तुर्कों के आगमन के समय भारत का सामाजिक संगठन कैसा था
भारत का सामाजिक संगठन – हिंदू समाज जाति-पाँति और भेदभाव की भावना से प्रभावित था। एकता और समानता की भावना समाज में न थी। मध्यकाल के आरंभ से ही इस व्यवस्था में अनेक जटिलताएँ प्रवेश करने लगी थी और सामाजिक बंधुत्व की भावना संकीर्ण से संकीर्णतर होने लगी थी। इस व्यवस्था के कारण ब्राह्मणों को समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त हो गया और निम्न वर्गों को, जैसे शूद्र,चांडाल आदि को नीची निगाह से देखा जाता था। परमात्मा शरण का यह विचार है कि जातिवाद की प्रथा ही तुर्कों के सामने हिंदुओं की हार का मुख्य कारण थी। समाज अलग-अलग छोटे-छोटे वर्गों में विभाजित था। उच्च वर्ग या जाति के लोगों ने बङी संख्या में निम्न वर्गों को उनके अधिकारों से वंचित रखते हुए अपना स्वार्थ पूरा किया। ऐसा भी देखा गया है, कि वर्णव्यवस्था ने लोगों की विचारधारा को संकुचित कर दिया और उनमें परस्पर आदान-प्रदान के लिये स्थान न रहा। जैसा कि तारीखे हिंद के लेखक अलबरूनी ने संकेत किया कि हिंदुओं में यह दृढ विश्वास है कि, भारत के समान और कोई देश नहीं है, कोई ऐसा राष्ट्र नहीं, कोई राजा उनके राजा के समान नहीं है तथा अन्य कहीं भी विज्ञान उनके विज्ञान के समान नहीं है।
प्राचीन धर्मशास्त्रों और निबंधों में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। मनु के शब्दों में ब्राह्मणों का अस्तित्व संसार में सबसे ऊँचा है। वह सब जीवधारियों का स्वामी है, न्याय के नियमों का संरक्षक तथा संसार में जो कुछ भी है, सब उसकी संपत्ति है। विशेष रूप से अपने पवित्र जन्म के कारण उसे ये अधिकार प्राप्त हैं।
भारत में जो लोग द्विज न थे, उनको ज्ञान प्राप्त करने का कोई अधिकार न था। इसका विरोध करने वाले को कङा दंड मिलता। अलबरूनी के अनुसार प्रत्येक कार्य में ब्राह्मण का अधिकार है, जैसे स्तुति करना, वेदों का पाठ करना, अग्नि को बलि देना आदि। ये कार्य और कोई नहीं कर सकता था। अगर यह ज्ञात हो जाता था कि शूद्र या वैश्य ने वेदों के पाठ करने की कोशिश की है तो उसे दोषी ठहराकर उसकी जीभ काट दी जाती थी।
तुर्क आक्रमण के समय वर्णव्यवस्था अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई थी। अलबरूनी हमें सूचित करता है कि केवल ब्राह्मण को मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार था। उच्च स्थान प्राप्त होने के अलावा ब्राह्मण को कर का भुगतान नहीं करना पङता था। परंतु डॉ.घोषाल और डॉ.अल्तेकर ने अलबरूनी के बताए हुए आधार पर यह स्पष्ट किया है कि न तो महाभारत से, न ही नारद-स्मृति और न दक्षिण भारत की खुदाई से यह जानकारी प्राप्त होती है कि ब्राह्मणों के सभी वर्ग कर देने से मुक्त थे।
ब्राह्मण का जीवन चार आश्रमों में विभाजित था – 1.) पहला आठ से पच्चीस साल तक ब्रह्मचर्य जिसमें वह वेद का अध्ययन करता था, 2.) दूसरी पचीस से पचास वर्ष तक गृहस्थ आश्रम, 3.) तीसरा पचास से पचहत्तर वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम और 4.) चौथा पचहत्तर वर्ष के बाद संन्यास आश्रम जब वह गृह जीवन त्याग कर देता था और संन्यास धारण करते हुए मोक्ष की इच्छा में प्रवृत्त हो जाता था। इन सभी आश्रमों में गृहस्थ सबसे महत्त्वपूर्ण था क्योंकि यह व्यक्ति से यह माँग करता था कि जिस समाज में वह रहता है, उसके प्रति अपने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दायित्व को वह पूरा करे।
कृत्यकल्पतरु और गृहस्थ रत्नाकर नामक पुस्तकों से हमें क्षत्रियों के अधिकार और कर्तव्य के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। सामाजिक व्यवस्था में क्षत्रियों का दूसरा स्थान था। पुराणों के द्वारा निर्धारित संस्कारों को पूरा करने की उन्हें अनुमति थी। अलबरूनी से हमें पता चलता है, कि उसका स्थान ब्राह्मणों से अधिक नीचा न था । हिंदू धर्म में जितने योग्यतम और अलौकिक तत्व थे, उन सब पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों का नियंत्रण था। शूद्र ब्राह्मणों के नौकर थे,इनकी सेवा करते थे और अपने निर्धारित कर्तव्य को पूरा करते थे।
इस वर्णव्यवस्था के अतिरिक्त अंत्यज होते थे जिनका समाज में कोई स्थान न था। ये किसी न किसी कारीगरी या पेशे के सदस्य होते थे। इनके आठ वर्ग थे, मोची, टोकरी बनाने वाले, मछुआरे, शिकारी इत्यादी। ऐसा पता चलता है, कि इनके कोई सांस्कृतिक रीति-रिवाज नहीं थे, न कोई संस्थागत एकता थी। नगर सीमा में प्रवेश करने का अधिकार इनको न था, और ये केवल सूचना देकर प्रवेश कर सकते थे। अलबरूनी के अनुसार ये दो भागों में विभाजित थे – 1.) उच्च वर्ग – जिन्हें भाग्यशाली माना जाता था, 2.) निम्न विर्ग – जिनको कोई विशेष स्थान प्राप्त न था।जो स्थान मजदूरों और कारीगरों को दिया जाता था, वह भी निंदनीय था। अलबरूनी ने लिखा है कि यदि कोई कारीगर अपने कार्य को छोङकर दूसरे वर्ग का कार्य अपनाना चाहता था, जिससे उसे अधिक सम्मान मिल सके तो भी उसका कार्य पाप समझा जाता था।
भारत में जाति व्यवस्था ने समाज को खोखला और आधारहीन बना दिया था। छुआछूत की भावना के कारण समाज की दशा और शोचनीय हो गई। अलबरूनी के अनुसार अगर कोई हिंदू, मुसलमानों का कैदी बन जाता था, तो हिंदू समाज उसे वापस नहीं लेता थआ। हिंदू नहीं चाहते थे कि किसी अपवित्र को फिर से पवित्र किया जाए। एक तरह से जाति व्यवस्था ने भाईचारे और एकता की भावना समाप्त कर दी थी। इनके विरुद्ध मुसलमानों में जातिगत एकता थी जिसके द्वारा तुर्क शासकों ने राजपूतों की जाति व्यवस्था को कठोर आघात पहुँचाया। जाति व्यवस्था के कारण तुर्कों को युद्धों में सफलता मिली। व्यक्तिगत और जातिगत दृष्टिकोण से वर्णव्यवस्था निंदनीय थी। वर्णव्यवस्था के बुरे प्रभाव पर विचार करते हुए बेनी प्रसाद ने लिखा है, वर्णव्यवस्था को प्रोत्साहन देने से व्यक्तिगत मूल्यों का हास होता है। यह व्यक्तित्व पर आक्रमण करता है और निम्न वर्ग का अस्तित्व समाप्त सा हो जाता है … यह स्वतंत्र अभिव्यक्ति को समाप्त कर देता है। वर्णव्यवस्था का सिद्धांत मनुष्य के प्रति मनुष्य की घृणा को दर्शाता है।