्य की स्थापना के बाद स्थिति में सुधार हुआ। मेवाङ में 300 वीरान गाँवों और कस्बों को पुनः बसाया गया। राजस्थान के अन्य राज्यों में भी जो भूमि कई सालों से मराठा आतंक के कारण बेकार पङी हुई थी, उस पर पुनः खेती की जाने लगी। किसानों को अनेक सुविधाएँ प्रदान की गयी। किन्तु ब्रिटिश आधिपत्य के बाद यहाँ के कुटीर उद्योगों की अवनति आरंभ हो गयी थी और कुटीर उद्योगों में लगे लोग भी कृषि की ओर आकर्षित हुए और कृषि पर निर्भर रहने लगे। परिणामस्वरूप कृषि पर भार बढता गया। इधर नमक के उत्पादन से तथा राहदारी शुल्क से होने वाली आय अँग्रेजों ने अधिगृहीत कर ली जिससे राज्यों की आय घट गयी जबकि दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार को दिया जाने वाला भारी खिराज, अँग्रेजों द्वारा गठित सैनिक बटालियनों का खर्च, प्रशासन के आधुनिकीकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासों से बढा हुआ प्रशासनिक व्यय, सङकों व रेल-निर्माण का व्यय, सिंचाई के साधनों पर किया जाने वाला व्यय, आदि के कारण राज्यों का व्यय बढ गया थआ। परंपरागत व्यवस्था से भू राजस्व में वृद्धि संभव नहीं थी। अतः ब्रिटिश पदाधिकारियों के परामर्श से नयी व्यवस्था लागू की गयी। यद्यपि आधुनिकीकरण की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था, तथापि किसानों के लिये यह हानिप्रद सिद्ध हुआ।
भरतपुर राज्य में सर्वप्रथम हेनरी लारेन्स ने 1855 ई. में भूमि का संक्षिप्त सर्वेक्षण करवाया तथा एक अस्थायी बंदोबस्त लागू किया, जो आगे चलकर समय-समय पर बदलता रहा। भरतपुर में विधिवत बंदोबस्त 1901 ई. में ही किया जा सका। इसी प्रकार अलवर राज्य में 1859-60 ई. से परीक्षण के तौर पर अस्थायी भू-बंदोबस्त लागू किया गया था, लेकिन वहाँ भी विधिवत बंदोबस्त का प्रयास किया गया, किन्तु साधारण किसानों के विरोध के फलस्वरूप भू-बंदोबस्त का कार्य स्थगित करना पङा। तत्पश्चात् 1868 ई. में चकबंदी प्रथा को लागू किया गया, जिसका उद्देश्य राज्य के प्रत्येक खालसा गाँव की पीवल (सिंचाई युक्त) और बारानी (वर्षा पर निर्भर) भूमि की पैमाइश करना, किसानों में नये सिरे से भूमि का बँटवारा करना और साथ ही भूमि की किस्म और काश्तकार की जाति के आधार पर प्रति बीघे के हिसाब से नकद भूमि कर निश्चित करना था।
भू-बंदोबस्त का कार्य जोधपुर में विधिवत रूप से 1883 ई. में कर्नल लोच और पंडित बधवाराम की देख-रेख में किया गया। वहाँ पर खालसा भूमि की पैमाइश करवाकर 1893-94 ई. में दस वर्षीय बंदोबस्त लागू कर दिया गया अर्थात् दस वर्ष के लिये भूमि-कर निश्चित कर दिया। मेवाङ में 1871-72 ई. में तीन वर्षों के लिये एक अस्थायी बंदोबस्त किया तब किसानों ने बङी हिचकिचाहट व अनिच्छा से स्वीकार कर लिया। लेकिन जब 1874 ई. में तथा 1879 ई. में उसे स्थायी करने का प्रयास किया, तब किसानों ने इसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। तत्पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने मेवाङ में कर्नल स्मिथ को सेटिलमेंट अधिकारी नियुक्त किया जिसने व्यापक तैयारी के बाद 1880 ई. में पुनः बंदोबस्त लागू करने का असफल प्रयास किया। तत्पश्चात् राज्य के प्रधान पन्नालाल जैसे ब्रिटिश भक्त ने परगनों में जाकर किसानों को समझाया तथा स्थानीय महाजनों और प्रभावशाली लोगों के सहयोग से 1885-93 ई. के बीच इस नये बंदोबस्त को लागू किया गया। इसी प्रकार बीकानेर में 1894 ई. में, धौलपुर में 1892 ई. में टोंक में 1902 ई. में भूमि-बंदोबस्त लागू कर दिया गया।
विभिन्न राज्यों में किये गये भूमि बंदोबस्त से राज्यों के राजस्व में वृद्धि हुई क्योंकि अब भू-लगान नकद वसूल किया जाने लगा। पहले किसान अधिकांशतः खाद्यान उत्पादन तक सीमित थे, लेकिन लगान की राशि निश्चित कर देने से अधिक मूल्यवान और व्यापारिक वस्तुएँ उत्पादित करने लगे। इसके अलावा प्रति बीघे के हिसाब से लगान निश्चित कर देने से लाखों बीघा भूमि जो पङत थी, उस पर भी खेती होने लगी। इन सभी बातों के अलावा सिंचाई के साधनों में वृद्धि करना तथा बंदोबस्त के समय लगान की दरों में वृद्धि करना, भू-राजस्व से प्राप्त होने वाली आय में वृद्धि के कारण थे। भूमि बंदोबस्त से पहले भिन्न-भिन्न जातियों से भिन्न-भिन्न दरों के हिसाब से भूमि-कर लिया जाता था। लेकिन अब जातिगत भेद-भाव समाप्त कर दिया गया और सभी काश्तकारों के साथ समान व्यवहार हुआ। इसके पूर्व भूमि-कर निर्धारण की विविध पद्धतियाँ, जैसे – लाटा कूँता, बटाई आदि प्रचलित थी, समाप्त कर दी गयी। अब सभी राज्यों में एक ही पद्धति अपनायी गयी और वह थी – प्रति बीघे के हिसाब से नकद भूमि कर वसूल करना।
अँग्रेजों द्वारा किया गया भूमि बंदोबस्त किसानों के लिये बङा घातक सिद्ध हुआ। प्रत्येक नये बंदोबस्त के साथ लगान की दर बढायी गयी। जिन वर्षों में पैदावार कम होती थी, किसानों के लिये नकद राजस्व जुटाना कठिन हो जाता था और इसके लिये उन्हें साहूकारों के शिकंजे में जकङ दिया और फिर किसानों को भूमि से बेदखल करने की प्रक्रिया आरंभ हो गयी। नये भूमि बंदोबस्त से पहले मवेशियों के लिये उगायी गयी फसलों पर कर नहीं लगता था, कुछ राज्यों में केवल नाममात्र का कर लगता था। लेकिन अब चारे की भूमि को भी उसी प्रकार लगान योग्य बना दिया जैसे खाद्यान्न की भूमि। चारे पर लगान निर्धारित कर देने से वर्षा के अभाव में किसानों की निर्धनता तो बढी ही, साथ ही मवेशियों की भी हानि होने लगी। गाँवों का सुरम्य जीवन समाप्त हो गया, भ्रष्टाचार व्यापक हो गया और किसान लगान के बोझ से दब गया। नये भूमि बंदोबस्त का घातक प्रभाव महाजन वर्ग पर भी पङा। पहले यह वर्ग भूमि कर वसूली के इजारे पर काम करता था, किन्तु अब इजारेदारी प्रथा के समाप्त हो जाने से इस वर्ग का मुख्य व्यवसाय रुपयों के लेन-देन तक सीमित रह गया और इस व्यवसाय से जब वे अपनी जीविका नहीं चला पाये तब वे अपनी जीविका हेतु राज्य से बाहर चले गये।
इन सभी बुरे परिणामों का मुख्य कारण यह था कि अँग्रेज वित्त व्यवस्था का मुद्रीकरण चाहते थे ताकि राजस्थानी राज्यों में ब्रिटिश उत्पादित वस्तुओं की खपत बढायी जा सके। फिर भी भू-राजस्व प्रशासन का जो ढाँचा 20 वीं शताब्दी के प्रथम दशक में खङा किया गया वह आधुनिकीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम था। बीकानेर में तो राजस्व मंडल की स्थापना कर दी गयी थी।
सिंचाई के साधन
अधिक से अधिक भूमि को कृषि योग्य बनाने तथा पैदावार में वृद्धि के लिये सिंचाई के साधनों में वृद्धि करना भी आवश्यक था। इसलिए 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इन पर ध्यान दिया गया। कई राज्यों में नदियों को रोककर बाँध बनाने तथा नहरें निकालकर भूमि की सिंचाई की तरफ ध्यान दिया गया, विशेषकर 1877-78 के अकाल के समय सिंचाई सुविधाओं की ओर ध्यान दिया गया। 19 वीं शताब्दी के अंत तक जयपुर राज्य में लगभग 200 छोटे-बङे सिंचाई कार्यों को पूरा किया गया, जिनसे लगभग एक लाख बीघा भूमि में लगभग 200 छोटे-बङे सिंचाई कार्यों को पूरा किया गया, जिनसे लगभग एक लाख बीघा भूमि में सिंचाई होने लगी। भरतपुर राज्य में लगभग 160 सिंचाई योजनाओं को पूरा किया गया। मारवाङ में भी 24 छोटे-बङे बाँध बनाये गये। उदयपुर राज्य में पिछोला, उदयसागर, राजसमंद और जयसमंद झीलों से नहरें निकाली गयी। 19 वीं शताब्दी के तरह ही 20 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भी सिंचाई योजनाएँ बनने लगी। उदयपुर में 1923 ई. में कृषि सुधारक फण्ड की स्थापना की गयी, जिसकी पूँजी एक लाख रुपया रखी गयी। करेडा, माण्डल आदि तालाबों का निर्माण हुआ। बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने गंग नहर का निर्माण करवाया, जिससे सिंचित क्षेत्र से होने वाली आय में भी वृद्धि हुई। 20 वीं शताब्दी के तीसरे दशक में विभिन्न राज्यों ने कृषि प्रायोगिक फार्म बनाये तथा उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग होने लगा। एकीकृत राजस्थान के निर्माण के समय इस प्रकार के 27 फार्म थे। सिंचाई सुविधाओं के विकास का परिणाम यह हुआ कि कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल में वृद्धि हुई। 1821 ई. में राजस्थान में 3 करोङ 60 लाख एकङ भूमि खेती योग्य थी, किन्तु 1947 ई. में यह 5 करोङ 20 लाख एकङ हो गयी। सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि होने से कृषि की उन्नति हुई और प्रदेश में औद्योगीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ।
फिर भी राजस्थान में सिंचाई कार्यों का विकास अपेक्षाकृत मंद रहा। इसका कारण भूमि का पर्वतीय होना, जलस्तर की गहराई, पालों (किनारों की दीवारें) के कच्ची या कमजोर होने से अधिक पानी रोक सकने की अक्षमता आदि थे। इसके अलावा राज्यों के सीमित साधनों के कारण बाह्य सहायता के अभाव में सिंचाई सुविधाओं का विकास असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था। फिर राजस्थानी शासकों के मन में इस बात की आशंका थी कि कहीं सिंचाई सुविधाओं का स्थायी स्वामित्व ब्रिटिश सरकार के हाथ में न चला जाय।
राजस्थान में औद्योगीकरण
राजस्थान में औद्योगीकरण के लिये सामान्यतः खनिज संपदा, कच्चा माल, सस्ती मजदूरी, भूमि एवं पूँजी तथा उद्यमकर्त्ता उपलब्ध थे और 18 वीं शताब्दी के अंत तक यहाँ स्थानीय उद्योग धंधे भी विकसित थे। स्थानीय उद्योग धंधों के लिये आवश्यक कच्चे माल की अधिकांश पूर्ति स्थानीय खानों और कृषि पैदावार से हो जाती थी। कच्चा माल बहुत ही कम आयात किया जाता था। किन्तु 19 वीं सदी के मध्य तक अभ्रक, संगमरमर और इमारती पत्थर को छोङकर अन्य खनिजों का उत्खनन बंद हो गया, जिसके दो कारण थे – 1.) उत्खनन किये जाने वाले खनिजों के लिये आवश्यक उद्योगों का अभाव 2.) यूरोप से आने वाले सस्ते खनिज। उत्खनन बंद हो जाने से राज्यों की आर्थिक स्थिति पर तो विपरीत प्रभाव पङा ही, साथ ही रोजगार के अवसर सीमित हो जाने से जन-सामान्य पर भी इसका घातक प्रभाव पङा।
19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में राजस्थानी उद्योगों की तीन श्रेणियाँ थी। एक श्रेणी तो ऐसे उद्योगों की थी जिनमें केवल स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उत्पादन होता था, जैसे – सूतली, टाट पट्टी उद्योग, काष्ठ उद्योग, मिठाई उद्योग आदि। झालरापाटन में टाटपट्टी व सूतली तैयार की जाती थी तथा बीदासर (बीकानेर) व जैसलमेर में रस्से-रस्सियाँ बनाये जाते थे। उदयपुर, भीलवाङा, शाहपुरा, मूंडवा (जोधपुर) तथा सवाई माधोपुर काष्ठ उद्योग के लिए प्रसिद्ध थे। दूसरी श्रेणी उन उद्योग-धंधों की थी, जिनके उत्पादन का, स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद राजस्थान के अन्य राज्यों में निर्यात किया जाता था, जैसे – मोटा सूती वस्र उद्योग, ऊनी वस्र उद्योग आदि। तीसरी श्रेणी के उद्योगों का उत्पादन राजस्थान के बाहर भी निर्यात किया जाता था, जैसे – नमक उद्योग, संगमरमर उद्योग और सूती वस्र उद्योग आदि।
19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के कुछ राज्यों में नये उद्योगों की स्थापना की गई, जिन्हें दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। प्रथम श्रेणी में ऐसे उद्योगों को लिया जा सकता है जो सम्पन्न लोगों की सुख-सुविधाओं को जुटाने अथवा स्थानीय कच्चे माल से स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्पादन करते थे। दूसरी श्रेणी ऐसे उद्योगों की थी जो कृषि उत्पादित वस्तुओं को निर्यात किये जाने योग्य कच्चे माल में परिवर्तित करते थे। पहली श्रेणी में सोडा वाटर, चमङे और काँच आदि के कारखाने थे, जैसे – 1886 ई. में जोधपुर राज्य ने बर्फ तथा सोडा वाटर की एक फैक्ट्री स्थापित की, 1892 ई. में अलवर राज्य में राजवाङे ग्लास कंपनी की स्थापना की गयी जो काँच की चूङियाँ और बर्तन बनाने का काम करती थी। 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में कोटा तथा भरतपुर में भी काँच बनाने के कारखाने खोले गये। 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में कोटा तथा भरतपुर में भी काँच बनाने के कारखाने खोले गये। आबू रोङ में एक चमङे का तथा दूसरा बर्फ व सोडावाटर बनाने का कारखाना स्थापित हुआ। दूसरी श्रेणी के उद्योग, चूँकि अँग्रेजों की कच्चे माल की माँग की पूर्ति करते थे, अतः उन्हें ब्रिटिश सरकार का प्रोत्साहन मिलता रहा, जिससे उनकी संख्या में निरंतर वृद्धि होती गयी। 1890 ई. में भीलवाङा में कपास और ऊन ओटने का एक कारखाना स्थापित हुआ। 19 वीं सदी के अंत तक कोटा, बंदी, जोधपुर और जयपुर में भी कपास और ऊन ओटने के कई कारखाने स्थापित हुए। अजमेर, ब्यावर, केकङी, नसीराबाद और किशनगढ में वाष्प शक्ति से संचालित कपास ओटने के कारखाने स्थापित किये गये। ब्यावर में 1891 ई. में कृष्णा कॉटन मिल नामक मिल की स्थापना हुई। इस मिल में निर्मित सूती धागा आगरा और कानपुर को भी भेजा जाता था। 1897 ई. में किशनगढ में सूत कातने और बुनने की अति आधुनिक मिल स्थापित की गयी। इसी प्रकार अन्य राज्यों में भी अनेक उद्योग स्थापित हुए, लेकिन उन्हें उल्लेखनीय उद्योगों की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
फिर भी 19 वीं शताब्दी के अंत तक स्थापित उद्योग कृषि उत्पादन और इस क्षेत्र में उपलब्ध कच्चे माल को बाँधकर देश में अथवा देश के बाहर बङे उद्योगों के लिए काम में आने योग्य सामान बनाकर भेजने में सहायता करते थे। कुछ राज्यों ने 1920 ई. के बाद अवश्य औद्योगीकरण की प्रक्रिया आरंभ की लेकिन शासकों ने ऐसी नीति अपनायी जिससे औद्योगिक विकास की प्रगति नहीं हो सकी। डॉ. एम.एस.जैन ने लिखा है कि, राज्यों के नरेशों ने इस बात के लिये तो प्रतिस्पर्द्धा थी कि अँग्रेजों की दृष्टि में कौन ऊँचा उठ सके और एक से अधिक उपाधि प्राप्त कर सकें। लेकिन अपने राज्य के आर्थिक विकास में बहुत कम रुचि ली।
1930-32 ई. के बाद कुछ शासकों ने निष्क्रमण किये हुए व्यापारियों को राज्य में पूँजी निवेश के लिये आमंत्रित किया और उन्हें कुछ सुविधाएँ देने को भी कहा। 1920 ई. के बाद मारवाङ में देसूरी व पाली में, ब्यावर में, बीकानेर में, श्रीकरणपुर, रायसिंह नगर, विजयनगर, श्रीगंगानगर, मेवाङ में फतेहनगर, बनेङा, राजसमंद, आसीन्द आदि स्थानों पर रुई ओटने की फैक्ट्रियाँ लगी। पाली, बीकानेर और हनुमानगढ में ऊन की गाँठें बाँधने की फैक्ट्रियाँ लगायी गयी। ब्यावर में 1925 ई. में तीसरी कपङा मिल स्थापित हुई। भीलवाङा में 1938 ई. में तथा पाली में 1944 ई. में कपङा मिलें लगायी गयी। 1913 ई. में लाखेरी में तथा 1930 ई. के बाद सवाई माधोपुर में सीमेण्ट फैक्ट्री स्थापित हुई। 1942 ई. में मेवाह में करेङा (भूपालसागर) में चीनी मिल स्थापित हुई तथा 1943 ई. में मेवाङ ऑयल मिल की स्थापना हुई। अपने राज्यों में स्थापित उद्योगों को संरक्षण एवं सुविधाएँ देने की दृष्टि से जोधपुर राज्य ने 1939 ई. में एक आर्थिक विभाग की स्थापना की। उदयपुर राज्य ने 1940 ई. में एक उद्योग विभाग स्थापित किया और 1943 ई. में बीकानेर राज्य ने भी इस दिशा में कुछ कार्य किया।
फिर भी स्वतंत्रता के पूर्व तक राजस्थान औद्योगिक दृष्टि से पिछङा रहा। इसका मुख्य कारण राज्यों के सीमित साधन तो थे ही, लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाये गये कुछ प्रतिबंध भी औद्योगिक विकास में बाधक थे, जैसे – 1.) यदि कोई राज्य किसी भी ब्रिटिश भारत के नागरिक से कोई वित्तीय अनुबंध करे अथवा ऋण ले तो यह समस्त प्रक्रिया ब्रिटिश सरकार के माध्यम से होनी चाहिए। 2.) ब्रिटिश भारत के नागरिक भी किसी शासक को बिना भारत सरकार की अनुमति के ऋण न दें, अन्यथा उसकी वापसी के लिये भारत सरकार उनकी सहायता नहीं करेगी। 3.) यदि कोई यूरोपीय अथवा भारतीय नागरिक भारतीय राज्यों में कोई उद्योग स्थापित करना चाहे तो उन्हें सरकार की पूर्व स्वीकृति लेनी होगी। 4.) राज्य द्वारा सार्वजनिक ऋण लेने से पूर्व भारत सरकार को इस प्रकार के ऋण लेने का प्रयोजन बताना होगा।
इस प्रकार बहुत से सेठ-साहूकार जो ब्रिटिश भारत में व्यापार-वाणिज्य करते थे, अपनी मातृभूमि बाले राज्यों में कारखाने स्थापित करने अथवा पूँजी निवेश के लिये प्रतिबंधित थे। औद्योगिक प्रगति में राज्यों को ब्रिटिश सरकार का सहयोग भी प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रकार की नीति के फलस्वरूप राजस्थान के राज्यों के औद्योगिक विकास में बाधाएँ उत्पन्न कर दी गयी।
विद्युत गृहों की स्थापना
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में उद्योगों की अहम भूमिका होती है तथा उद्योगों का अभिन्न संबंध विद्युत से होता है। विद्युत से न केवल औद्योगिक विकास संभव है, बल्कि जन सामान्य की सुख सुविधाओं में भी वृद्धि होती है। मरुस्थलीय राजस्थान में विद्युत का चमचमाता प्रकाश सर्वप्रथम बीकानेर में हुआ। यद्यपि बीकानेर में विद्युत उत्पादन का कार्य 1886 ई. में आरंभ हो गया था, लेकिन आधुनिक विद्युतग्रह की स्थापना 1902 ई. में ही संभव हो पायी। 1913 ई. में बून्दी में तथा 1917 ई. में जोधपुर में भी विद्युत-गृह स्थापित हुए। इसके बाद तो राजस्थान के प्रत्येक राज्य में विद्युत उत्पादन का काम प्रबल वेग से आरंभ हो गया। 1924-1937 ई. के मध्य अजमेर, भरतपुर, किशनगढ, धौलपुर, बाँसवाङा, सिरोही, ब्यावर आदि स्थानों पर विद्युत-गृह स्थापित हुए । जोधपुर, जयपुर, उदयपुर, बीकानेर, कोटा आदि राज्यों में समय-समय पर विद्युत उत्पादन की क्षमता में वृद्धि की जाती रही, जिससे औद्योगिक प्रतिष्ठानों में तथा नागरिकों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु विद्युत प्रदान की गयी।